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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 190 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तमृ॒त्विया॒ उप॒ वाच॑: सचन्ते॒ सर्गो॒ न यो दे॑वय॒तामस॑र्जि। बृह॒स्पति॒: स ह्यञ्जो॒ वरां॑सि॒ विभ्वाभ॑व॒त्समृ॒ते मा॑त॒रिश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऋ॒त्वियाः॑ । उप॑ । वाचः॑ । स॒च॒न्ते॒ । सर्गः॑ । न । यः । दे॒व॒ऽय॒ताम् । अस॑र्जि । बृह॒स्पतिः॑ । सः । हि । अञ्जः॑ । वरां॑सि । विऽभ्वा॑ । अभ॑वत् । सम् । ऋ॒ते । मा॒त॒रिश्वा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमृत्विया उप वाच: सचन्ते सर्गो न यो देवयतामसर्जि। बृहस्पति: स ह्यञ्जो वरांसि विभ्वाभवत्समृते मातरिश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ऋत्वियाः। उप। वाचः। सचन्ते। सर्गः। न। यः। देवऽयताम्। असर्जि। बृहस्पतिः। सः। हि। अञ्जः। वरांसि। विऽभ्वा। अभवत्। सम्। ऋते। मातरिश्वा ॥ १.१९०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यो मातरिश्वेव ऋतेऽञ्जो बृहस्पतिर्विभ्वा सृष्टः समभवत् यो वरांसि कृतवान् स्यात् स हि देवयतामसर्जि तमृत्वियां वाचः सर्गो नोप सचन्ते ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (तम्) (ऋत्वियाः) या ऋतुमर्हन्ति ताः (उप) (वाचः) विद्याशिक्षायुक्ता वाणीः (सचन्ते) समवयन्ति (सर्गः) सृष्टिः (न) इव (यः) (देवयताम्) आत्मनो देवान् विदुषः कुर्वताम् (असर्जि) सृज्यते (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाचः पालयिता (सः) (हि) (अञ्जः) सर्वैः कमनीयः (वरांसि) वराणि (विभ्वा) विभुना व्यापकेन (अभवत्) भवेत् (सम्) (ऋते) सत्ये (मातरिश्वा) वायुरिव ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथोदकं निम्नमार्गेण गत्वा निम्नस्थले स्थिरं भवति तथा यं विद्याशिक्षे आप्नुतस्सोऽभिमानं विहाय नम्रो भूत्वा विद्याशयोऽस्तूचितवक्ता प्रसिद्धश्च स्यात्। यथा सर्वत्र व्यापकेनेश्वरेण यथायोग्यं विविधं जगन्निर्मितं तथा विद्वत्सेवको विश्वकर्मा स्यात् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (मातरिश्वा) पवन के समान (ऋते) सत्य व्यवहार में (अञ्जः) सभों को कामना करने योग्य (बृहस्पतिः) अनन्त वेदवाणी का पालनेवाला (विभ्वा) व्यापक परमात्मा ने बनाया हुआ (समभवत्) अच्छे प्रकार हो और जो (वरांसि) उत्तम कर्मों को करनेवाला हो (स, हि) वही (देवयताम्) अपने को विद्वान् करते हुओं के बीच (असर्जि) सिद्ध किया जाता है (तम्) उसका (ऋत्वियाः) जो ऋतु समय के योग्य होती वे (वाचः) विद्या सुशिक्षायुक्त वाणी (सर्गः) संसार के (न) समान ही (उप, सचन्ते) सम्बन्ध करती हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे जल नीचे मार्ग से जाकर गढ़ेले में ठहरता वैसे जिसको विद्या शिक्षा प्राप्त होती हैं वह अभिमान छोड़के नम्र हो विद्याशय और उचित कहनेवाला प्रसिद्ध हो, जैसे सर्वत्र व्याप्त ईश्वर ने यथायोग्य विविध प्रकार का जगत् बनाया, वैसे विद्वानों की सेवा करनेवाला समस्त काम करनेवाला हो ॥ २ ॥

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    विषय

    ऋत के पालन से प्रभु-दर्शन

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस बृहस्पति को ही (ऋत्वियाः वाचः) = समय-समय पर होनेवाली वाणियाँ (उपसचन्ते) = समीपता से प्राप्त होती हैं। देववृत्ति के पुरुष सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं। आसुर भाववाले भी कष्ट आने पर प्रभु को ही याद करते हैं। ये प्रभु वे हैं जो कि (देवयताम्) = दिव्य भावनाओं को अपनानेवाले व्यक्तियों के लिए (सर्गः न) = [सर्ग = a horse] अश्व के समान (असर्जि) = बन जाते हैं। ये देवयन् पुरुष इस प्रभुरूप अश्व को प्राप्त करके अपनी जीवनयात्रा को सुगमता से पूर्ण कर पाते हैं । २. इन देवयन् पुरुषों के लिए प्रभु (बृहस्पतिः) = ज्ञान की वाणियों के पति हैं। इनसे वह देवयन् ज्ञानवाणियों को प्राप्त करता है । (सः) = हि वे प्रभु ही (अञ्जः) = ज्ञान के सब प्रकाशों को प्रकट करनेवाले हैं, (वरांसि विभ्वा) = सब वरणीय पदार्थों को प्राप्त करानेवाले वे प्रभु (मातरिश्वा) = सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में गति व वृद्धिवाले हैं। प्रभु सर्वत्र विद्यमान हैं, सर्वत्र प्रभु की क्रिया दृष्टिगोचर होती है। ३. ये प्रभु (ऋते) = ऋत के होनेपर (समभवत्) = प्रकट होते हैं । प्रभु सर्वत्र हैं, हमारे अन्दर ही विद्यमान हैं, परन्तु उस प्रभु का दर्शन तभी होगा जब कि हम ऋत को अपनाएँगे। [क] ऋत अर्थात् सत्य को अपनानेवाला प्रभु को देखता है, [ख] 'ऋत' अर्थात् यज्ञात्मक-कर्मों में चलनेवाला प्रभु द्रष्टा बनता है, [ग] 'ऋत' अर्थात् ठीक, प्रत्येक कार्य के ठीक समय व ठीक स्थान पर करनेवाला प्रभु दर्शन का पात्र बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्वत्र व्याप्त प्रभु का दर्शन देववृत्ति के पुरुष ऋत के पालन द्वारा कर पाते हैं।

