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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    क्व॑ वः सु॒म्ना नव्यां॑सि॒ मरु॑तः॒ क्व॑ सुवि॒ता । क्वो॒ ३॒॑ विश्वा॑नि॒ सौभ॑गा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व॑ । वः॒ । सु॒म्ना । नव्यां॑सि । मरु॑तः । क्व॑ । सु॒वि॒ता । क्वो॒ इति॑ । विश्वा॑नि । सौभ॑गा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता । क्वो ३ विश्वानि सौभगा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्व । वः । सुम्ना । नव्यांसि । मरुतः । क्व । सुविता । क्वो३ इति । विश्वानि । सौभगा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (क्व) कुत्र (वः) युष्माकं विदुषाम् (सुम्ना) सुखानि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि बहुलम् #इति शेर्लोपः। (नव्यांसि) नवीयांसि नवतमानि। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति ईकारलोपः। (मरुतः) वायुवच्छीघ्रं गमनकारिणो जनाः (क्व) कस्मिन् (सुविता) प्रेरणानि (क्वो) कुत्र। अत्र वर्णव्यत्ययेन अकारस्थान ओकारः। (विश्वा) सर्वाणि (सौभगा) सुभगानां कर्म्माणि। अत्र उद्गातृत्वादञ्* ॥३॥ #[पा० अ० ६।१।७०।] *[पा० अ० ५।१।१२९।]

    अन्वयः

    पुनस्तदेवाह।

    पदार्थः

    हे मरुतो मनुष्या यूयं विदुषां सदेशं प्राप्य वो युष्माकं क्व विश्वानि नव्यांसि सुम्ना क्व सुविता सौभगाः सन्तीति पृच्छत ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे शुभे कर्म्माणि वायुवत् क्षिप्रं गन्तारो मनुष्या युष्माभिर्विदुषः प्रति पृष्ट्वा यथा नवीनानि क्रियासिद्धिनिमित्तानि कर्म्माणि नित्यं प्राप्येरंस्तथा प्रयतितव्यम् ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायु के समान शीघ्र गमन करनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग विद्वानों के समीप प्राप्त होकर (वः) आप लोगों के (विश्वानि) सब (नव्यांसि) नवीन (सुम्ना) सुख (क्व) कहाँ सब (सुविता) प्रेरणा करानेवाले गुण (क्व) कहाँ और सब नवीन (सौभगा) सौभाग्य प्राप्ति करानेवाले कर्म (क्वो) कहाँ है ऐसा पूछो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे शुभ कर्मों में वायु के समान शीघ्र चलनेवाले मनुष्यों ! तुम लोगों को चाहिये कि विद्वानों के प्रति पूछ कर जिस प्रकार नवीन क्रिया की सिद्धि के निमित्त कर्म प्राप्त होवें वैसा अच्छे प्रकार निरन्तर यत्न किया करो ॥३॥

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    विषय

    फिर भी उक्त विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मरुतः मनुष्या यूयं विदुषां संदेशं प्राप्य वः युष्माकं क्व विश्वानि नव्यांसि सुम्ना क्व सुविता सौभगाः सन्ति इति पृच्छत ॥३॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायुवच्छीघ्रं गमनकारिणो जनाः=वायु के समान शीघ्र गमनकारी,  (मनुष्या)=मनुष्यों!  (यूयम्)=तुम सब, (विदुषाम्)=विद्वानों का,  (संदेशम्)=संदेश,  (प्राप्य)=प्राप्त करके, (वः) युष्माकं विदुषाम्=तुम सब विद्वानों का, (क्व) कस्मिन्=किन्हीं, (विश्वानि) सर्वाणि=समस्त, (नव्यांसि) नवीयांसि नवतमानि=नवीन, (सुम्ना) सुखानि=सुख, (सुविता) प्रेरणानि=प्रेरणा, (सौभगा) सुभगानां कर्म्माणि=सौभाग्य प्राप्ति करानेवाले कर्म, (क्व) कुत्र=कहाँ, (सन्ति)=हैं, (इति)=ऐसा, (पृच्छत)=पूछो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे शुभ कर्मों में वायु के समान शीघ्र चलनेवाले मनुष्यों ! तुम लोगों को चाहिये कि विद्वानों के प्रति पूछ कर जिस प्रकार नवीन क्रिया की सिद्धि के निमित्त कर्म प्राप्त होवें वैसा अच्छे प्रकार निरन्तर यत्न किया करो ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मरुतः) वायु के समान शीघ्र गमनकारी  (मनुष्या) मनुष्यों!  (यूयम्) तुम सब (विदुषाम्) विद्वानों का (संदेशम्) संदेश  (प्राप्य) प्राप्त करके, (वः) तुम सब विद्वानों का (क्व) किन्हीं (विश्वानि) समस्त (नव्यांसि) नवीन (सुम्ना) सुखों की (सुविता) प्रेरणा और (सौभगा) सौभाग्य प्राप्ति करानेवाले कर्म (क्व) कहाँ (सन्ति) हैं, (इति) ऐसा (पृच्छत) पूछो ॥३॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (क्व) कुत्र (वः) युष्माकं विदुषाम् (सुम्ना) सुखानि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि बहुलम् #इति शेर्लोपः। (नव्यांसि) नवीयांसि नवतमानि। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति ईकारलोपः। (मरुतः) वायुवच्छीघ्रं गमनकारिणो जनाः (क्व) कस्मिन् (सुविता) प्रेरणानि (क्वो) कुत्र। अत्र वर्णव्यत्ययेन अकारस्थान ओकारः। (विश्वा) सर्वाणि (सौभगा) सुभगानां कर्म्माणि। अत्र उद्गातृत्वादञ्* ॥३॥ #[पा० अ० ६।१।७०।] *[पा० अ० ५।१।१२९।]
    विषयः- पुनस्तदेवाह।

