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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    असा॒म्योजो॑ बिभृथा सुदान॒वोऽसा॑मि धूतयः॒ शवः॑ । ऋ॒षि॒द्विषे॑ मरुतः परिम॒न्यव॒ इषुं॒ न सृ॑जत॒ द्विष॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असा॒मि । ओजः॑ । बि॒भृ॒थ॒ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । असा॑मि । धू॒त॒यः॒ । शवः॑ । ऋ॒षि॒ऽद्विषे॑ । म॒रु॒तः॒ । प॒रि॒ऽम॒न्यवे॑ । इषु॑म् । न । सृ॒ज॒त॒ । द्विष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः । ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असामि । ओजः । बिभृथ । सुदानवः । असामि । धूतयः । शवः । ऋषिद्विषे । मरुतः । परिमन्यवे । इषुम् । न । सृजत । द्विषम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (असामि) अखिलम् (ओजः) विद्यापराक्रमम् (बिभृथ) धरत तेन पुष्यत वा। अत्रान्येषामपि० इति दीर्घः। (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां तत्संबुद्धौ (असामि) पूर्णम् (धूतयः) ये धून्वन्ति ते (शवः) बलम् (ऋषिद्विषे) वेदवेदविदीश्वरविरोधिने दुष्टाय मनुष्याय (मरुतः) ऋत्विजः (परिमन्यवः) परितः सर्वतो मन्युः क्रोधो येषां वीराणां ते (इषुम्) वाणादिशस्त्रसमूहम् (न) इव (सृजत) प्रक्षिपत (द्विषम्) शत्रुम् ॥१०॥

    अन्वयः

    पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे धूतयः सुदानवो मरुत ऋत्विजो यूयं परिमन्यवो द्विषं शत्रुं प्रतीषुं शस्त्रसमूहं प्रक्षिपन्ति नर्षिद्विषेऽसाम्योजोऽसामिशवो बिभृथ ब्रह्मद्विषं शत्रुं प्रति शस्त्राणि सृजत प्रक्षिपत ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा धार्मिका जातक्रोधाः शूरवीराः शस्त्रप्रहारैः शत्रून् विजित्य निष्कंटकराज्यं प्राप्य प्रजाः सुखयन्ति। तथैव सर्वे मनुष्या वेदविद्याविद्वदीश्वरद्वेष्टॄन् प्रत्यखिलाभ्यां बलपराक्रमाभ्यां शस्त्राऽस्त्राणि प्रक्षिप्यैतान्विजित्य वेदविद्येश्वरप्रकाशयुक्तं राज्यं निष्पादयन्तु ॥१०॥ अत्र वायुविद्वद्गुणवर्णनात्पूर्वसूक्तार्थेन सहास्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इत्येकोनचत्वारिंशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (धूतयः) दुष्टों को कंपाने (सुदानवः) उत्तम दान स्वभाववाले (मरुतः) विद्वान् लोगो ! तुम (न) जैसे (परिमन्यवः) सब प्रकार क्रोधयुक्त शूरवीर मनुष्य (द्विषम्) शत्रु के प्रति (इषुम्) बाण आदि शस्त्र समूहों को छोड़ते हैं वैसे (ऋषिद्विषे) वेद वेदों को जाननेवाले और ईश्वर के विरोधी दुष्ट मनुष्यों के लिये (असामि) अखिल (ओजः) विद्या पराक्रम (असामि) संपूर्ण (शवः) बल को (बिभृथ) धारण करो और उस शत्रु के प्रति शस्त्र वा अस्त्रों को (सृजत) छोड़ो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे धार्मिक शूरवीर मनुष्य क्रोध को उत्पन्न शस्त्रों के प्रहारों से शत्रुओं को जीत निष्कंटक राज्य को प्राप्त होकर प्रजा को सुखी करते हैं वैसे ही सब मनुष्य वेद विद्वान् वा ईश्वर के विरोधियों के प्रति सम्पूर्ण बल पराक्रमों से शस्त्र अस्त्रों को छोड़ उन को जीतकर ईश्वर वेद विद्या और विद्वान् युक्त राज्य को संपादन करें ॥१०॥ इस सूक्त में वायु और विद्वानों के गुण वर्णन करने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये। यह उनतालीसवां सूक्त और उन्नीसवां वर्ग समाप्त हुआ ॥३९॥१९॥

