ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
मो षु णः॒ परा॑परा॒ निर्ऋ॑तिर्दु॒र्हणा॑ वधीत् । प॒दी॒ष्ट तृष्ण॑या स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । नः॒ । परा॑ऽपरा । निःऽऋ॑तिः । दुः॒ऽहना॑ । व॒धी॒त् । प॒दी॒ष्ट । तृष्ण॑या । स॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु णः परापरा निर्ऋतिर्दुर्हणा वधीत् । पदीष्ट तृष्णया सह ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । सु । नः । परापरा । निःऋतिः । दुःहना । वधीत् । पदीष्ट । तृष्णया । सह॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(मो) निषेधार्थे (सु) सर्वथा (नः) अस्मान् (पराऽपरा) या परोत्कृष्टा चासावपराऽनुत्कृष्टा च सा (निर्ऋतिः) वायूनां रोगकारिका दुःखप्रदा गतिः। निर्ऋतिर्निरमणादृच्छतेः कृच्छ्रापत्तिरितरा सा पृथिव्यां संदिह्यते तयोविभागः। निरु० २।७। (दुर्हणा) दुःखेन हन्तुं योग्या (वधीत्) नाशयतु। अत्र लोडर्थे लुङन्तर्गताण्यर्थश्च। (पदीष्ट) पत्सीष्ट प्राप्नुयात्। अत्र छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणात्सलोपः। (तृष्णया) तृष्यत यया पिपासया लोभगत्या वा तया (सह) संहिता ॥६॥
अन्वयः
पुनस्तद्विषयमाह।
पदार्थः
हे अध्यापका यूयं यथा पराऽपरा दुर्हणा निर्ऋतिर्मरुतां प्रतिकूला गतिस्तृष्णया सह नोऽस्मान्मोपदिष्ट मोपवधीच्च किं त्वेतेषां या सुष्ठु सुखप्रदा गतिः सास्मान्नित्यं प्राप्ता भवेदेवं प्रयतध्वम् ॥६॥
भावार्थः
मरुतां द्विविधा गतिरेका सुखकारिणी द्वितीया दुःखकारिणी च, तत्र या सुनियमैः सेविता रोगान् हन्त्री सती शरीरादिसुखहेतुर्भवति साऽऽद्या। या च कुनियमैः प्रमादेनोत्पादिता कृच्छ्रदुःखरोगप्रदा साऽपरा। एतयोर्मध्यान्मनुष्यैः परमैश्वराऽनुग्रहेण विद्वत्संगेन स्वपुरुषार्थैश्चप्रथमामुत्पाद्य द्वितीयां निहत्य सुखमुन्नेयम्। यः पिपासादिधर्मः स वायुनिमित्तेनैव यश्च लोभवेगः सोऽज्ञानेनैव जायत इति वेद्यम् ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी पूर्वोक्त विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे अध्यापक लोगो ! आप जैसे (पराऽपरा) उत्तम मध्यम और निकृष्ट (दुर्हणा) दुःख से हटने योग्य (निर्ऋतिः) पवनों की रोग करने वा दुःख देनेवाली गति (तृष्णया) प्यास वा लोभ गति के (सह) साथ (नः) हम लोगों को (मोपदिष्ट) कभी न प्राप्त हो और (मावधीत्) बीच में न मरें +किन्तु जो इन पवनों की सुख देनेवाली गति है वह हम लोगों को नित्य प्राप्त होवे वैसा प्रयत्न किया कीजिये ॥६॥ +सं० भा० के अनुसार। मारे। सं०
भावार्थ
पवनों की दो प्रकार की गति होती है एक सुख कारक और दूसरी दुःख करनेवाली उनमें से जो उत्तम नियमों से सेवन की हुई रोगों का हनन करती हुई शरीर आदि के सुख का हेतु है वह प्रथम और जो खोटे नियम और प्रमाद से उत्पन्न हुई क्लेश दुःख और रोगों की देनेवाली वह दूसरी इन्हों के मध्य में से मनुष्यों को अति उचित है कि परमेश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थों से पहिली गति को उत्पन्न करके दूसरी गति का नाश करके सुख की उन्नति करनी चाहिये और जो पिपासा आदि धर्म हैं वह वायु के निमित्त से तथा जो लोभ का वेग है वह अज्ञान से ही उत्पन्न होता है ॥६॥
विषय
फिर भी पूर्वोक्त विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अध्यापका यूयं यथा पराऽपरा दुर्हणा निर्ऋतिः मरुतां प्रतिकूला गतिः तृष्णया सह नः अस्मान् मा उपदिष्ट मा उप वधीत् च किंतु एतेषां या सुष्ठु सुखप्रदा गतिः सा अस्मान् नित्यं प्राप्ता भवेत् एवं प्रयतध्वम् ॥६॥