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    विषय

    विद्वान् के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन । बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( सर्गः देवयताम् ) जल की कामना करने वाले कृषकों के लिये जल बड़ा हर्षकारी होता है और ( ऋत्विया वाचः तम् उप सचन्ते ) या पावस ऋतु की वाणियां उस मेघ को लक्ष्य करके उपस्थित होती हैं और जिस प्रकार ( मातरिश्वा ऋते विभ्वा वरांसि अञ्जः सम् अभवत् ) वायु या आकाशस्थ मेघ जल या अन्न के निमित्त बड़ा बलशाली होकर, उत्तम जलों को देकर अन्न उत्पन्न करता, या उत्तम जलों को ही प्रकट करता है । उसी प्रकार (यः) जो पुरुष (सर्गः न) जलों के समान या उत्पन्न सृष्टि या सन्तति के समान ( देवयताम् ) विद्या आदि की कामना करने वाले या अपने को ‘देव’ विद्वान् बनाना चाहने वाले, या ‘देव’ परमेश्वर की उपासना करने वालों को हर्ष जनक ( असर्जि ) होता है ( तम् ) उसको (ऋत्वियाः) ज्ञानवान् सदस्य पुरुषों की सभी (वाचः) वाणियां (उप सचन्ते) प्राप्त होती हैं। वह ही (बृहस्पतिः) बड़े राष्ट्र और वेद के पालक आचार्य ब्रह्मवेत्ता है। ( सः हि ) वही निश्चय से ( मातरिश्वा ) वायु में श्वास के समान निरन्तर चलने वाले वायु के समान (मातरिश्वा) ज्ञान करने वाले प्रमाता आत्मा वा परमेश्वर के अधीन गति करने वाला विद्वान् (ऋते) उस सत्य स्वरूप परमेश्वर में (विभ्वा) उसी विभु परमेश्वर के साथ (सम् अभवत्) जा मिलता है । (२) इसी प्रकार राजा को (ऋत्वियाः वाचः) सदस्यों की सभी वाणियां ( तम् ) उसी सभापति को लक्ष्य करके प्रस्तुत होती हैं, जो विधाता के समान विद्वानों के बीच सभापति बना दिया जाता है। वह राजा या सभापति बड़े भारी ज्ञान से (ऋते) राष्ट्रैश्वर्य और सत्य न्याय के बलपर (सम् अभवत्) अच्छी प्रकार अधिकार करे वह ही ( वरांसि अञ्जः ) उत्तम बातों को प्रकट करने वाला कान्तिमान् होकर वरने योग्य उत्तम वचनों, ज्ञानों और कर्मों को प्रकट करे । (३) सूर्य के समान परमेश्वर भी सृष्टि कर्त्ता होने से ‘सर्ग’ है । सब ऋतुओं से युक्त सूर्य के सब प्राणों के नाम भी उस पर संगति खाते हैं । वह सब श्रेष्ठ पदार्थों को प्रकट करता है वह बड़े सामर्थ्य से ज्ञान में एक अद्वितीय है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे जल उताराकडे प्रवाहित होते, खाचखळग्यात स्थिरावते, तसे ज्याला विद्या प्राप्त होते त्याने अभिमानाचा त्याग करावा व नम्र बनावे. विद्येचे आगार बनून औचित्यपूर्ण वागावे. जसे सर्वत्र व्यापक ईश्वराने विविध प्रकारचे जग निर्माण केलेले आहे, तशी विद्वानांची सेवा करून संपूर्णपणे कार्यशील बनावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Words of meaning and power come to him at his command and serve him according to the season of time, place and the subject of discourse, Brhaspati as he is, high-priest of the Divine Word. Like an extension of the Lord’s creation, he makes divinities out of dedicated humanity and brings them gifts of their choice. Thus loved, graceful and powerful like the breeze of life, he rises in the affairs of life and Dharma by the grace of the Infinite Lord of the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A scholar should be humble.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Brihaspati, the great master and preserver of the Shastric wisdom, is a benefactor of men like the air. He is loved by all on account of his truthful conduct. He is created by Omnipresent God who has done many a noble deeds. The Brihaspati has been meant and made for the welfare of those who cherish to make themselves divine. All appropriate words full of wisdom and good education glorify him like the creation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As water flows downwards and then becomes steady at surface, likewise a man, endowed with wisdom and good education gives up pride and turns to be polite. He becomes full of knowledge and a distinguished good speaker. The Omnipresent God has properly made this varying universe. Similarly a follower of the enlightened persons becomes the maker of various objects in the world.

    Foot Notes

    (अञ्ज:) सर्वैः कमनीय: = Desired by all. ( मातरिश्वा) वायुः इव = Like the wind. (सर्गः ) सृष्टि: = Creation.

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