ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 7
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अस॑र्जि वां॒ स्थवि॑रा वेधसा॒ गीर्वा॒ळ्हे अ॑श्विना त्रे॒धा क्षर॑न्ती। उप॑स्तुताववतं॒ नाध॑मानं॒ याम॒न्नया॑मञ्छृणुतं॒ हवं॑ मे ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑र्जि । वा॒म् । स्थवि॑रा । वे॒ध॒सा॒ । गीः । बा॒ळ्हे । अ॒श्वि॒ना॒ । त्रे॒धा । क्षर॑न्ती । उप॑ऽस्तुतौ । अ॒व॒त॒म् । नाध॑मानम् । याम॑न् । अया॑मन् । शृ॒णु॒त॒म् । हव॑म् । मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असर्जि वां स्थविरा वेधसा गीर्वाळ्हे अश्विना त्रेधा क्षरन्ती। उपस्तुताववतं नाधमानं यामन्नयामञ्छृणुतं हवं मे ॥
स्वर रहित पद पाठअसर्जि। वाम्। स्थविरा। वेधसा। गीः। वाळ्हे। अश्विना। त्रेधा। क्षरन्ती। उपऽस्तुतौ। अवतम्। नाधमानम्। यामन्। अयामन्। शृणुतम्। हवम्। मे ॥ १.१८१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वेधसाऽश्विना वां या स्थविरा त्रेधा क्षरन्ती गीर्वाढेऽसर्जि तामुपस्तुतौ सन्तौ युवामवतं वां नाधमानं मे मम हवं यामन्नयामञ्छृणुतम् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(असर्जि) (वाम्) युवयोः (स्थविरा) स्थूला विस्तीर्णा (वेधसा) प्राज्ञौ (गीः) वाणी (वाढे) प्रापणे (अश्विना) सत्योपदेशव्यापिनौ (त्रेधा) त्रिप्रकारैः (क्षरन्ती) प्राप्नुवन्ती (उपस्तुतौ) निकटे प्रशंसितौ (अवतम्) प्राप्नुतम् (नाधमानम्) विद्यैश्वर्य्यवन्तं संपादितवन्तम् (यामन्) यामनि सत्ये मार्गे (अयामन्) अगन्तव्ये मार्गे (शृणुतम्) (हवम्) श्रोतुमर्हं शब्दम् (मे) मम ॥ ७ ॥
भावार्थः
य आप्तवाचं शृण्वन्ति ते कुमार्गं विहाय सुमार्गं प्राप्नुवन्ति। ये मनःकर्मभ्यां मिथ्या वक्तुन्नेच्छन्ति ते माननीया भवन्ति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वेधसा) प्राज्ञ उत्तम बुद्धिवाले (अश्विना) सत्योपदेशव्यापी अध्यापकोपदेशको ! (वाम्) तुम्हारी जो (स्थविरा) स्थूल और विस्तार को प्राप्त (त्रेधा) तीन प्रकारों से (क्षरन्ती) प्राप्त होती हुई (गीः) वाणी (वाढे) प्राप्ति करानेवाले व्यवहार में (असर्जि) रची गई उसको (उपस्तुतौ) अपने समीप दूसरे से प्रशंसा को प्राप्त होते हुए तुम दोनों (अवतम्) प्राप्त होओ, तुम दोनों को (नाधमानम्) विद्या और ऐश्वर्य्ययुक्त संपादित करता हुआ अर्थात् तुम्हारे ऐश्वर्य्य को वर्णन करते हुए (मे) मेरे (हवम्) सुनने योग्य शब्द को (यामन्) सत्य मार्ग (अयामन्) और न जाने योग्य मार्ग में (शृणुतम्) सुनिये ॥ ७ ॥
भावार्थ
जो श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वानों की वाणी को सुनते हैं, वे कुमार्ग को छोड़ सुमार्ग को प्राप्त होते हैं। जो मन और कर्म से झूठ बोलने को नहीं चाहते, वे माननीय होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
त्रेधा क्षरन्ती [वेदवाणी]
पदार्थ
१. हे (वेधसा) = हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! (वां बाळहे) = आपकी स्थिरता होने पर, हमारे शरीरों में आपका पोषण होने पर (स्थविरा गी:) = यह सनातन वेदवाणी (असर्जि) = हममें निर्मित की जाती है। प्राणापान की साधना से, इनकी क्रियाओं के ठीक होने पर यह वाणी (त्रेधा) = तीन प्रकार से (क्षरन्ती) = मलों का क्षरण करती है। यह शरीर के रोगों को हटाती है, मन की मलिनता को दूर करती है तथा बुद्धि की मन्दता का नाश करती है । २. हे प्राणापानो ! (उपस्तुतौ) = स्तुति किये गये आप (नाधमानम्) = याचना करते हुए मेरी (अवतम्) = रक्षा करो। (यामन् अयामन्) = जीवन के जाने और न जाने योग्य प्रत्येक मार्ग में (मे हवम्) = मेरी पुकार को (शृणुतम्) = आप सुनो। आपकी आराधना से मेरी सब कामनाएँ पूर्ण हों ।