पदार्थ
हे (अध्यापका)=अध्यापकों! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (पराऽपरा) या परोत्कृष्टा चासावपराऽनुत्कृष्टा च सा=उत्कृष्ट और निकृष्ट, (दुर्हणा) दुःखेन हन्तुं योग्या= दुःख से नष्ट करने योग्य, (निर्ऋतिः) वायूनां रोगकारिका दुःखप्रदा गतिः=वायु की रोग करनेवाली और दुःख देनेवाली गतियां, (मरुताम्)=वायु की, (प्रतिकूला)=प्रतिकूल, (गतिः)=गतियां, (तृष्णया) तृष्यत यया पिपासया लोभगत्या वा तया=जिस प्यास से प्यासा या उसके लोभ में पड़े हुए के, (सह) संहिता=संयोग, (नः) अस्मान्=हमें, (मा) निषेधार्थे=न, (उपदिष्ट)= नियत, (मा) निषेधार्थे=न करें, (उप)=समीप से, (वधीत्) नाशयतु=नाश करो, (च)=और, (किंतु)=किंतु, (एतेषाम्)=इनको, (या)=जो, (सुष्ठु)=शोभनीय, (सुखप्रदा)=सुख प्रदान करनेवाली, (गतिः)=[वायु की] गतियां हैं, (सा)=वह, (अस्मान्)=हमें, (नित्यम्)=नित्य, (प्राप्ता)=प्राप्त, (भवेत्)=होवें, (एवम्)=ऐसे ही, (प्रयतध्वम्)=तुम प्रयत्न करो ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
पवनों की दो प्रकार की गति होती है एक सुख कारक और दूसरी दुःख करनेवाली उनमें से जो उत्तम नियमों से सेवन की हुई रोगों का हनन करती हुई शरीर आदि के सुख का हेतु है वह प्रथम और जो खोटे नियम और प्रमाद से उत्पन्न हुई क्लेश दुःख और रोगों की देनेवाली वह दूसरी इन्हों के मध्य में से मनुष्यों को अति उचित है कि परमेश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थों से पहिली गति को उत्पन्न करके दूसरी गति का नाश करके सुख की उन्नति करनी चाहिये और जो पिपासा आदि धर्म हैं वह वायु के निमित्त से तथा जो लोभ का वेग है वह अज्ञान से ही उत्पन्न होता है ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अध्यापका) अध्यापकों! (यथा) जैसे (यूयम्) तुम सब (पराऽपरा) उत्कृष्ट और निकृष्ट (दुर्हणा) दुःख से नष्ट करने योग्य, (निर्ऋतिः) वायु की रोग करनेवाली और दुःख देनेवाली गतियां और (मरुताम्) वायु की (प्रतिकूला) प्रतिकूल (गतिः) गतियां [होती हैं]। (तृष्णया) प्यास से प्यासा या उसके लोभ में पड़े हुए का (सह) संयोग (नः) हमारे लिये (उपदिष्ट) नियत (मा) न करो। (उप) समीप से (वधीत्+च) नष्ट भी करो। (किंतु) किंतु (एतेषाम्) इनको, (या) जो (सुष्ठु) शोभनीय और (सुखप्रदा) सुख प्रदान करनेवाली [वायु की] (गतिः) गतियां हैं, (सा) वह (अस्मान्) हमें (नित्यम्) नित्य (प्राप्ता) प्राप्त (भवेत्) होवें। (एवम्) ऐसे ही (प्रयतध्वम्) तुम प्रयत्न करो ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मो) निषेधार्थे (सु) सर्वथा (नः) अस्मान् (पराऽपरा) या परोत्कृष्टा चासावपराऽनुत्कृष्टा च सा (निर्ऋतिः) वायूनां रोगकारिका दुःखप्रदा गतिः। निर्ऋतिर्निरमणादृच्छतेः कृच्छ्रापत्तिरितरा सा पृथिव्यां संदिह्यते तयोविभागः। निरु० २।७। (दुर्हणा) दुःखेन हन्तुं योग्या (वधीत्) नाशयतु। अत्र लोडर्थे लुङन्तर्गताण्यर्थश्च। (पदीष्ट) पत्सीष्ट प्राप्नुयात्। अत्र छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणात्सलोपः। (तृष्णया) तृष्यत यया पिपासया लोभगत्या वा तया (सह) संहिता ॥६॥
विषयः- पुनस्तद्विषयमाह।
