ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 11
मरु॑तो वीळुपा॒णिभि॑श्चि॒त्रा रोध॑स्वती॒रनु॑ । या॒तेमखि॑द्रयामभिः ॥
स्वर सहित पद पाठमरु॑तः । वी॒ळु॒पा॒णिऽभिः॑ । चि॒त्राः । रोध॑स्वतीः । अनु॑ । या॒त । ई॒म् । अखि॑द्रयामऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु । यातेमखिद्रयामभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमरुतः । वीळुपाणिभिः । चित्राः । रोधस्वतीः । अनु । यात । ईम् । अखिद्रयामभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(मरुतः) योगाभ्यासिनो व्यवहारसाधका वा जनाः (वीळुपाणिभिः) वीळूनि दृढानि बलानि पाणयोर्ग्रहणसाधनव्यवहारयोर्थेषां तैः। वीड्विति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (चित्राः) अद्भुतगुणाः (रोधस्वतीः) रोधो बहुविधमावर्णं विद्यते यासां नदीनां नाडीनां वा ताः रोधस्वत्य इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। (अनु) अनुकूले (यात) प्राप्नुत (ईम्) एव (अखिद्रयामभिः) +अच्छिन्नानि निरन्तराणि निगमनानि येषां तैः। स्फायितञ्चि० उ० २।१४। इति रक्। सर्वधातुभ्यो मनिन् इति करणे मनिंश्च ॥११॥ +[अखिन्नानि]
अन्वयः
पुनस्ते मानवः वायुभिः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे मरुतो यूयमखिद्रयामभिर्वीळुपाणिभिः पवनैः सह रोधस्वतीश्चित्रा ईमनुयात ॥११॥
भावार्थः
वायुषु गमनबलव्यवहारहेतूनि कर्माणि स्वाभाविकानि सन्ति। एते खलु नदीनां गमयितारो नाडींनां मध्ये गच्छन्तो रुधिररसादिकं शरीराऽवयवेषु प्रापयन्ति तस्माद्योगिभिर्योगाभ्यासेनेतरैर्जनैश्च बलादिसाधनाय वायुभ्यो महोपकारा ग्राह्याः ॥११॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे मनुष्य पवनों से क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (मरुतः) योगाभ्यासी योग व्यवहार सिद्धि चाहनेवाले पुरुषो ! तुम लोग (अखिद्रयामभिः) निरन्तर गमनशील (वीळुपाणिभिः) दृढ़ बलरूप ग्रहण के साधक व्यवहारवाले पवनों के साथ (रोधस्वतीः) बहुत प्रकार के बांध वा आवरण और (चित्राः) आश्चर्य्य गुणवाली नदी वा नाडियों के (ईम्) (अनु) अनुकूल (यात्) प्राप्त हों ॥११॥
भावार्थ
पवनों में गमन बल और व्यवहार होने के हेतु स्वाभाविक धर्म हैं और ये निश्चय करके नदियों को चलानेवाले नाड़ियों के मध्य में गमन करते हुए रुधिर रसादि को शरीर के अवयवों में प्राप्त करते हैं इस कारण योगी लोग योगाभ्यास और अन्य मनुष्य बल आदि के साधनरूप वायुओं से बड़े-२ उपकार ग्रहण करें ॥११॥
विषय
फिर वे मनुष्य पवनों से क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मरुतः यूयम् अखिद्रयामभिः वीळुपाणिभिः पवनैः सह रोधस्वतीः चित्रा ईम् अनुयात ॥११॥
पदार्थ
हे (मरुतः) योगाभ्यासिनो व्यवहारसाधका वा जनाः=योग व्यवहार के साधक पुरुषो! (यूयम्)=तुम सब, (अखिद्रयामभिः) अच्छिन्नानि निरन्तराणि निगमनानि येषां तैः=जिनके अच्छिन्न और निरन्तर रहनेवाले वेद हैं, (वीळुपाणिभिः) वीळूनि दृढानि बलानि पाणयोर्ग्रहणसाधनव्यवहारयोर्येषां तैः=जिनके हाथ और ग्रहण करने के साधन व्यवहार में मजबूत बलवाले हैं, (पवनैः)=ऐसे पवनों के, (सह)=साथ, (रोधस्वतीः) रोधो बहुविधमावर्णं विद्यते यासां नदीनां नाडीनां वा ताः= बहुत प्रकार के बांध या जिस नदियों या नाडियों में हैं, उनके (चित्राः) अद्भुतगुणाः=अद्भुत गुणों के, (ईम्) एव=ही, (अनु) अनुकूले=अनुकूल, (यात) प्राप्नुत=प्राप्त हों ॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
