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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 190 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ये त्वा॑ देवोस्रि॒कं मन्य॑मानाः पा॒पा भ॒द्रमु॑प॒जीव॑न्ति प॒ज्राः। न दू॒ढ्ये॒३॒॑ अनु॑ ददासि वा॒मं बृह॑स्पते॒ चय॑स॒ इत्पिया॑रुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त्वा॒ । दे॒व॒ । उ॒स्रि॒कम् । मन्य॑मानाः । पा॒पाः । भ॒द्रम् । उ॒प॒ऽजीव॑न्ति । प॒ज्राः । न । दुः॒ऽध्ये॑ । अनु॑ । द॒दा॒सि॒ । वा॒मम् । बृह॑स्पते । चय॑से । इत् । पिया॑रुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त्वा देवोस्रिकं मन्यमानाः पापा भद्रमुपजीवन्ति पज्राः। न दूढ्ये३ अनु ददासि वामं बृहस्पते चयस इत्पियारुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। त्वा। देव। उस्रिकम्। मन्यमानाः। पापाः। भद्रम्। उपऽजीवन्ति। पज्राः। न। दुःऽध्ये। अनु। ददासि। वामम्। बृहस्पते। चयसे। इत्। पियारुम् ॥ १.१९०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे देव विद्वन् ये मन्यमानाः पापाः पज्रा उस्रिकं भद्रं त्वा त्वामुपजीवन्ति ते त्वया शासनीयाः। हे बृहस्पते यस्त्वं ढूढ्ये सुखं नानुददासि वामं पियारुमिच्चयसे स त्वं सर्वानुपदिश ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (ये) (त्वा) त्वाम् (देव) विद्वन् (उस्रिकम्) य उस्राभिर्गोभिश्चरति तम् (मन्यमानाः) विजानन्तः (पापाः) अधर्माचरणाः (भद्रम्) कल्याणरूपिणम् (उपजीवन्ति) (पज्राः) प्राप्ताः। अत्र वर्णव्यत्ययेन दस्य जः। (न) (ढूढ्ये) यो दुष्टं ध्यायति विचारयति तस्मै। अत्र चतुर्थ्यर्थे सप्तमी। (अनु) (ददासि) (वामम्) प्रशस्यम्। वाममिति प्रशस्यना०। निघं० ३। ८। (बृहस्पते) बृहतां विदुषां पालक (चयसे) प्राप्नोषि (इत्) एव (पियारुम्) पानेच्छुकम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसः स्वसन्निहितानज्ञानाभिमानिनः पापाचारानुपदिश्य धार्मिकान् कुर्वन्ति ते कल्याणमाप्नुवन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वान् ! (ये) जो (मन्यमानाः) विज्ञानवान् (पापाः) अधर्माचारी (पज्राः) प्राप्त हुए जन (उस्रिकम्) गौओं के साथ विचरते उन (भद्रम्) कल्याणरूपी (त्वा) आपके (उप, जीवन्ति) समीप जीवित हैं वे आपकी शिक्षा पाने योग्य हैं। हे (बृहस्पते) बड़े विद्वानों की पालना करनेवाले जो आप (ढूढ्ये) दुष्ट—बुरा विचार करनेवाले को (न, अनु, ददासि) अनुक्रम से सुख नहीं देते (वामम्) प्रशंसित (पियारुम्) पान की इच्छा करनेवाले को (इत्) ही (चयसे) प्राप्त होते वे आप सभों को उपदेश देओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन अपने निकटवर्त्ती अज्ञ, अभिमानी, पापी जनों को उपदेश दे धार्मिक करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    प्रभु को उस्त्रिक समझनेवाले