अन्वयः- हे अध्यापका यूयं यथा पराऽपरा दुर्हणा निर्ऋतिर्मरुतां प्रतिकूला गतिस्तृष्णया सह नोऽस्मान्मोपदिष्ट मोपवधीच्च किं त्वेतेषां या सुष्ठु सुखप्रदा गतिः सास्मान्नित्यं प्राप्ता भवेदेवं प्रयतध्वम् ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मरुतां द्विविधा गतिरेका सुखकारिणी द्वितीया दुःखकारिणी च, तत्र या सुनियमैः सेविता रोगान् हन्त्री सती शरीरादिसुखहेतुर्भवति साऽऽद्या। या च कुनियमैः प्रमादेनोत्पादिता कृच्छ्रदुःखरोगप्रदा साऽपरा। एतयोर्मध्यान्मनुष्यैः परमैश्वराऽनुग्रहेण विद्वत्संगेन स्वपुरुषार्थैश्चप्रथमामुत्पाद्य द्वितीयां निहत्य सुखमुन्नेयम्। यः पिपासादिधर्मः स वायुनिमित्तेनैव यश्च लोभवेगः सोऽज्ञानेनैव जायत इति वेद्यम् ॥६॥
विषय
निर्ऋति व तृष्णा से दूर
पदार्थ
१. (नः) - हमें (परापरा) - 'परा' उत्कृष्ट, अर्थात् अतिप्रबल और 'अपरा' निकृष्ट, अर्थात् अति कष्टदायिनी (दुर्हणा) - बुरी भाँति हनन करनेवाली (निर्ऋतिः) - दुराचरण [निर् - दुर्, ऋ - आचरण] (मा) - मत ही (सुवधीत्) - पूर्णरूप से नष्ट करनेवाला हो, अर्थात् हम किसी भी असद् आचरण के शिकार न हो जाएँ । यह असदाचरण अति प्रबल व कष्टदायी होता है । इसका अन्त करना भी सुगम नहीं ।
२. यह निर्ऋति (तृष्णया सह) - धन के लोभ के साथ (पदीष्ट) - हमसे दूर हो जाए । यह निर्ऋति धन की तृष्णा से निरन्तर बढ़ती है । धन के लोभ के कारण मनुष्य कितनी ही न करने योग्य बातों को करनेवाला हो जाता है । यह तृष्णा भी नष्ट हो और निर्ऋति भी नष्ट हो ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी प्राणसाधना हमें 'निर्ऋति व तृष्णा' से बचानेवाली हो । यह निर्ऋति 'दुर्हणा' है । मनु के शब्दों में ये व्यसन दुरन्त हैं, इनका परिणाम अच्छा नहीं ।
विषय
मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ
(परापरा) अधिक से अधिक, बहुत अधिक, अति अधिक शत्रु रूप (निर्ऋतिः) अतिकष्टदायिनी पर सेना (दुर्हना) अति कठिनाई से मरने वाली, प्रबल होकर (नः) हमें (मा उ सु वधीत्) कभी न मारे। प्रत्युत, वह (तृष्णया) प्यास से पीड़ित होकर (पदीष्ट) भाग जाये। अथवा (परापरा) अति अधिक, (दुर्हना) अति कठिनाई से नाश होने वाली (निर्ऋतिः) कठिनाई, दुरवस्था या रोगादि पीड़ा हमें कभी न मारे और (तृष्णया सह मा नः पदीष्ट) वह भूख प्यास की पीड़ा के साथ अकाल दुष्काल आदि के रूप में भी हमें न प्राप्त हो। अध्यात्म में—(परा परा निर्ऋतिः) बड़ी से बड़ी पीड़ा और पाप प्रवृत्ति भी (दुर्हना) अवध्य, या लाइलाज होकर हमें कष्ट न दे। वह हमें (तृष्णया सह) भोग तृष्णा या लोभ के साथ न व्यापे। विद्वान् जन तथा प्राणादि साधन से उसका प्रतिकार करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
वायूची गती दोन प्रकारची असते. एक सुखकारक व दुसरी दुःखकारक. त्यातून जी उत्तम नियमांनी स्वीकारलेली, रोगांचे हनन करणारी, शरीर इत्यादीचा हेतू असते ती प्रथम व जी खोटी असत्य नियमांनी, प्रमादाने उत्पन्न झालेले क्लेश, दुःख व रोग निर्माण करणारी ती दुसरी. यांच्यापैकी माणसांनी परमेश्वराचा अनुग्रह व आपल्या पुुरुषार्थाने पहिल्या गतीला उत्पन्न करून दुसऱ्या गतीचा नाश करावा व सुखाची वाढ करावी. जे पिपासा इत्यादी धर्म आहेत ते वायूच्या निमित्ताने व जो लोभाचा वेग आहे तो अज्ञानाने उत्पन्न होतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May the fatal adversity of life far or near never strike us. Instead, O Winds, powers of the Immortals, let it fly away from us alongwith the thirst and deprivation of life.
Subject of the mantra
