ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 9
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वां पू॒षेवा॑श्विना॒ पुरं॑धिर॒ग्निमु॒षां न ज॑रते ह॒विष्मा॑न्। हु॒वे यद्वां॑ वरिव॒स्या गृ॑णा॒नो वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वाम् । पू॒षाऽइ॑व । अ॒श्वि॒ना॒ । पुर॑म्ऽधिः । अ॒ग्निम् । उ॒षाम् । न । ज॒र॒ते॒ । ह॒विष्मा॑न् । हु॒वे । यत् । वा॒म् । व॒रि॒व॒स्या । गृ॒णा॒नः । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवां पूषेवाश्विना पुरंधिरग्निमुषां न जरते हविष्मान्। हुवे यद्वां वरिवस्या गृणानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवाम्। पूषाऽइव। अश्विना। पुरम्ऽधिः। अग्निम्। उषाम्। न। जरते। हविष्मान्। हुवे। यत्। वाम्। वरिवस्या। गृणानः। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१८१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विनाऽग्निमुषां यत् पुरन्धिः पूषेव हविष्मान् युवां न जरते तथा वां वरिवस्या स गृणानः सन्नहं युवां हुवे। एवं कुर्वन्तो वयमिषं वृजनं जीरदानुञ्च विद्याम ॥ ९ ॥
पदार्थः
(युवाम्) (पूषेव) पुष्टिकर्त्ता सूर्य्यइव (अश्विना) सत्योपदेशकरक्षयितः (पुरन्धिः) यः पुरं जगद्धरति सः (अग्निम्) पावकम् (उषाम्) उषसं प्रभातवेलाम् (न) इव (जरते) स्तौति (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि दानानि विद्यन्ते यस्य सः (हुवे) स्वीकरोमि (यत्) यः (वाम्) युवयोः (वरिवस्या) वरिवसि परिचर्य्यायां भवानि सेवनकर्माणि (गृणानः) स्तुवन् (विद्याम) विजानीयाम् (इषम्) विज्ञानम् (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) दीर्घं जीवनम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः सर्वेषां पुष्टिकरोऽग्निं प्रभातकालं चाविः करोति तथा प्रशस्तदानशीलः पुरुषो विद्वद्गुणानाख्यापयति ॥ ९ ॥अस्मिन् सूक्तेऽश्विदृष्टान्तेनाऽध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इत्येकाशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) सत्योपदेश और रक्षा करनेवाले विद्वानो ! (अग्निम्) अग्नि और (उषाम्) प्रभात वेला को (यत्) जो (पुरन्धिः) जगत् को धारण करने और (पूषेव) पुष्टि करनेवाले सूर्य के समान (हविष्मान्) प्रशस्त दान जिसके विद्यमान वह जन (युवाम्) तुम दोनों की (न) जैसे (जरते) स्तुति करता है वैसे (वाम्) तुम दोनों की (वरिवस्या) सेवा में हुए कर्मों की (गृणानः) प्रशंसा करता हुआ वह मैं तुमको (हुवे) स्वीकार करता हूँ ऐसे करते हुए हम लोग (इषम्) विज्ञान (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) दीर्घजीवन को (विद्याम) जानें ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य सबकी पुष्टि करनेवाला अग्नि और प्रभात समय को प्रकट करता वैसे प्रशंसित दानशील पुरुष विद्वानों के गुणों को अच्छे प्रकार कहता है ॥ ९ ॥इस सूक्त में अश्वि के दृष्टान्त से अध्यापक और उपदेशकों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति पिछले सूक्त के साथ समझनी चाहिये ॥ यह एकसौ इक्यासीवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'उषा, अग्नि व अश्विनौ' का आराधन