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (पापा:) = पापी लोग (पज्रा:) = [wealth, rich] अन्याय मार्ग से धन कमाकर ऐश्वर्यसम्पन्न बने हुए (भद्रं त्वा) = कल्याण करने और सुख देनेवाले आपको हे देव-सब-कुछ देनेवाले प्रभो ! (उस्त्रिकं मन्यमानाः) = [उत्रि = an old ox] बूढ़ा बैल जानते हुए (उपजीवन्ति) = इस संसार में विलासमय जीवन बिताते हैं, जो श्रेयमार्ग को छोड़कर प्रेयमार्ग को अपनाते हैं, परलोक को न मानते हुए केवल इस लोक की मौज का ही ध्यान करते हैं, इन (दूढ्ये) = दुर्बुद्धि पुरुषों में आप (वामम्) = सुन्दर, श्रेयस्कर वस्तुओं को (न अनुददासि) = नहीं देते हैं । २. ये लोग औरों की हिंसा करके भी अपने स्वार्थ को सिद्ध करनेवाले होते हैं। हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! आप (पियारुम्) = इस हिंसक को (इत्) = निश्चय से (चयसे) = [to detest, to hate] प्रेम नहीं करते हो। इसका आप विनाश ही करते हो। इनके भोग ही इनके विनाश का कारण बन जाते हैं । ये लोग 'आत्मा-परमात्मा की चर्चाओं' को व्यर्थ समझते हैं, परमात्मा की उपासना को निरर्थक जानते हैं। ये भोगों को भोगने में लगे रहते हैं और परिणामतः भोगों से भोगे जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को बूढ़ा बैल समझते हुए जो प्रकृति के भोगों को ही सब कुछ समझते हैं, वे इन भोगों में फँसकर नष्ट हो जाते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन । बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    जैसे कृषक वा शकट के स्वामी सांड को या बैल को आदर से देखकर उसपर आजीविका करते हुए भी (पज्राः) पैदल चलते २ लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं उसी प्रकार हे ( देव ) दानशील ब्रह्मदान के देने वाले विद्वन् ! ( बृहस्पते ) वेदज्ञ ! ( ये ) जो ( पापाः ) पापी जन भी ( त्वा ) तुझ को ( उस्त्रियम् ) गौओं के साथ विचरने वाले सांड के समान ज्ञान प्रदान करने वा वेद वाणियों के साथ विचरने वाले ज्ञानवर्षक, गोतम, विद्वान् (मन्यमानाः) जानते हुए आदरपूर्वक (भद्रम्) सुखकारी तेरे ( उप जीवन्ति ) समीप आकर रहते हैं, तेरी ही उपासना करते हैं वे भी (पज्राः) ज्ञानवान् हो जाते हैं और उत्तम पद तक पहुंच जाते हैं । परन्तु हे ( बृहस्पते ) विद्वन् ! तू भी ( वामम् ) उत्तम ज्ञान को ( ढूढये) चित्त वाले पुरुष में (न अनु दासि) अनुकूल, सुखप्रद रूप में प्रदान नहीं करता है। प्रत्युत ( पियारुम् ) हिंसक दुष्ट पुरुष को (चयसे इत्) नाश ही कर देता है । अथवा (पियारुम्) ज्ञान रस के पान करने वाले को भी (चयसे इत्) तू प्राप्त होकर ज्ञान का पान करा देता है। ( २ ) हे परमेश्वर जो पापी जन भी तुझे गौ के समान समझ तेरी सेवा करते हैं वे भी तुझे प्राप्त होते हैं, दुर्बुद्धियों को तू सुख नहीं देता । दुष्ट को तू नाश कर डालता है ।

    टिप्पणी

    अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि स । शश्वद्भवति धर्मात्मा शवच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मद्भक्तः प्रणश्यति ॥ गीता ॥ इति द्वादशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान लोक आपल्या निकटवर्ती अज्ञानी, अभिमानी, पापी लोकांना उपदेश करून धार्मिक करतात, त्यांचे कल्याण होते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    There are those rigid and sinful people who accept the wise man as brilliant and good, but in reality they exploit him to live by him for self-support as parasites do. O Brhaspati, you yield not to the man of crooked intelligence but choose the man of honest desire for the gift of knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Brihaspati (a scholar) should reform the sinners.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O great divine scholar ! you should properly punish and weed out the haughty persons who are habitually sinful. The protectors of the cows are benevolent man of noble speech. You do not bless a stupid person with desired wealth. Rather you give it and approach a man, desirous of drinking milk etc. and the nectar of devotion.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned become very happy on making the ignorant proud and sinners righteous.

    Foot Notes

    ( उस्त्रिकम् ) य: उस्राभिः गोभिः चरति तम् । उत्ना इति गो नाम (N.G. 2-11) गौरिति वाङ्नाम (N.G. 1-11) = He who feeds or protects the cattle and is a man of noble speech. (बामम्) प्रशस्यम् । वाममिति प्रशस्य नाम (NG. 3-8) (दूढ्ये) यो दुष्टं ध्यायति विचायति तस्मै । अत्न चतुर्थ्यर्थे सप्तमी = For a wicked person of ignoble thought. ( पञ्चा:) प्राप्ताः अत्र वर्णव्यत्ययेन पस्य जः = Coming close a approaching.

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