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना से हमें वह ज्ञान की वाणी प्राप्त हो जोकि हमारे शरीर, मन व बुद्धि के मलों का क्षरण करती है ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और परिव्राजक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (वेधसा) विद्वान् पुरुषो ! या स्त्री पुरुषो ! हे (अश्विना) विद्याओं और ऐश्वर्यों के पारंगत ! (वां) आप दोनों की (स्थविरा) स्थिर, अनुभव युक्त (गीः) उपदेश वाणी (बाढे) गुरु द्वारा दिये और शिष्य द्वारा प्राप्त किये जाते समय ( त्रेधा क्षरन्ती ) तीनों प्रकारों से बहती हुई ( असर्जि ) रची जाय । आप दोनों ( उपस्तुतौ ) खूब प्रशंसित और गुरु के समीप विद्या प्राप्त करके (नाधमानं) संताप करते हुए दुःखी, ऐश्वर्यवान् यजमान और विद्या याचना करने वाले शिष्य और आशीर्वाद देने वाले वृद्ध पुरुष को ( यामन् ) उत्तम मार्ग में रह कर (अवतम्) प्राप्त होवो । ( अयामन् ) न जाने योग्य मार्ग के सम्बन्ध में ( मे ) मेरा (हवं) वचन ( शृणुतम् ) श्रवण करो। अपथ में पैर रखते समय शिष्य गुरु का वचन सुने और गुरु शिष्य की पुकार सुने। वाणी का तीन प्रकार से क्षरण-मुख से, चक्षु से और हाथों से। अथवा अभिधा, लक्षणा और व्यंजना रूप से। या आकांक्षा योग्यता आसत्ति से । अथवा वेदवाणी मन्त्र, ब्राह्मण और कल्प भेद से, शब्द वा अर्थ और उन दोनों के सम्बन्ध से।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वानांची वाणी ऐकतात व कुमार्ग सोडून सुमार्गाने जातात. जे मनाने व कर्माने खोटे बोलू इच्छित नाहीत ते माननीय असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, most venerable lords of knowledge and wisdom, this ancient and expansive song of celebration flowing three ways over time for the sake of growth, physical, mental and spiritual, has been created in your honour. Sung and celebrated sincerely, listen to the voice of the celebrant while on the move or not on the move and redeem and protect the devotee.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of teachers and preachers are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise teachers and preachers ! you pervade all time in teachings of the vast three-flood speech that has been uttered in leading to happiness. It is glorified by us. Protect a man who has acquired the wealth of knowledge. Whether moving or resting, hear my invocation, and encourage while going on the path of truth and restrain me otherwise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who listen to the words of absolutely truthful wisemen, attain the path of righteousness and give up the sinful path. Those who do not want to utter false words or lies even by mind and deed, they become respectable everywhere.
Foot Notes
(वेधसा ) प्राज्ञौ = Wise. ( अश्विना ) सत्योपदेशव्यापिनौ = Pervading in true teaching ( नाधमानम् ) विद्यैश्वर्यवन्तं सम्पादयन्तम् = Acquiring the wealth of knowledge. ( यामन्) यामनि, सत्ये मार्गे = In true path that should always be endowed.
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