ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सु॒प्रैतु॑: सू॒यव॑सो॒ न पन्था॑ दुर्नि॒यन्तु॒: परि॑प्रीतो॒ न मि॒त्रः। अ॒न॒र्वाणो॑ अ॒भि ये चक्ष॑ते॒ नोऽपी॑वृता अपोर्णु॒वन्तो॑ अस्थुः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प्ऽरैतुः॑ । सु॒ऽयव॑सः । न । पन्था॑ । दुः॒ऽनि॒यन्तुः॑ । परि॑ऽप्रीतः । न । मि॒त्रः । अ॒न॒र्वाणः॑ । अ॒भि । ये । चक्ष॑ते । नः॒ । अपि॑ऽवृताः । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒वन्तः॑ । अ॒स्थुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुप्रैतु: सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तु: परिप्रीतो न मित्रः। अनर्वाणो अभि ये चक्षते नोऽपीवृता अपोर्णुवन्तो अस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठसुप्ऽरैतुः। सुऽयवसः। न। पन्था। दुःऽनियन्तुः। परिऽप्रीतः। न। मित्रः। अनर्वाणः। अभि। ये। चक्षते। नः। अपिऽवृताः। अपऽऊर्णुवन्तः। अस्थुः ॥ १.१९०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
येऽनर्वाणोऽपीवृता नोऽस्मानपोर्णुवन्तस्सन्तः सुवयसः सुप्रैतुः पन्था न दुर्नियन्तुः परिप्रीतो मित्रो नाभिचक्षते तेऽस्माकमुपदेशका अस्थुः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(सुप्रैतुः) सुष्ठु विद्योपेतस्य (सुयवसः) शोभनानि यवांसि अन्नानि यस्य तस्य। अत्राऽन्येषामपीत्याद्यचो दीर्घः। (न) इव (पन्थाः) मार्गः (दुर्नियन्तुः) यो दुर्दुःखेन नियन्ता तस्य (परिप्रीतः) सर्वतः प्रसन्नः (न) इव (मित्रः) सखा (अनर्वाणः) अविद्यमानमर्वधर्मादन्यत्र गमनं येषान्ते (अभि) आभिमुख्ये (ये) (चक्षते) सत्यमुपदिशन्ति (नः) अस्मान् (अपीवृताः) ये निश्चये वर्त्तन्ते (अपोर्णुवन्तः) अविद्यादिदोषैरनावरन्तः (अस्थुः) तिष्ठेयुः ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसोऽलं साधनोपसाधनयुक्ताः सुपथेनाविद्यायुक्तान् विद्याधर्मे प्रापयन्ति, अजितेन्द्रियस्य जितेन्द्रियत्वप्रदः सखिवच्छिष्यान् प्रशासति तेऽत्राध्यापका उपदेशकाश्च भवन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(ये) जो (अनर्वाणः) धर्म से अन्यत्र अधर्म में अपनी चाल-चलन नहीं रखते (अपीवृताः) और समस्त पदार्थों के निश्चय में वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (अपोर्णुवन्तः) अविद्यादि दोषों से न ढाँपते हुए जन (सुयवसः) जिसके सुन्दर अन्न विद्यमान उस (सुप्रैतुः) उत्तम विद्यायुक्त विद्वान् का (पन्थाः) मार्ग (न) जैसे वैसे तथा (दुर्नियन्तुः) जो दुःख से नियम करनेवाला उसके (परिप्रीतः) सब ओर से प्रसन्न (मित्रः) मित्र के (न) समान (अभि, चक्षते) अच्छे प्रकार उपदेश करते हैं वे हम लोगों के उपदेशक (अस्थुः) ठहराये जावें ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन पूर्ण साधन और उपसाधनों से युक्त उत्तम मार्ग से अविद्या युक्तों को विद्या और धर्म के बीच प्राप्त करते और जिसने इन्द्रिय नहीं जीते उसको जितेन्द्रियता देनेवाले मित्र के समान शिष्यों को उत्तम शिक्षा देते हैं, वे इस जगत् में अध्यापक और उपदेशक होने चाहियें ॥ ६ ॥
विषय
सुप्रैता, दुर्नियन्ता
पदार्थ
१. वे प्रभु (सुप्रैतुः) = उत्तम मार्ग से चलनेवाले के लिए (सूयवस:) = उत्तम अन्नवाले (पन्थाः न) = मार्ग के समान होते हैं, अर्थात् शुभ मार्ग से जीवन बितानेवाले के लिए प्रभु कभी अन्नों की कमी नहीं होने देते। २. (दुर्नियन्तुः) = बुराइयों को रोकनेवाले के प्रभु (परिप्रीतः मित्रः न) = सब प्रकार से प्रसन्न मित्र के समान होते हैं। जो भी अपने से बुराइयों को दूर करता है, वह प्रभु को अपने प्रिय मित्र के रूप में प्राप्त करता है। ३. (ये) = जो (अनर्वाण:) = [अर्व्- to kill] किसी की भी हिंसा न करनेवाले हैं, वे (नः) = हमें (अभिचक्षते) = [बोधयन्ति – सा०] अभ्युदय और निः श्रेयस— दोनों के विषय में ज्ञान देते हैं। इस प्रकार 'अपरा व परा' दोनों विद्याओं को प्राप्त कराते हुए ये हमारे ऐहलौकिक व पारलौकिक दोनों कल्याणों को सिद्ध करते हैं । ४. ये व्यक्ति (अपीवृताः) = उस प्रभु से आच्छादित हुए हुए (अपोर्णुवन्तः) = अपगत आचरणवाले, अज्ञानअन्धकार से रहित हुए हुए ज्ञान के प्रकाशों में विचरनेवाले होकर (अस्थुः) = स्थित होते हैं। प्रभु में स्थित हुए-हुए, ज्ञान के प्रकाश से दीप्त ये पुरुष औरों के लिए इस ज्ञान के प्रकाश को देनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम उत्तम मार्ग से चलें, बुराई का नियमन करें, ज्ञानियों के सम्पर्क में आकर ज्ञान प्राप्त करें ।
