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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 190 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॑स्तुतिं॒ नम॑स॒ उद्य॑तिं च॒ श्लोकं॑ यंसत्सवि॒तेव॒ प्र बा॒हू। अ॒स्य क्रत्वा॑ह॒न्यो॒३॒॑ यो अस्ति॑ मृ॒गो न भी॒मो अ॑र॒क्षस॒स्तुवि॑ष्मान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ऽस्तुतिम् । नम॑सः । उत्ऽय॑तिम् । च॒ । श्लोक॑म् । यं॒स॒त् । स॒वि॒ताऽइ॑व । प्र । बा॒हू इति॑ । अ॒स्य । क्रत्वा॑ । अ॒ह॒न्यः॑ । यः । अस्ति॑ । मृ॒गः । न । भी॒मः । अ॒र॒क्षसः॒ । तुवि॑ष्मान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपस्तुतिं नमस उद्यतिं च श्लोकं यंसत्सवितेव प्र बाहू। अस्य क्रत्वाहन्यो३ यो अस्ति मृगो न भीमो अरक्षसस्तुविष्मान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽस्तुतिम्। नमसः। उत्ऽयतिम्। च। श्लोकम्। यंसत्। सविताऽइव। प्र। बाहू इति। अस्य। क्रत्वा। अहन्यः। यः। अस्ति। मृगः। न। भीमः। अरक्षसः। तुविष्मान् ॥ १.१९०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यो नमस उपस्तुतिमुद्यतिं श्लोकं सवितेव बाहू च प्रयंसत्। अस्यारक्षसः क्रत्वा सह योऽहन्योऽस्ति स मृगो न भीमस्तुविष्मान् भवति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (उपस्तुतिम्) उपगतां प्रशंसाम् (नमसः) नम्रस्य (उद्यतिम्) उद्यमम् (च) (श्लोकम्) सत्यां वाणीम् (यंसत्) प्रेरयेत् (सवितेव) यथा भूगोलान् सूर्यः (प्र) (बाहू) भुजौ (अस्य) (क्रत्वा) प्रज्ञया (अहन्यः) अहनि भवः (यः) (अस्ति) (मृगः) सिंहः (न) इव (भीमः) भयङ्करः (अरक्षसः) कुटिलस्योत्तमस्य (तुविष्मान्) तुविषो बहवो बलवन्तो वीरा विद्यन्ते यस्य सः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यस्य सूर्यप्रकाशवद्विद्याकीर्त्युद्यमप्रज्ञाबलानि स्युः स सत्यवाक् सर्वैः सेवनीयः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (नमसः) नम्रजन की (उपस्तुतिम्) प्राप्त हुई प्रशंसा (उद्यतिम्) उद्यम और (श्लोकम्) सत्य वाणी को तथा (सवितेव) सूर्य से जल जैसे भूगोलों को वैसे (बाहू, च) अपनी भुजाओं को भी (प्रयंसत्) प्रेरणा देवे, (अस्य) इस (अरक्षसः) श्रेष्ठ पुरुष की (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि के साथ जो (अहन्यः) दिन में प्रसिद्ध (अस्ति) है वह (मृगः) सिंह के (न) समान वीर (भीमः) भयङ्कर (तुविष्मान्) बहुत जिसके बलवान् वीर पुरुष विद्यमान हों ऐसा होता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिसके सूर्यप्रकाश के तुल्य विद्या, कीर्त्ति, उद्यम, प्रज्ञा और बल हों, वह सत्य वाणीवाला सबको सत्कार करने योग्य है ॥ ३ ॥

