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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 186 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 186/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त न॑ ईं॒ त्वष्टा ग॒न्त्वच्छा॒ स्मत्सू॒रिभि॑रभिपि॒त्वे स॒जोषा॑:। आ वृ॑त्र॒हेन्द्र॑श्चर्षणि॒प्रास्तु॒विष्ट॑मो न॒रां न॑ इ॒ह ग॑म्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । ई॒म् । त्वष्टा॑ । आ । ग॒न्तु॒ । अच्छ॑ । स्मत् । सू॒रिऽभिः॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । स॒ऽजोषाः॑ । आ । वृ॒त्र॒ऽहा । इन्द्रः॑ । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः । तु॒विःऽत॑मः । न॒राम् । नः॒ । इ॒ह । ग॑म्याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न ईं त्वष्टा गन्त्वच्छा स्मत्सूरिभिरभिपित्वे सजोषा:। आ वृत्रहेन्द्रश्चर्षणिप्रास्तुविष्टमो नरां न इह गम्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। ईम्। त्वष्टा। आ। गन्तु। अच्छ। स्मत्। सूरिऽभिः। अभिऽपित्वे। सऽजोषाः। आ। वृत्रऽहा। इन्द्रः। चर्षणिऽप्राः। तुविःऽतमः। नराम्। नः। इह। गम्याः ॥ १.१८६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 186; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मेघसूर्यदृष्टान्तेनोक्तविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथेह वृत्रहा चर्षणिप्रास्तुविष्टमस्त्वष्टेन्द्र ईं वर्षयति तथा त्वं नरां न आ गम्या उत स्मदभिपित्वे सजोषा भवान्त्सूरिभिर्नोऽच्छागन्तु ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (उत) (नः) अस्मान् (ईम्) जलम् (त्वष्टा) प्रकाशमानः (आ) (गन्तु) आगच्छन्तु (अच्छ) सम्यक् (स्मत्) प्रशंसायाम् (सूरिभिः) विद्वद्भिः (अभिपित्वे) अभितः प्राप्तव्ये (सजोषाः) समानप्रीतिः (आ) (वृत्रहा) मेघहन्ता (इन्द्रः) सूर्यः (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् सुखैः पिपर्त्ति सः (तुविष्टमः) अतिशयेन बली (नराम्) नराणाम् (नः) अस्मान् (इह) (गम्याः) गच्छेः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवद्विद्यां प्रकाशयन्ति स्वात्मवत् सर्वान् मत्वा सुखयन्ति ते बलवन्तो जायन्ते ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मेघ और सूर्य के दृष्टान्त से उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जैसे (इह) यहाँ (वृत्रहा) मेघ का हननेवाला (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को सुखों से पूर्ण करनेवाला (तुविष्टमः) अतीव बली (त्वष्टा) प्रकाशमान (इन्द्रः) सूर्य (ईम्) जल को वर्षाता है वैसे तुम (नराम्) सब मनुष्यों के बीच (नः) हम लोगों को (आ, गम्याः) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ (उत) और (स्मत्) प्रशंसायुक्त (अभिपित्वे) सब ओर से पाने योग्य व्यवहार में (सजोषाः) समान प्रीति रखनेवाले आप (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों के प्रति (अच्छ, आ, गन्तु) अच्छे प्रकार आइये ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान विद्या का प्रकाश कराते हैं, और अपने आत्मा के तुल्य सबको मान सुखी करते हैं, वे बलवान् होते हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्रभु का सङ्ग