    अन्वयः- हे मरुतो मनुष्या यूयं विदुषां सदेशं प्राप्य वो युष्माकं क्व विश्वानि नव्यांसि सुम्ना क्व सुविता सौभगाः सन्तीति पृच्छत ॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे शुभे कर्म्माणि वायुवत् क्षिप्रं गन्तारो मनुष्या युष्माभिर्विदुषः प्रति पृष्ट्वा यथा नवीनानि क्रियासिद्धिनिमित्तानि कर्म्माणि नित्यं प्राप्येरंस्तथा प्रयतितव्यम् ॥३॥

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    विषय

    सुम्न - सुवित - सौभग

    पदार्थ

    १. हे प्राणो ! (वः) - आपके अर्थात् आपकी साधना से प्राप्त होनेवाले (नव्यांसि) - नवतम, अर्थात् नवीन व स्तुत्य (सुम्ना) - प्रजा व पशुरूप धन तथा स्तोत्र प्रभुस्तवन (क्व) - कहाँ हैं ? आपकी कृपा से कब मैं उत्तम प्रजा व पशुरूप धनों को अथवा प्रभु के स्तोत्रों को प्राप्त करूँगा ? हे मरुतः प्राणो ! (क्व) - कहाँ हैं (सुविता) - उत्तम गमन, अर्थात् कब आपकी कृपा से मैं दुरितों से दूर होकर सुवितों [सदाचारों] को प्राप्त करूंगा ?
    २. (क्व उ) - और कहाँ हैं (विश्वानि सौभगा) - सब सौभाग्य, अर्थात् कब आपकी कृपा से मैं सौभाग्य को प्राप्त करुगा ? कब मेरा जीवन आपकी कृपा से ऐश्वर्य, धर्म, श्री, यश तथा ज्ञान और वैराग्यरूप भग' से युक्त होगा ? 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से 'सुम्न, सुवित व सौभग' की प्राप्ति होती है । 
     

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    विषय

    मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो! हे वायु के समान वैश्य गण और तीव्रगामी वीर जनो! (वः) तुम्हारे लिये (नव्यांसि) नये से नये, आश्चर्य कर (सुम्ना) सुख साधन (क्व) कहां हैं? और आपके (सुविता) शासन तथा नाना ऐश्वर्य (क्व) कहां हैं? (विश्वानि सौभगा क्वा) और समस्त सौभाग्य, सुखप्रद ऐश्वर्य राज्य आदि कहां हैं? जहां हों वहां से उनको प्राप्त करो। अथवा पूर्व मन्त्र से ‘न’ की अनुवृत्ति लेवें। (वः सुम्ना क्व न? सुविता क्व न? विश्वानि सौभगा क्व न? ) आप लोगों के नये २ सुख साधन, शासन, ऐश्वर्य और सौभाग्य सुख कहां कहां नहीं हैं? अर्थात् सर्वत्र विद्यमान हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शुभ कर्मात वायूप्रमाणे शीघ्र गमन करणाऱ्या माणसांनो ! तुम्ही विद्वानांना विचारून नवीन क्रियासिद्धीसाठी ज्या प्रकारे कर्म घडेल तसा प्रयत्न करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, heroes of the nation of humanity, where are your latest dream loves? Where your ideals? Where all your good fortunes to which you all move?

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, the aforesaid topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (marutaḥ)=fast moving like air, (manuṣyā)=humans! (yūyam)=all of you, (viduṣām)=of scholrs, (saṃdeśam)=message, (prāpya)=receiving, (vaḥ) =of all of you scholar’s, (kva)=any, (viśvāni)=all, (navyāṃsi)=new, (sumnā)=of delights, (suvitā)=inspiration and, (saubhagā)=good luck deeds, (kva)=where, (santi)=are, (iti)=such, (pṛcchata)=ask.

    English Translation (K.K.V.)

    O people who move quickly like the wind! After receiving the message from all of you scholars, ask where are the actions of all of you scholars that inspire you to get all the new pleasures and good luck.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. O people who move fast like the wind in auspicious deeds! You people should make constant efforts in the same way, as you get the karma for the accomplishment of a new action by asking the scholars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O active men going about quickly like the air, where are your latest means of happiness? Where are your promptings of the heart and where are your auspicious means of prosperity of all kinds these are the questions that you should put to the learned after approaching them with humility.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men going quickly like the air to perform noble deeds, you should approach learned persons and ask them to enlighten you about the acts which enable us to fulfil our noble desires and should endeavor to do the same. ( मरुतः ) वायुवच्छीघ्रं गमनकारिणो जनाः = O men going quickly like the air. (सुविता ) प्रेरणानि = Promptings.

    Translator's Notes

    As the word means not only wealth as is generally supposed to be the case, but also Dharma, (righteousness) reputation, wisdom and dispassion according to the well-known verse. ऐश्वर्यस्य समस्तस्य, धर्मस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्वैव षण्णां भग इतीरणा ॥ = The word may include all this and therefore it has been translated as "Prosperity of all kinds."

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