पवनों में गमन बल और व्यवहार होने के हेतु स्वाभाविक धर्म हैं और ये निश्चय करके नदियों को चलानेवाले नाड़ियों के मध्य में गमन करते हुए रुधिर रसादि को शरीर के अवयवों में प्राप्त करते हैं इस कारण योगी लोग योगाभ्यास और अन्य मनुष्य बल आदि के साधनरूप वायुओं से बड़े- बड़े उपकार ग्रहण करें ॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मरुतः) योग व्यवहार के साधक पुरुषो! (यूयम्) तुम सब, (अखिद्रयामभिः) जिनके पास अच्छिन्न और निरन्तर रहनेवाले वेद हैं। (वीळुपाणिभिः) जिनके हाथ और ग्रहण करने के साधन व्यवहार में मजबूत बलवाले हैं, (पवनैः) ऐसे पवनों के (सह) साथ (रोधस्वतीः) बहुत प्रकार के बांध जिन नदियों या नाडियों में हैं, उनके (चित्राः) अद्भुत गुणों के (अनु) अनुकूल (ईम्) ही (यात) [उपकार] प्राप्त हों ॥११॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मरुतः) योगाभ्यासिनो व्यवहारसाधका वा जनाः (वीळुपाणिभिः) वीळूनि दृढानि बलानि पाणयोर्ग्रहणसाधनव्यवहारयोर्थेषां तैः। वीड्विति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (चित्राः) अद्भुतगुणाः (रोधस्वतीः) रोधो बहुविधमावर्णं विद्यते यासां नदीनां नाडीनां वा ताः रोधस्वत्य इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। (अनु) अनुकूले (यात) प्राप्नुत (ईम्) एव (अखिद्रयामभिः) +अच्छिन्नानि निरन्तराणि निगमनानि येषां तैः। स्फायितञ्चि० उ० २।१४। इति रक्। सर्वधातुभ्यो मनिन् इति करणे मनिंश्च ॥११॥ +[अखिन्नानि]
विषयः- पुनस्ते मानवः वायुभिः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे मरुतो यूयमखिद्रयामभिर्वीळुपाणिभिः पवनैः सह रोधस्वतीश्चित्रा ईमनुयात ॥११॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- वायुषु गमनबलव्यवहारहेतूनि कर्माणि स्वाभाविकानि सन्ति। एते खलु नदीनां गमयितारो नाडींनां मध्ये गच्छन्तो रुधिररसादिकं शरीराऽवयवेषु प्रापयन्ति तस्माद्योगिभिर्योगाभ्यासेनेतरैर्जनैश्च बलादिसाधनाय वायुभ्यो महोपकारा ग्राह्याः ॥११॥
विषय
अद्भुत नदियों में प्राणप्रवाह
पदार्थ
१. हे (मरुतः) - प्राणो ! (वीळुपाणिभिः) - दृढ़ हाथों से अथवा दृढ रक्षणों से युक्त हुए - हुए आप (अखिद्रयामभिः) - अदीन गतियों से, अर्थात् न क्षीण हुई - हुई गतियों से (चित्राः) - अद्भुत अथवा ज्ञान का प्रकाश करनेवाली (रोधस्वतीः अनु) - नदियों व नाड़ियों का लक्ष्य करके (यात् ईम्) - गतिवाले होओ ही ।
२. प्राणसाधना में जब इन प्राणों की गति 'इडा, पिंगला व सुषुम्णा' नामक नाड़ियों में ठीक से होने लगती है तब जहाँ शरीर के अङ्ग - प्रत्यङ्ग सुदृढ़ होते हैं, वहाँ कुण्डलिनी शक्ति का प्रबोधन होकर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । प्राणसाधना से प्राणों की गति में क्षीणता नहीं आती और शरीर की शक्ति सुस्थिर रहती है ।
३. शरीर में ये नाडियाँ ही नदियाँ हैं । 'इडा, पिंगला व सुषुम्णा' ही गङ्गा, यमुना व सरस्वती हैं । इनमें प्राणों की गति होने पर क्रियाशीलता, संयम व ज्ञान प्राप्त होता है । 'गङ्गा' क्रियाशीलता की प्रतीक है, 'यमुना' आत्म - संयम की तथा 'सरस्वती' ज्ञान की ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर सुदृढ़ होता है और हृदय प्रभु की ज्योति से दीप्त ।
विषय
मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ
(मरुतः) वायुगण जिस प्रकार (अखिद्रयामभिः) अविच्छिन्न, अटूट वेगों से (चित्राः) नाना प्रकार की (रोधस्वतीः) नदियों की ओर को बहते हैं उसी प्रकार हे (मरुतः) प्रचण्ड वेगवाले वीर सैनिको! आप लोग (वीळुपाणिभिः) दृढ़, बलयुक्त हाथों से (चित्राः) अद्भुत, या चिन कर बनाई गई, या समृद्ध (रोधस्वतीः अनु) चारों तरफ से घेरने वाले परकोटों से घिरी शत्रु की पुरियों को लक्ष्य कर (अखिद्रयामभिः) अनथक चालों से (यात, ईम) बढ़ते चले जाओ। प्राणगण के पक्ष में—हे प्राणगण या योगीजनो! तुम (वीळुपाणिभिः) दृढ़ व्यवहार वाले और (अखिद्रया मभिः) अखिन्न, निरन्तर होने वाली चेष्टाओं से (चित्राः) चेतना देने वाली (रोधस्वतीः अनु) नाड़ियों के प्रति (यात ईम) गति करो। उन पर वश करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
