ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा म॒हस्तु॑विजा॒तस्तुवि॑ष्मा॒न्बृह॒स्पति॑र्वृष॒भो धा॑यि दे॒वः। स न॑: स्तु॒तो वी॒रव॑द्धातु॒ गोम॑द्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । म॒हः । तु॒वि॒ऽजा॒तः । तुवि॑ष्मान् । बृह॒स्पतिः॑ । वृ॒ष॒भः । धा॒यि॒ । दे॒वः । सः । नः॒ । स्तु॒तः । वी॒रऽव॑त् । धा॒तु॒ । गोऽम॑त् । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा महस्तुविजातस्तुविष्मान्बृहस्पतिर्वृषभो धायि देवः। स न: स्तुतो वीरवद्धातु गोमद्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठएव। महः। तुविऽजातः। तुविष्मान्। बृहस्पतिः। वृषभः। धायि। देवः। सः। नः। स्तुतः। वीरऽवत्। धातु। गोऽमत्। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१९०.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
विद्वद्भिर्यो महस्तुविजातस्तुविष्मान् वृषभो देवः स्तुतो बृहस्पतिर्धायि स एव नो वीरवद्गोमद्विज्ञानं धातु यतो वयमिषं वृजनम् जीरदानुं च विद्याम ॥ ८ ॥
पदार्थः
(एव) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (महः) महान् (तुविजातः) तुवेर्विद्यावृद्धात्प्रसिद्धविद्यः (तुविष्मान्) शरीरात्मबलयुक्तः (बृहस्पतिः) बृहतां वेदानामध्यापनोपदेशाभ्यां पालयिता (वृषभः) विद्वच्छिरोमणिः (धायि) ध्रियते (देवः) कमनीयतमः (सः) (नः) अस्मभ्यम् (स्तुतः) प्रशंसितः (वीरवत्) बहवो वीरा विद्यन्ते यस्मिन् विज्ञाने तत् (धातु) दधातु (गोमत्) प्रशस्ता गौर्वाग्यस्मिँस्तत् (विद्याम) (इषम्) विज्ञानम् (वृजनम्) (जीरदानुम्) ॥ ८ ॥
भावार्थः
विद्वद्भिस्सकलशास्त्रविचारसारेण विद्यार्थिनः शास्त्रसम्पन्नाः कार्य्या यतस्ते शरीरात्मबलं विज्ञानं च प्राप्नुयुः ॥ ८ ॥अत्र विदुषां गुणकर्मस्वभाववर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥इति नवत्युत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
विद्वानों से जो (महः) बड़ा (तुविजातः) विद्यावृद्ध जन से प्रसिद्ध विद्यावाला (तुविष्मान्) शरीर और आत्मा के बल से युक्त (वृषभः) विद्वानों में शिरोमणि (देवः) अति मनोहर (स्तुतः) प्रशंसायुक्त (बृहस्पतिः) वेदों का अध्यापन पढ़ाने और उपदेश करने से पालनेवाला विद्वान् जन (धायि) धारण किया जाता है (सः, एव) वही (नः) हम लोगों के लिये (वीरवत्) बहुत जिसमें वीर विद्यमान वा (गोमत्) प्रशंसित वाणी विद्यमान उस विज्ञान को (धातु) धारण करे जिससे हम लोग (इषम्) विज्ञान (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
विद्वानों को चाहिये कि सकल शास्त्रों के विचार के सार से विद्यार्थी जनों को शास्त्रसम्पन्न करें जिससे वे शारीरिक और आत्मिक बल और विज्ञान को प्राप्त होवें ॥ ८ ॥इस सूक्त में विद्वानों के गुण, कर्म और स्वभावों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥यह एकसौ नब्बेवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
१. (एव) = इस प्रकार (महः) = वह महान् प्रभु (तुविजातः) = महान् विकासवाले हैं, (तुविष्मान्) = शक्तिशाली हैं, (बृहस्पतिः) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान के पति हैं, (वृषभ:) = शक्तिशाली हैं व सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। वे (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (धायि) = हमारे द्वारा हृदय में धारण किये जाते हैं । २. (स्तुतः सः) = स्तुति किये गये वे प्रभु (नः) = हमारे लिए वीरवत् वीरता से युक्त तथा (गोमत्) = ज्ञान की वाणियों से युक्त फल को धातु धारण करें। प्रभु कृपा से हम वीर व ज्ञानी बनें। (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पाप के वर्जन व शक्ति को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को (विद्याम) = प्राप्त करें।