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवाम्) = आपको (पूषा इव) = अपना पोषण करनेवाले की भाँति (पुरन्धिः) = पालक व पूरक बुद्धिवाला तथा (हविष्मान्) = त्यागपूर्वक अदन की वृत्तिवाला (जरते) = स्तुत = करता है। आपकी आराधना के द्वारा ही वस्तुतः वह 'पूषा, पुरन्धि व हविष्मान्' बनता है। यह आपकी आराधना उसी प्रकार करता है (न) = जैसे कि (अग्निम्) = अग्नि को आराधित करता है और (उषाम्) = उषाकाल को आराधित करता है। यह प्रातःकाल प्रबुद्ध होकर प्रभु के ध्यान के द्वारा सब अशुभवृत्तियों को दग्ध करने का प्रयत्न करता है, यही उषा का आराधन है। यह अग्रिहोत्र करता है, यही अग्नि का आराधन है और प्राणायाम के द्वारा यह प्राणापान का आराधन करता है। २. (यत्) = जब मैं (वाम्) = आपको (हुवे) = पुकारता हूँ, आपकी आराधना करता हूँ तो (वरिवस्या) = उपासना के द्वारा (गृणानः) = प्रभु का स्तवन करनेवाला होता हूँ। ऐसा होने पर हम (इषम्) = प्रेरणा को (वृजनम्) = पाप के वर्जन को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को विद्याम प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम उषाकाल में प्रबुद्ध होकर अग्निहोत्र करें। प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना करनेवाले बनें। उपासना द्वारा प्रभुस्तवन करें।
विषय
पक्षान्तर में राजा और परिव्राजक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) एक दूसरे के आत्मा के स्वामी स्त्री पुरुषो ! ( युवां ) तुम दोनों ( हविष्मान् ) उत्तम ज्ञानवान् पुरुष (पूषा) सब के पोषक सूर्य के समान और (पुरन्धिः) राष्ट्र को धारण करने वाले राजा के समान जानकर और (अग्निम्) अग्नि अर्थात् तेजस्वी और अग्रणी सूर्य और (उषां) कमनीय प्रभात वेला के समान (जरते) स्तुति करता है । ( यत् ) जो ( वां ) तुम दोनों को ( वरिवस्या ) सेवा आदि कर्त्तव्यों का भी पूर्ववत् ( गृणानः ) उपदेश करता हुआ ( वां हुवे ) तुम दोनों को ज्ञानोपदेश करे । इस प्रकार हम सभी प्रजाजन ( इषं वृजनं जीरदानुम् विद्याम ) अन्न बल और दीर्घायु प्राप्त करें। इति षड्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य सर्वांची पुष्टी करणारा अग्नी असून प्रभातवेळ प्रकट करतो तसे प्रशंसित दानशील पुरुष विद्वानांच्या गुणांचे चांगले वर्णन करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, powers of light, energy and generosity, just as the sun which sustains the world nourishes the earth and her children and the yajamana bearing oblations does homage to Agni and the Dawn, so does the poet bearing the gift of homage serve and celebrate you in song. And I, dedicated to you and celebrating you, pray that we may be blest with knowledge strength and energy and a long and happy life, bountiful and generous as you are.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The tips for teachers and preachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers of truth! a resplendent man is like the sun, that upholds the world and sustains it and is of liberal disposition. Like fire and dawn, on account of their attributes, he praises right persons. In the same manner, I invoke with devotion, your philanthropic admirable and beneficial works. With that, we may then obtain good knowledge, strength and long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sun being sustainer of the all, manifests the fire and dawn. In the same manner, a man of liberal disposition manifests and describes the attributes of the scholars.
Foot Notes
( पूषा ) पुष्टिकर्ता सूर्यः = The sun sustainer or nourisher of all. असौ वै पूषा योऽसौ सूर्य: तपति (कौषीतकी ब्राह्मणे 5.2 गोपथब्राह्मणे 3.1.20 ) = The sun that is upholder of the world. ( पुरन्धि:) पुरं जगद्धरति सः (हविष्मान् ) प्रशस्तानि हवींषि दानानि विद्यन्ते यस्य सः = A liberal and good donor.
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