वायूमध्ये गमन बल व व्यवहाराचे स्वाभाविक धर्म आहेत व ते निश्चयपूर्वक नद्या चालविण्यात, नाड्यांमध्ये गमन करण्यात रस रक्त इत्यादी शरीराच्या अवयवात असतात, यामुळे योग्यांनी योगाभ्यास व इतर माणसांनी बल इत्यादी साधनरूपी वायूकडून महाउपकार घ्यावेत. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, lightning powers of the winds, wondrous forces of the nation, resistant and inviolable, march on with invincible arms by the irresistible paths (to your goal in sight).
Subject of the mantra
Then what those humans do with the airs, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ)=Men who are seekers of yoga practice! (yūyam)=all of you, (akhidrayāmabhiḥ)= Who possess the inseparable and eternal Vedas, (vīḻupāṇibhiḥ)=whose hands and means of receiving are strong in practice, (pavanaiḥ)=of such winds, (saha)=with, (rodhasvatīḥ)=there are many types of obstacles in the rivers or nerves, their, (citrāḥ)=of wonderful qualities, (anu)=according, (īm)=only, [upakāra]=favour, (yāta)=get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O men, who are seekers of yoga practices! All of you, who possess inseparable and eternal Vedas. Those, whose hands and means of grasping are strong in practice, such airs along with many types of obstacles in the rivers or nerves, may be blessed by their wonderful qualities.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Airs have natural qualities because of their driving force and activities with determination. While moving in the middle, they get the blood sap et cetera in the components of the body. For this reason, Yogi people receive great help from the winds which are means of Yoga and other human forces et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do men do with the winds is taught further in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O practisers of yoga or other worldly men, you should come (for a walk and meditation) to the beautifully embanked rivers with unobstructed progress along with ever-moving and strong winds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The winds have the power of going about and strength natural in them. It is they that cause the movement of the rivers and when entering the nerves, they cause the circulation of blood and sap in the organs of the body. Therefore the Yogis should make proper use of them for gaining strength through the practice of Yoga- Pranayama etc. and other persons engaged in worldly occupations should also utilize them properly. ( मरुतः ) योगाभ्यासिनो व्यवहारसाधका वा जनाः = The practisers of Yoga or other worldly men. ( वीडु पाणिभिः) वीडूनि दृढानि बलानि पाण्योर्ग्रहण साधनव्यवहारा येषां ते । वीलु इति बलनामसु पठितम् । ( निघ० २.९) = With powerful hands. ( रोधस्वती: ) रोधो बहुविधमावरणं विद्यते यासां नदीनां नाडीनां वा ताः, रोधस्वत्यः इति नदीनामसु पठितम् ( निघ० १.१३) = Rivers and nerves. (अखिद्रयामभिः) अच्छिन्नानि निरन्तराणि गमनानि येषां ते । स्फायितंचिवंचि शकि क्षिपि क्षुदि सृप्रि तृपि वन्द्युन्दिश्विती वृत्यजनी पदि मदि मुदि खिदि छिदि शुमिभ्यो रक् ( उणादि० २.१४) इति रक् = Unobstructed or ever going.
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