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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 181 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र वां॑ श॒रद्वा॑न्वृष॒भो न नि॒ष्षाट् पू॒र्वीरिष॑श्चरति॒ मध्व॑ इ॒ष्णन्। एवै॑र॒न्यस्य॑ पी॒पय॑न्त॒ वाजै॒र्वेष॑न्तीरू॒र्ध्वा न॒द्यो॑ न॒ आगु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वा॒म् । श॒रत्ऽवा॑न् । वृ॒ष॒भः । न । नि॒ष्षाट् । पू॒र्वीः । इषः॑ । च॒र॒ति॒ । मध्वः॑ । इ॒ष्णन् । एवैः॑ । अ॒न्यस्य॑ । पी॒पय॑न्त । वाजैः॑ । वेष॑न्तीः । ऊ॒र्ध्वाः । न॒द्यः॑ । नः॒ । आ । अ॒गुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वां शरद्वान्वृषभो न निष्षाट् पूर्वीरिषश्चरति मध्व इष्णन्। एवैरन्यस्य पीपयन्त वाजैर्वेषन्तीरूर्ध्वा नद्यो न आगु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वाम्। शरत्ऽवान्। वृषभः। न। निष्षाट्। पूर्वीः। इषः। चरति। मध्वः। इष्णन्। एवैः। अन्यस्य। पीपयन्त। वाजैः। वेषन्तीः। ऊर्ध्वाः। नद्यः। नः। आ। अगुः ॥ १.१८१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ यथा वां शरद्वान् वृषभो न निष्षाट् पूर्वीरिषश्चरति मध्व इष्णन्नेवैरन्यस्य पूर्वीरिषः प्राप्नोति तथा वाजैस्सह वर्त्तमाना ऊर्द्ध्वा वेषन्तीर्नद्योऽनोऽस्मान् प्रपीपयन्त आगुः ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकर्षे (वाम्) युवयोः (शरद्वान्) शरदो या ऋतवस्ता विद्यन्ते यस्मिन् सः (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता (न) इव (निष्षाट्) यो नितरां सहते (पूर्वीः) पूर्वं प्राप्ताः (इषः) ज्ञातव्याः प्रजाः (चरति) प्राप्नोति (मध्वः) मधूनि (इष्णन्) इच्छन् (एवैः) प्रापकैः (अन्यस्य) भिन्नस्य (पीपयन्त) वर्द्धयन्ति (वाजैः) वेगैः (वेषन्तीः) व्याप्नुवत्यः (ऊर्द्ध्वाः) ऊर्द्ध्वं गामिन्यो ज्वालाः (नद्यः) सरितः (न) अस्मान् (आ) समन्तात् (अगुः) व्याप्नुवन्तु ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तयोरध्यापकोपदेशकयोः सकाशाद्विद्याः प्राप्याऽन्यान्ददति तेऽग्निवत्तेजस्विनः शुद्धा भूत्वा सर्वतो वर्त्तन्ते ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे अध्यापकोपदेशक जनो ! जैसे (वाम्) तुम्हारा (शरद्वान्) शरद् जो ऋतुएँ वे जिनमें विद्यमान वह (वृषभः) वर्षा करानेवाला जो सूर्य्यमण्डल उसके (न) समान (निष्षाट्) निरन्तर सहनशील जन (पूर्वीः) अगले समय में प्राप्त हुई प्रजा (इषः) और जानने योग्य प्रजा जनों को (चरति) प्राप्त होता है वा (मध्वः) मधुर पदार्थों को (इष्णन्) चाहता हुआ (एवैः) प्राप्ति करानेवाले पदार्थों से (अन्यस्य) दूसरे की पिछली वा जानने योग्य अगली प्रजाओं को प्राप्त होता है वैसे (वाजैः) वेगों के साथ वर्त्तमान (ऊर्द्ध्वाः) ऊपर को जानेवाली लपटें वा (वेषन्तीः) इधर-उधर व्याप्त होनेवाली (नद्यः) नदियाँ (नः) हम लोगों को (प्र, पीपयन्त) वृद्धि दिलाती हैं और (आगुः) प्राप्त होती हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो आप्त अध्यापक और उपदेशकों से विद्याओं को प्राप्त होके औरों को देते हैं, वे अग्नि के तुल्य तेजस्वी शुद्ध होकर सब ओर से वर्त्तमान हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    ज्ञान के प्रवाहों की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे अश्विनौ ! (वाम्) = आपमें से एक [प्राण] शरद्वान् सब शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला (वृषभ: न) = शक्तिशाली के समान (निष्षाट्) = शत्रुओं का पूर्ण पराभव करनेवाला, (पूर्वी:) = पालन व पूरण करनेवाले (इषः) = अन्नों का प्रचरित प्रकर्षेण सेवन करता है। यह प्राण (मध्वः इष्णन्) = मधुरतम, मधुसदृश, सारभूत पदार्थों की ही इच्छा करता है। प्राण शरीर पर आक्रमण करनेवाले सब रोगकृमियों का पराभव करता है। इस प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए अन्नों व मधु का ही सेवन करना चाहिए। २. (अन्यस्य) = दूसरे अपान की (एवैः) = गतियों से तथा (वाजैः) = शक्तियों से लोग अपने अङ्गों को (पीपयन्त) = आप्यायित करते हैं। इस अपान की क्रिया के ठीक होने पर (वेषन्ती:) = सब विषयों का व्यापन करनेवाली (ऊर्ध्वाः) = उत्कृष्ट लोकों की प्राप्ति की कारणभूत (नद्यः) = ये ज्ञान की वाणियाँ (नः आगुः) = हमें प्राप्त होती हैं। 'सरस्वती' ज्ञान की अधिष्ठातृ देवता है। यहाँ वेदवाणियों को नदियों के रूप में चित्रित किया है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राण हमारे रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करके शक्तिशाली बनाता है। अपान हमें निर्दोष बनाकर तीव्रबुद्धि बनाता है और ज्ञान प्राप्त कराता है।