पदार्थ
भावार्थ- प्रभु- शक्ति व ज्ञान के पुञ्ज हैं। वे हमें वीरता व ज्ञान प्राप्त कराएँ ।
भावार्थ
विशेष-सूक्त का मूलभाव यही है कि हम प्रभु - प्रेरणा को सुनते हुए निरन्तर आगे बढ़ें। ज्ञान व शक्ति का सम्पादन करते हुए आदर्श बनने का प्रयत्न करें। अब इस मण्डल की समाप्ति पर यह संकेत करते हैं कि जहाँ हम अध्यात्म-संग्राम में विजय प्राप्त करके 'काम-क्रोध-लोभ' से ऊपर उठकर शरीर, मन व बुद्धि को उत्तम बनाएँ, जहाँ जीवन संघर्ष में सुपथ से धन कमाते हुए जीवन को धन्य बनाने के लिए यत्नशील हों, वहाँ कुछ प्रमादवश सर्पादि से दष्ट होकर मृत्यु का शिकार न हो जाएँ, अतः सर्पादि की चिकित्सा को कहते हैं -
विषय
बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।
भावार्थ
वह (महः) महान् (तुविजातः) अपने से बड़े विद्यावृद्ध से उत्पन्न, (तुविष्मान्) शरीर आत्मा से बलवान्, (बृहस्पतिः) वेदज्ञ विद्वान् (देवः) विद्यादाता होकर (वृषभः) वर्षणशील मेघ के समान एवं सर्व श्रेष्ठ रूप से (धायि) धारण किया जाता है । (सः) वह (स्तुतः) प्रशंसायोग्य पुरुष (नः) हमें (वीरवत्) उत्तम वीरों, पुत्रों से युक्त और (गोमत्) उत्तम भूमि, वाणी और पशुओं से युक्त ज्ञान और ऐश्वर्य (धात्) स्वयं धारण करे और हमें प्रदान करे। हम (इषं वृजनं जीरदानुं विद्याम) अन्न या मनोकामना, बल, और जीवन प्राप्त करें। ( २ ) परमेश्वर के पक्ष में—(तुविजातः) बहुत से ज्ञानों से प्रसिद्ध या बलशाली, सुखों का वर्षक, दाता, प्रकाशक, धारण किया जाता है । इति त्रयोदशो वर्गः ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी संपूर्ण शास्त्राचे मर्म विद्यार्थ्यांना पटवून शास्त्रसंपन्न करावे. ज्यामुळे ते शारीरिक व आत्मिक बल व विज्ञान प्राप्त करतील. ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus is Brhaspati, the great scholar, highly revered among the learned, commanding courage and strength of body and mind, generous and brilliant master of learning and pious sage honoured and acclaimed. May he, for us, be the teacher, maker of the brave and giver of the knowledge of science and Divinity so that we may be blest with food and energy, knowledge and power and the breath and joy of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Lessons to the pupils be given in nutshell.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Brihaspati is the protector of all learnings and preahchings of the Vedas. He is the best among the scholars, is mighty and beneficent. He is also full of physical and spiritual forces. He is the most desirable and has been glorified by us. May he make us possessed of the knowledge which builds heroes and makes the speech noble. Thus we may obtain wisdom, strength and long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
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Foot Notes
(तुविष्मान्) शरीरात्मबलयुक्तः । तुवीति बलनाम (NG. 3-1) बहुशारीरिकात्मिकबलसम्पन्नइत्यर्थः = Endowed with physical and spiritual power. (देव:) कमनीयतमः । = The most desirable. (इषम ) विज्ञानम् ।
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