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    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे धूतयः सुदानवः मरुत ऋत्विजः यूयं परिमन्यवः द्विषं शत्रुं प्रति इषुं शस्त्रसमूहं प्रक्षिपन्ति न ऋषिद्विषे असामि ओजः असामि शवः बिभृथ ब्रह्म द्विषं शत्रुं प्रति शस्त्राणि सृजत प्रक्षिपत ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (धूतयः) ये धून्वन्ति ते=जो [दुष्टों को] कंपानेवाले हैं, (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां तत्संबुद्धौ=जिनके शोभनीय दान हैं, (मरुतः) ऋत्विजः=ऐसे ऋत्विज, (यूयम्)=तुम सब, (परिमन्यवः) परितः सर्वतो मन्युः क्रोधो येषां वीराणां ते=जिनका क्रोध हर ओर है, ऐसे वीर वे,  (द्विषम्) शत्रुम्=शत्रुओं के,  (प्रति)=ओर, (इषुम्) वाणादिशस्त्रसमूहम्=वाण आदि, (शस्त्रसमूहम्)=शस्त्रों के समूह को,   (प्रक्षिपन्ति)=तेजी से फेंकते हैं, (न) इव=जैसे, (ऋषिद्विषे) वेदवेदविदीश्वरविरोधिने दुष्टाय मनुष्याय=वेद और वेदों के ज्ञाता,  ईश्वर के विरोधी दुष्ट मनुष्यों के लिये,  (असामि) अखिलम्=समस्त,  (ओजः) विद्यापराक्रमम्=विद्या, पराक्रम और (असामि) पूर्णम्=पूर्ण, (शवः) बलम्=बल, (बिभृथ) धरत तेन पुष्यत वा=धारण करता है और पनपता है।  (ब्रह्म)=ईश्वर के, (द्विषम्) शत्रुम् शत्रुम्=प्रत्येक शत्रु के, (प्रति)=की ओर,  (शस्त्राणि)=शस्त्रों को,  (सृजत) प्रक्षिपत=फेंको॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे धार्मिक शूरवीर मनुष्य क्रोध को उत्पन्न शस्त्रों के प्रहारों से शत्रुओं को जीत निष्कंटक राज्य को प्राप्त होकर प्रजा को सुखी करते हैं वैसे ही सब मनुष्य वेद विद्वान् वा ईश्वर के विरोधियों के प्रति सम्पूर्ण बल पराक्रमों से शस्त्र अस्त्रों को छोड़ उन को जीतकर ईश्वर वेद विद्या और विद्वान् युक्त राज्य को संपादन करें ॥१०॥ 

    विशेष

    सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद - इस सूक्त में वायु और विद्वानों के गुण वर्णन करने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये। ॥३९॥
    अनुवादक की टिप्पणी- ऋत्विज्-स्तुतियों को गति प्रदान करनेवाले और समय पर उपस्थित होकर देवताओं के लिये या ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले को ऋत्विज् कहते हैं।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (धूतयः) जो [दुष्टों को] कंपानेवाले है [और] (सुदानवः) जिनके शोभनीय दान हैं, (मरुतः) ऐसे ऋत्विज (यूयम्) तुम सब (परिमन्यवः) जिनका क्रोध हर ओर है, ऐसे वीर  (द्विषम्) शत्रुओं की  (प्रति) ओर (इषुम्) वाण आदि (शस्त्रसमूहम्) शस्त्रों के समूह पर   (प्रक्षिपन्ति) तेजी से फेंकते हैं। (न) जैसे (ऋषिद्विषे) वेदों के ज्ञाता,  ईश्वर के विरोधी दुष्ट मनुष्यों के लिये  (असामि) समस्त  (ओजः) विद्या, पराक्रम और (असामि) पूर्ण (शवः) बल (बिभृथ) धारण करते हैं और पनपते हैं।  (ब्रह्म) ईश्वर के (द्विषम्) प्रत्येक शत्रु की (प्रति) ओर  (शस्त्राणि) शस्त्रों को  (सृजत) फेंको॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (असामि) अखिलम् (ओजः) विद्यापराक्रमम् (बिभृथ) धरत तेन पुष्यत वा। अत्रान्येषामपि० इति दीर्घः। (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां तत्संबुद्धौ (असामि) पूर्णम् (धूतयः) ये धून्वन्ति ते (शवः) बलम् (ऋषिद्विषे) वेदवेदविदीश्वरविरोधिने दुष्टाय मनुष्याय (मरुतः) ऋत्विजः (परिमन्यवः) परितः सर्वतो मन्युः क्रोधो येषां वीराणां ते (इषुम्) वाणादिशस्त्रसमूहम् (न) इव (सृजत) प्रक्षिपत (द्विषम्) शत्रुम् ॥१०॥ 
    विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे धूतयः सुदानवो मरुत ऋत्विजो यूयं परिमन्यवो द्विषं शत्रुं प्रतीषुं शस्त्रसमूहं प्रक्षिपन्ति नर्षिद्विषेऽसाम्योजोऽसामिशवो बिभृथ ब्रह्मद्विषं शत्रुं प्रति शस्त्राणि सृजत प्रक्षिपत ॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा धार्मिका जातक्रोधाः शूरवीराः शस्त्रप्रहारैः शत्रून् विजित्य निष्कंटकराज्यं प्राप्य प्रजाः सुखयन्ति। तथैव सर्वे मनुष्या वेदविद्याविद्वदीश्वरद्वेष्टॄन् प्रत्यखिलाभ्यां बलपराक्रमाभ्यां शस्त्राऽस्त्राणि प्रक्षिप्यैतान्विजित्य वेदविद्येश्वरप्रकाशयुक्तं राज्यं निष्पादयन्तु ॥१०॥ 