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    विषय

    स्तुति, नमस्कार, श्लोक

    पदार्थ

    १. (उपस्तुतिम्) = उपासना में बैठकर की जाती हुई स्तुति को [उपेत्य क्रियमाणां स्तुतिम्], (नमसः उद्यतिं) = नमस् की उद्यति को [नमस्कार में हाथों के उठाने को] (च) = और (श्लोकम्) = यशोगान को [श्लोक: यश:] (प्र यंसत्) = उपासक प्रभु के लिए देता है । इस उपासक के जीवन में प्रभु का स्तवन, प्रभु का नमस्कार व प्रभु का ही यशोगान चलता है। २. (सविता इव बाहू) = सूर्य के समान इस उपासक की भुजाएँ होती हैं। सूर्य जिस प्रकार अपने किरणरूप हाथों से सर्वत्र प्रकाश व शक्ति का संचार कर रहा है, यह उपासक भी प्रकाश व शक्ति के विस्तार के लिए सतत प्रयत्नशील होता है। ३. (यः) = जो उपासक (अस्य) = अपने उपास्य प्रभु की (क्रत्वा) = [क्रतु = power, ability] शक्ति से - प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर (अहन्यः) = न मारने योग्य (अस्ति) = है । यह उपासक (मृग:) = [मृग अन्वेषणे] आत्मान्वेषण करनेवाला होता है, (न भीमः) = भयंकर नहीं होता, करुणा की वृत्ति के कारण यह औरों को हानि नहीं पहुँचाता। (अरक्षसः) = [न रक्षो यस्मिन्] राक्षसी वृत्ति से रहित होता है और (तुविष्मान्) = बल- सम्पन्न होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासक के जीवन में प्रभु का स्तवन, उसी को नमस्कार और उसी का यशोगान चलता है। यह प्रकाश और शक्ति का विस्तार करता है। यह आत्मान्वेषण करता हुआ दयालु,राक्षसी वृत्ति से रहित और बल- सम्पन्न होता है ।

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    विषय

    विद्वान् के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन । बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( मृगः न ) सिंह के समान (भीमः) भयंकर ( तुविष्मान् ) बहुत से बलों और बलवान् पुरुषों का स्वामी और (यः) जो ( अहन्यः ) कभी किसी से मारा नहीं जा सके ( अस्य ) उस (अरक्षसः) बाधक शत्रुओं से रहित पुरुष के (क्रत्वा) उत्तम कर्म और ज्ञान बल से मनुष्य ( सविता इव ) सूर्य के समान तेजस्वी और पराक्रमी होकर ( बाहू ) अपनी दोनों बाहुओं द्वारा ही (उपस्तुति) प्रशंसा और (नमसः) शस्त्र बल के (उद्यतिं) उत्थान और (श्लोकञ्च) वेदादि योग्य वाणी अर्थात् ब्रह्मज्ञानी लोगों को भी (प्रयंसत्) अच्छी प्रकार अपने वश करता है । ( २ ) परमेश्वर अमर होने से ‘अहन्य’ है । खोजने योग्य और शुद्ध होने से ‘मृग’, दुष्टों के प्रति भयकारी होने से ‘भीम’ है । विघ्ननाशक होने से ‘अरक्षस’ है । उसके ज्ञान बल से मनुष्य भी स्तुति पावे, अन्नादि बल का अभ्युदय और वेद ज्ञान प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्याची सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विद्या, कीर्ती, उद्योग, प्रज्ञा व बल असेल त्या सत्यवचनीचा सर्वांनी सत्कार करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let this Brhaspati, man of piety, knowledge, and wisdom, acknowledge and reciprocate the respectful host’s salutation, obeisance and words of adoration with hands upraised in benediction like the rays of the inspiring sun. Loving and non-violent, surrounded by many admirers by virtue of his holy actions, he walks like a ruling lion on his daily rounds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A truthful person is always to be honored.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    With the help and knowledge of a good person who is free from crookedness and recites His Glory, works hard and speaks truth, he protects a humble person like the sun rays. Likewise, an industrious man doing works during the day time, becomes strong like a fearful lion.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, that man should be served by all who is well educated, possesses good reputation and is industrious. With his intelligence and strength like the light of the sun, he shines.

    Foot Notes

    (नमसः ) नम्रस्य = Of a humble man ( अरक्षसः) अकुटिलस्योत्तमस्य वा = Of a good man who is free from crookedness. (उदयतिम्) उद्यमम् = Industriousness or labor. (श्लोकम् ) सत्यां वाणीम् = True speech.

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