    पदार्थ

    १. (त्वष्टा) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माता व ज्ञानदीप्त प्रभु [त्वक्षतेः, त्विषतेर्वा] (ईम्) = निश्चय से (नः अच्छ) = हमारी ओर (आगन्तु) = आये अर्थात् हमें प्राप्त हो । २. (उत) = और (अभिपित्वे) = जीवनयात्रा में संसाररूप सराय में ठहरने के समय (स्मत्सूरिभिः) = [स्मत् प्राशस्त्ये] प्रशस्त विद्वानों के साथ (सजोषाः) = समान रूप से प्रीतिवाला हो। इस जीवन-यात्रा में हमें विद्वानों का सम्पर्क प्राप्त हो—उनके साथ-सङ्ग में हमें रुचि हो तथा हम प्रभु का स्तवन करनेवाले हों । २. (नः) = हमें इह इस जीवन में वह प्रभु (आगम्याः) = प्राप्त हो जो (वृत्रहा) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाला है, (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवाला है, (चर्षणिप्राः) = श्रमशील पुरुषों का पूरक है और (नरां तुविष्टमः) = हमें आगे ले-चलनेवालों में सर्वमहान् है [नृ नये] । माता-पिता, आचार्य, अतिथि व परमात्मा -ये पाँच ही हमें आगे ले चलनेवाले हैं। प्रभु इनमें सर्वमहान् हैं। ये प्रभु हमें प्राप्त हों और हमें उन्नतिपथ पर ले चलें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस जीवन-यात्रा में हमें विद्वानों व प्रभु का सङ्ग प्राप्त हो । यह सङ्ग हमारी सतत उन्नति का कारण बने ।

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    विषय

    उत्तम विद्वान् अधिकारियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (त्वष्टा सूरिभिः) सूर्य अपनी किरणों सहित (अभिपित्वे स्मत्) व्यापने के कार्य में उत्तम है (वृत्रहा इन्द्रः) और जिस प्रकार मेघों को आघात करने वाला सूर्य या विद्युत् (चर्षणिप्राः) क्षेत्र कर्षण करने वाले किसानों के मनोरथों को पूरा कर देता है इसी प्रकार (त्वष्टा) शत्रुओं का नाश करने वाला तेजस्वी पुरुष (सजोषाः) प्रजा के प्रति अति स्नेहवान् होकर (अभिपित्वे) राष्ट्र पर सब प्रकार से व्यापने और (अभि-पित्वे) सब प्रकार से उसकी रक्षा और पालन करने के लिये (सूरिभिः) विद्वान् पुरुषों सहित (नः) हमारे (ईं) इस राष्ट्र को (स्मत्) अच्छी प्रकार, प्रशंसनीय रूप से (अच्छ आ गन्तु) प्राप्त हो । वह ही (चर्षणिप्राः) प्रजाजनों और विद्वानों को सब प्रकार के ऐश्वर्यों से पूर्ण करता हुआ, (वृत्रहा) बढ़ते और घेरते हुए विघ्नकारी शत्रु और दुष्ट पुरुषों का नाशक होकर (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (नरां) सब नायकों में से (तुविस्तमः) बहु विध शक्तियों और ऐश्वर्यों से सबसे महान् बलवान् होकर ( नः इह आगम्याः ) हमारे इस राष्ट्र में आवे, हमें प्राप्त हो । ( त्वष्टा ) सब विश्व का कर्ता परमेश्वर विद्वानों के उपदेशों द्वारा हमें प्राप्त हो । वह सब विघ्नों का नाशक, सर्वकामनापूरक है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत त्रिष्टुप्। ११ भुरिक त्रिष्टुप्। ३, ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ६ पङ्क्तिः। १० स्वराट् पङ्क्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाश करवितात व आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्वांना मानतात व सुखी करतात ते बलवान असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Twashta, divine creator of forms and maker of instruments, tools and implements, and chariots, dams and controls come well and enthusiastically with other sages and scholars, loving and kind, and bring us waters of various forms. Let Indra, breaker of the clouds, leader of men and fastest power of action come and bless this noble and joint yajnic project of all together among the people of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The illustration of the cloud and the sun is given.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! come to us as leader of the men. The sun is the thrasher of clouds, filler of men with happiness, most potent and resplendent and it rains down the water. In our noble dealing from everywhere, come to us along with other scholars, who equally love and serve all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become mighty, who illuminate their knowledge like the sun and thus make all persons happy like themselves.

    Foot Notes

    ईम् | जलम् | ईम् इत्युदकनाम (N.G. 1-12 ) ( इन्द्रः ) सूर्यः । एष एवेन्द्र : य एष (सूर्य:) तपति । ( Shtph 1.6.4.18) = The sun ( वृत्नहा) मेघहन्ता । वृत्र इति मेघनाम N.G. 1.10) = The destroyer of the clouds.

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