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और परिव्राजक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    सूर्य या मेघ और पृथिवी के समान हे स्त्री और पुरुषो ! जिस प्रकार ( वृषभः निः षाट् मध्व इष्णन् पूर्वी इषः चरति ) मेघ या सूर्य वर्षणशील होकर सबको व्यापता हुआ मधु अर्थात् जलों को लेना या अन्नों को उत्पन्न करना चाहता हुआ (पूर्वीः इषः) पूर्व प्राप्त जलों को ग्रहण करता है और वह (शरद्वान्) प्रति ऋतु का स्वामी है । उसी प्रकार ( वां ) तुम दोनों में से ( शरद्वान् ) शरत् आदि उत्तम रमण करने योग्य ऋतुओं का स्वामी, ( वृषभः ) बल वीर्यवान्, निषेकादि करने में समर्थ, हृष्ट पुष्ट, (निः-षाट्) सब विघ्नों पर विजय पाने वाला, ( मध्वः इष्णन् ) मधुर अन्नादि भोग्य ऐश्वर्यों और पुत्रादि फलों की कामना करता हुआ, ( पूर्वीः इषः ) प्रथम मन से चाही, इष्टतम, दाराओं को प्राप्त करता है। वे ( वेषन्तीः ) हृदय में व्यापने वाली पत्नियां भी ( अन्यस्य ) उन दोनों में से एक की ( एवैः ) सुख प्राप्त कराने वाले कामनाओं और उपायों से ( वाजैः ) नाना भोग्य ऐश्वर्य सौभाग्यों, बलवान् पुत्रों से ( पीपयन्त ) उसको तृप्त और पुष्ट करती हैं। वे उसे (ऊर्ध्वाः) ऊपर से पड़ने वाली या उमड़ती हुई, चढ़ी ( नद्यः ) जल धाराओं या नदियों के समान ( ऊर्ध्वाः ) उत्तम कोटि की ( नद्यः ) गुणों से समृद्ध होकर उसे प्राप्त हो । ( २ ) राजा के पक्ष में—( मध्वः इष्णन् ) ऐश्वर्यों को चाहता हुआ वह ( इषः ) प्रजाओं का भोग करता है। वह बलवान् और शत्रु पराजयकारी होता है। (वेषन्तीः ) राष्ट्र भर में फैली हुई प्रजाएं ( ऊर्ध्वाः नद्यः न ) चढ़ती नदियों के समान स्वयं सम्पन्न होकर राजा को भी (पीपयन्त) पुष्ट करती हैं और ( आगुः ) उसी के शरण में आती हैं। ( ३ ) विद्वान् परिव्राजक के पक्ष में—( मध्वः इष्णन् ) अन्न की भिक्षा चाहता हुआ ( पूर्वीः इषः चरति ) पूर्ण, सम्पन्न प्रजाओं में विचरता है। ( वेषन्तीः उर्ध्वाः नद्यः न ) प्रेम युक्त या फैली प्रजाएं भी उमड़ती नदियों के समान उसे कामनानुकूल अन्नों से भर देती हैं । ( ४ ) अध्यात्म में—सौ वर्ष जीने से ‘शरद्वान् वृषभ’ आत्मा है । वह मधुर फलों की इच्छा से पूर्व विद्वानों की ( इषः ) आदेश व वाणियों पर आचरण करता है । और वे ( वेषन्तीः ) व्यापक सत्य वाली वाणियां उसको प्राप्त होतीं और अपने ज्ञानों से भर देती है ।

    टिप्पणी

    ‘इषः’ स्त्री पुरुष पक्ष में—दारावत् बहुवचनम् । जातौ वोभयम् बहुचनैकवचने ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे आप्त अध्यापक व उपदेशकाकडून विद्या प्राप्त करतात व इतरांनाही देतात ते अग्नीप्रमाणे तेजस्वी व शुद्ध होतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, one of you, mighty like the sun, lord of the seasons and the year or like the autumn cloud, challenging the winds and vapours and loving the all- time sweets of earth, travels down with the rays of light and plays with the fruits and flowers. The other, consuming and growing by the motions and energies of another moving like upward streams of fire, brings us peace and comfort.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Key to happiness is learning and Dharma.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! a man under your guidance shines like the sun which creates different seasons like autumn and winter. Such a person overcomes all foes, goes to the more experienced people. Desiring sweet fruits and other articles, he approaches with his merits to the younger people. Likewise, may the flames (of knowledge etc.) going upward with speed and other attributes, help us to grow like swollen rivers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who having acquired knowledge from absolutely truthful teachers and preachers, give it to others. They become glorious like the fire and being pure make an all-round mark.

    Foot Notes

    (इष:) ज्ञातव्याः प्रजाः = People whose nature is to be known. ( एवैः) प्रापकै: = By merits or virtues which lead to good results. (पीपयन्तः) वर्द्धयन्ति = Multiply or help to grow.

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