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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स्थि॒रा वः॑ सन्तु ने॒मयो॒ रथा॒ अश्वा॑स एषाम् । सुसं॑स्कृता अ॒भीश॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्थि॒राः । वः॒ । स॒न्तु॒ । ने॒मयः॑ । रथाः॑ । अश्वा॑सः । ए॒षा॒म् । सुऽसं॑स्कृताः । अ॒भीश॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् । सुसंस्कृता अभीशवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्थिराः । वः । सन्तु । नेमयः । रथाः । अश्वासः । एषाम् । सुसंस्कृताः । अभीशवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (स्थिराः) दृढाः (वः) युष्माकम् (सन्तु) भवन्तु (नेमयः) कलाचक्राणि (रथाः) विमानादीनि यानानि (अश्वासः) अग्न्यादयस्तुरङ्गा वा। अत्र आञ्जसेरसुग् इत्यसुगागमः। (एषाम्) मरुतां साकाशात् (अभीशवः) अभितो श्नुवते व्याप्नुवन्ति मार्गान्यैस्तेरश्मयो हया वा। अत्राभिपूर्वादशूङ् व्याप्तावित्यस्माद्धातोः। कृवाया० उ० १।१। इत्युण् वर्णव्यत्ययेनाकारस्थान ईकारश्च ॥१२॥

    अन्वयः

    पुनस्तदेवाह।

    पदार्थः

    हे विद्वांसो मनुष्या वो युष्माकमेषां मरुतां सकाशात्सुसंस्कृता नेमयो रथा अभिशवोऽश्वासश्च स्थिराः सन्तु ॥१२॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति। हे मनुष्या युष्माभिर्विविधकलाचक्राणि यानानि रचयित्वा तेष्वग्निजलादीनां शीघ्रं यातॄणां संप्रयोगेण वायूनां योगात्सुखेन सर्वतो गमनागमनानि शत्रुविजयादयः सर्वे व्यवहाराः संसाधनीया इति ॥१२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! (वः) तुम्हारे (एषाम्) इन पवनों के सकाश से (सुसंस्कृताः) उत्तम शिल्प विद्या से संस्कार किए हुए (नेमयः) कलाचक्र युक्त (रथाः) विमान आदि रथ (अभीशवः) मार्गों को व्याप्त करनेवाले (अश्वासः) अग्नि आदि वा घोड़ों के सदृश (स्थिराः) दृढ़ बलयुक्त (सन्तु) होवें ॥१२॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है। हे मनुष्यो ! तुमको चाहिये कि अनेक प्रकार के कलाचक्र युक्त विमान आदि यानों को रच कर उनमें जल्दी चलनेवाले अग्नि जल के सम्प्रयोग वा पवनों के योग से सुख पूर्वक जाने-आने और शत्रुओं को जीतने आदि सब व्यवहारों को सिद्ध करो ॥१२॥

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    विषय

    फिर भी उक्त विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः मनुष्या वः युष्माकम् एषां मरुतां सकाशात् सुसंस्कृता नेमयः रथा अभीशवः अश्वासः च  स्थिराः सन्तु ॥१२॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)=विद्वान्, (मनुष्या)=मनुष्यों! (वः) युष्माकम्=तुम सब,  (एषाम्)=इन, (मरुताम्)=पवनों को,  (सकाशात्)=निकट से,  (सुसंस्कृता)=खूबसूरती से सजाये गये, (नेमयः) कलाचक्राणि=कलाचक्र (पहिये), (रथाः) विमानादीनि यानानि=विमान आदि यान, (अभीशवः) अभितो श्नुवते व्याप्नुवन्ति मार्गान्यैस्तेरश्मयो हया वा=जो हर ओर से मार्गों को व्याप्त करनेवाली किरणों या घोड़ियों के सदृश  हैं, (अश्वासः) अग्न्यादयस्तुरङ्गा वा=अग्नि आदि या घोड़ों के सदृश, (स्थिराः) दृढाः=दृढ़ बलयुक्त, (च)=भी, (सन्तु) भवन्तु=होवें ॥१२॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर उपदेश करता है। हे मनुष्यो ! तुमको चाहिये कि अनेक प्रकार के कलाचक्र युक्त विमान आदि यानों को रच कर उनमें जल्दी चलनेवाले अग्नि जल के सम्प्रयोग वा पवनों के योग से सुख पूर्वक जाने-आने और शत्रुओं को जीतने आदि सब व्यवहारों को सिद्ध करो ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः) विद्वान् (मनुष्या) मनुष्यों! (वः) तुम सब  (एषाम्) इन (मरुताम्) पवनों को  (सकाशात्) निकट से  (सुसंस्कृता) खूबसूरती से सजाये गये (नेमयः) कलाचक्रवाले [पहियेवाले] (रथाः) विमान आदि यानों (अभीशवः) जो हर ओर से मार्गों को व्याप्त करनेवाली किरणों या घोड़ियों के सदृश  हैं। (अश्वासः) अग्नि आदि या घोड़ों के सदृश (स्थिराः) दृढ़ बलयुक्त (च) भी (सन्तु) होवें ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (स्थिराः) दृढाः (वः) युष्माकम् (सन्तु) भवन्तु (नेमयः) कलाचक्राणि (रथाः) विमानादीनि यानानि (अश्वासः) अग्न्यादयस्तुरङ्गा वा। अत्र आञ्जसेरसुग् इत्यसुगागमः। (एषाम्) मरुतां साकाशात् (अभीशवः) अभितो श्नुवते व्याप्नुवन्ति मार्गान्यैस्तेरश्मयो हया वा। अत्राभिपूर्वादशूङ् व्याप्तावित्यस्माद्धातोः। कृवाया० उ० १।१। इत्युण् वर्णव्यत्ययेनाकारस्थान ईकारश्च ॥१२॥ 
    विषयः- पुनस्तदेवाह।

    अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्या वो युष्माकमेषां मरुतां सकाशात्सुसंस्कृता नेमयो रथा अभिशवोऽश्वासश्च स्थिराः सन्तु ॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति। हे मनुष्या युष्माभिर्विविधकलाचक्राणि यानानि रचयित्वा तेष्वग्निजलादीनां शीघ्रं यातॄणां संप्रयोगेण वायूनां योगात्सुखेन सर्वतो गमनागमनानि शत्रुविजयादयः सर्वे व्यवहाराः संसाधनीया इति ॥१२॥

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    विषय

    रथ का सौन्दर्य

    पदार्थ

    १. हे प्राणसाधको ! (वः) - तुम्हारे (नेमयः) - रथचक्रों की परिधियाँ (स्थिराः सन्तु) - स्थिर हों । शरीर ही रथ है । इस शरीर - रथ के कर्म ही चक्र हैं । उन कर्मों की मर्यादाएँ ही इन चक्रों की नेमियाँ हैं । ये मर्यादाएँ स्थिर हों, अर्थात् तुम्हारे सब कर्म मर्यादित हों । 
    २. (एषाम्) - इन प्राणसाधकों के (रथाः) - रथ स्थिर हों, अर्थात् शरीर सुदृढ़ हों, शरीर पर किसी प्रकार की व्याधि का आक्रमण न हो पाये । 
    ३. (अश्वासः) - इनके अश्व भी स्थिर हों । इन्द्रियाँ ही घोड़े हैं । ये इन्द्रियाँ क्षीण शक्तिवाली न हों । 
    ४. (अभीशवः) - लगामें भी (सुसंस्कृताः) - उत्तम रूप से परिष्कृत हों । मन ही लगाम है । 'चित्तवृत्तियों' के बहुत होने पर यहाँ 'अभीशवः' शब्द बहुवचन में है । प्राणसाधकों की चित्तवृत्तियों बड़ी परिष्कृत होती हैं । वस्तुतः प्राणसाधना का सर्वप्रथम लाभ ही इन चित्तवृत्तियों के निरोध के द्वारा चित्त पर ही पड़ता है । चित्त का परिष्कार ही प्राणसाधना का सर्वोत्तम लाभ है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना शरीररूप रथ को, इन्द्रियाश्वों को, मनरूप लगाम को, कर्मरूप चक्रपरिधियों को सुन्दर बनाती है । 
     

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    विषय

    मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे वीर पुरुषो! मनुष्यो! (वः) तुम्हारे (नेमयः) रथ चक्रों की धाराएं (रथाः) यान, रथ (अश्वासः) अग्नि और अश्व आदि वेग वाले वाहन (एषाम्) इन वायुगण के योग से हों। और (अभीशवः) रासें अंगुलियाँ और अश्व भी (सुसंस्कृताः) अच्छी प्रकार से बने, सजे हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करतो - हे माणसांनो ! तुम्ही अनेक प्रकारच्या कलाचक्रांनी युक्त विमान इत्यादी यानांना निर्माण करून त्यात अग्नी व जलाच्या संप्रयोगाने, वायूच्या योगाने सुखपूर्वक गमनागमन व शत्रूंवर विजय इत्यादी व्यवहारांना सिद्ध करा. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Let the wheels of your chariots be strong and steady. May your chariots of horse and fire be strong by wind and electric energy. Let the reins and steering be very sensitive and sophisticated.

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, the aforesaid topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (manuṣyā)=humans! (vaḥ)=all of you, (eṣām)=to these, (marutām)=airs, (sakāśāt)=closely, (susaṃskṛtā)=beautifully decorated, (nemayaḥ) [pahiyevāle]=wheeled, (rathāḥ)=aircraft etc. vehicles, (abhīśavaḥ)=which are like rays or mares pervading the roads from all sides, (aśvāsaḥ)=fiery or horse-like, (sthirāḥ)=strong force, (ca)=also, (santu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned men! You all closely observe these airs, beautifully decorated wheeled aircraft etc. vehicles which are like rays or mares pervading the roads from all sides. Be strong like fire et cetera or horses.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches- “O humans! You should create various types of vehicles with wheels and use fast-moving fire and water in them or with the combination of winds and accomplice all the activities et cetera to go and come happily and to win over the enemies.”

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men, may the fellies of your wheels be firm, May your chariots of various kinds including aero planes be stead and your horses o fire etc. be properly trained and utilized ; and may your rains be fashioned well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( नेमय: ) कलाचक्राणि = Fellies and wheels of the machines. (रथा:) विमानादीनि यानानि = Vehicles like aero planes etc. (अश्वास:) अग्न्यादयः तुरंगा वा । अत्र आज्जसेरसुक् इत्यसुगागमः = Horses or fire etc. (अभीशवः) अभितः अश्नुवते व्याप्नुवन्ति मार्गान् यैः ते रश्मयो हया वा = Reins or horses. अत्र अभिपूर्वकात् अशुङ् व्याप्तौ इति धातोः कृवापाजिनिस्वदिसाध्यशूभ्य उण ( उणादि० १.१ ) इत्युण वर्णन्यत्ययेनाकारस्थान ईकारश्च ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God instructs: O men, you should manufacture many kinds of vehicles endowed with various machines, use fire and water etc. and with their combination and that of the gases you should be able to move quickly everywhere, should get victory over your enemies and accomplish all works.

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