Nevertheless, the aforesaid subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (adhyāpakā)=teachers! (yathā)=like, (yūyam)=all of you, (parā’parā)=excellent and ignominious, (durhaṇā)=perishable with sorrow, (nirṛtiḥ)=disease-causing and painful motions of the air, (marutām)=of the air, (pratikūlā)=adverse, (gatiḥ)=speeds, [hotī haiṃ]=are, (tṛṣṇayā)= thirsty or infatuated, (saha)=in contact, (naḥ)=for us, (upadiṣṭa)=prescribe, (mā)=do not do, (upa)=in closeness, (vadhīt+ca)=also destroy, (kiṃtu)=but, (eteṣām)=to these, (yā)=those, (suṣṭhu)=adorable and, (sukhapradā)=giver of pleasure, (gatiḥ)=speeds, [vāyu kī]=of the air, (sā)=those, (asmān)=to us, (nityam)=regularly, (prāptā)=obtain, (bhavet)=get, (evam)=in the same way, (prayatadhvam)=you try.
English Translation (K.K.V.)
O teachers! Just as you are all excellent and ignominious, you can be destroyed by sorrow, disease-causing and painful movements of air and adverse movements of air. Don't assign the act of the combination of being thirsty with thirst or lying in greed for it for us. Destroy from close quarters as well. But to them, which are the movements of the air which give pleasure and happiness, may we get them daily. That's how you try.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Airs have two kinds of speed, one causes happiness and the other causes sorrow. Among them, the one who violates the diseases followed by the best rules, the reason for the happiness of the body etc., the giver of sorrow and diseases. Amongst these, it is most appropriate for human beings that by the grace of God and by one's own efforts, happiness should be promoted by generating the first motion and destroying the second motion. And the thirst et cetera nature is due to the wind and the tendency of greed, it arises from ignorance only.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers, you should endeavor in such a way that the adverse movement of the winds that causes diseases may never destroy us, along with the powerful passion of greed, but their movement and use which lead to health and happiness be attained by us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(निर्ऋतिः) वायूनां रोगकारिका दुःखप्रदा गतिः The movement of Maruts (airs) that causes diseases and misery. निर्ऋतिनिरमणात् कृच्छ्रापत्तिरिति निरुक्ते (निरु० २.७) = Fierce trouble or misery. (दुर्हणा) दुःखेन हन्तुं योग्या = Difficult to the destroyed or overcome.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The movement of the Maruts ( winds ) is of two kinds; one that is pleasant and giver of happiness, the second that causes misery and diseases. The former is that which is observed and used regularly thereby destroying diseases and promoting health and happiness for the body and the mind etc. The second is that which is used without the observance of any rules, with negligence and thus causing various terrible diseases and awful misery. Men should choose and generates industriousness. They should advance happiness by generating the first and keeping away the second. Men should know that thirst etc. are caused by the air and greed is created by ignorance.
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