विषय
विद्वान् के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन । बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हे परमेश्वर ! (पन्थाः न) मार्ग जैसे ( सुप्रैतुः सूयवसः ) उत्तम साधन रथ आदि से जाने वाले और उत्तम अन्नादि साथ लेकर चलने वाले को सुख पूर्वक उद्देश्य तक पहुंचा देता है उसी प्रकार तू भी ( सुप्रैतुः ) उत्तम सदाचार से, सत्कर्म से आगे बढ़ने वाले और ( सुयवसः ) उत्तम अन्न आदि भक्ष्य पदार्थों को उपभोग करने वाले को या उत्तम रीति से विषयों को त्याग करने का साधन करने वाले वैराग्यवान् को लक्ष्य तक पहुंचा देता है । ( मित्रः न ) मित्र जिस प्रकार ( परिप्रीतः ) अति प्रसन्न होकर (दुर्नियन्तुः) दुःख से शासन करने वाले, अन्याय मार्ग में जाने वाले राजा को भी हित से बुरे मार्ग से हटाकर न्याय मार्ग में चलाता है उसी प्रकार तू भी (परिप्रीतः) अपनी इन्द्रिय आदि को नियम में रखने से असमर्थ स्खलित पुरुष को सन्मार्ग में चलाता है । ( ये ) जो (अनर्वाणः) उत्तम धर्म मार्ग से जाने वाले, तेरा साक्षात् करते हैं या (अभि चक्षते) अन्यों को उपदेश करते हैं वे (अपीवृताः) सत्य मार्ग में स्थिर होकर या उत्तम वस्त्रादि से ढके रहकर भी (अप-ऊर्णुवन्तः) किसी सत् तत्व को आच्छादित न करते हुए हमारे सामने ( अस्थु ) रहें। वे सब तत्व खोल २ कर कहैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान लोक पूर्ण साधन व उपसाधनांनी युक्त उत्तम मार्गाने अविद्यायुक्त लोकांना विद्या व धर्म शिकवितात व अजितेंद्रियांना जितेंद्रिय बनविणाऱ्या मित्राप्रमाणे शिष्यांना उत्तम शिक्षण देतात त्यांनी अध्यापक व उपदेशक व्हावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brhaspati is like the guiding path of one who is well-provided with food and energy and one who wants to follow the simple and straight path of knowledge. He is like the all round loving friend of one caught up on a difficult highway. Men who are free from sin and every way look after us and who, with light and knowledge, uncover the ignorance of those covered in darkness, may, we pray, be our teachers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of ideal teachers and preachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Our preachers should be the persons who never go astray from the path of Dharma or righteousness. They should be men of determination, who never make us ignorant. They tell us the truth like the path followed by a noble learned person. Such a man eats good food and is affectionate and friend of administrators restraining the bad elements.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
These persons become good teachers and preachers who are highly learned, educate the ignorant on the path of Vidya (knowledge) and Dharma. Such persons teach men self-control and teach their pupils like their friends.
Foot Notes
(सुप्रैतुः) सुष्ठु विद्योपेतस्य = Of men endowed with good knowledge. (अनर्वाण:) अविद्यमानम् अर्व - धर्मादन्यत्र गमनं येषां ते = Those who do not go astray from the path of righteousness.
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