    सूक्तस्य भावार्थः- अत्र वायुविद्वद्गुणवर्णनात्पूर्वसूक्तार्थेन सहास्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इत्येकोनचत्वारिंशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥१०॥

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    विषय

    ऋषिद्विद् परिमन्यु का निराकरण

    पदार्थ

    १. हे (सुदानवः) - उत्तमता से शत्रुओं का खण्डन करनेवाले [दाप् लवणे] वीरो ! अथवा देश - रक्षण के लिए प्राणों को भी दे डालनेवाले [दा दाने] वीरो ! (असामि ओजः) - पूर्ण बल को (बिभृथा) - आप धारण कीजिए । इस पूर्ण बल से ही तो आप शत्रुओं का खण्डन करके देश - रक्षण कर सकेंगे । बल की न्यूनता में आपके लिए अपने कर्तव्य - पालन का सम्भव ही कैसे हो सकता है ? हे (धूतयः) - शत्रुओं को कम्पित करनेवाले वीरो ! सचमुच (असामि) - पूर्ण ही (शवः) - [बलनाम नि० २/९] बल को धारण करो । अधूरा बल राष्ट्र - रक्षण के कार्य में भी अधूरेपन का कारण बनेगा । 
    २. हे (मरुतः) - वीर सैनिको ! (ऋषिद्विषे) - ज्ञानियों के प्रति द्वेष करनेवाले (परिमन्यवे) - समन्तात् क्रोध से भरे पुरुष के प्रति आप (द्विषम्) - [द्वेषणं द्विट्] अपने द्वेष व अप्रीति को इस प्रकार (सृजत्) - उत्पन्न करो (नः) - जैसे (इषुम्) - शत्रु के प्रति बाण को फेंकते हैं । राष्ट्र का अधिक - से - अधिक अहित इन्हीं ज्ञान के विरोधी, क्रोधी पुरुषों से ही हुआ करता है । इनको राष्ट्र से दूर करना ही राजपुरुषों का कर्तव्य है । इनके समाप्त होने पर ही राष्ट्र में ज्ञान व प्रेम की वृद्धि होती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सैनिक पूर्ण वीरतावाले हों, तभी वे राष्ट्र का रक्षण कर सकेंगे और ज्ञानविरोधी, क्रोधी पुरुषों को राष्ट्र से दूर करनेवाले होंगे । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ इस रूप में हुआ है कि राष्ट्र के वीर सैनिक आवश्यक होने पर, प्रभु - स्मरणपूर्वक संग्राम में जुटते हैं [१] । ये शत्रुओं को परे धकेलने व रोकने के लिए यत्नशील होते हैं [२] । आक्रमण के समय मार्ग में आये हुए वनों का छेदन व पर्वतों का विदारण करते हुए आगे बढ़ते हैं [३] । आपस में ऐकमत्य होने के कारण ये शत्रुओं का धर्षण करते हैं [४] । शत्रुओं को जीतकर प्रजा को जीवन में पूर्णता लाने का अवसर प्राप्त कराते हैं [५] । 'प्रगतिशील, ज्ञानरुचि' व्यक्ति इन सेनाओं का मुखिया व राजा होता है [६] । राष्ट्र - रक्षा के द्वारा ये सैनिक सुख - समृद्धि की वृद्धि का कारण होते हैं [७] । इन्हें कभी - कभी उच्छृङ्खल राजा का भी दमन करना होता है [८] । वस्तुतः 'क्षत्र' 'ब्रह्म' का रक्षक है [९] । ये राष्ट्र से ऋषिद्विट् क्रोधी पुरुषों का निराकरण करते हैं [१०] । इस सुरक्षित राष्ट्र में लोग उन्नति के लिए यत्नशील होते हैं, इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है - 
     

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    विषय

    ‘पृषतीः’ का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे (सुदानवः) उत्तम रीति से रक्षा और शत्रु का खंडन करनेवाले (मरुतः) वीर पुरुषो! विद्वान् जनो! आप लोग (असामि) पूर्ण (ओजः) पराक्रम, बल और ब्रह्मचर्य को (बिभृथ) धारण करो। हे (धूतयः) शत्रुओं को कम्पा देने वाले वीर पुरुषो और काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, प्रमाद आदि व्यसनों को कंपाकर त्याग देने हारे ज्ञानी पुरुषो! आप लोग (असामि) पूरा (शवः) बल और ज्ञान (बिमृथ) धारण करो। (द्विषं) द्वेषी शत्रु के ऊपर वीर पुरुष (परिमन्यवः) अति क्रुद्ध होकर (इषुं न) जिस प्रकार बाण फेंकते हैं उसी प्रकार आप लोग भी (परिमन्यवः) पूर्ण ज्ञानी होकर (ऋषिद्विषे) वेद के विद्वान् और ईश्वर तथा सत् तर्कों और प्राणियों के प्राणों के प्रति द्वेष करने वाले नास्तिक कुतार्किक और हिंसक पुरुष को दूर करने के लिए (इषुं) शस्त्रादि के समान अपनी प्रबल इच्छा शक्ति को (सृजत) उत्पन्न करो। इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी धार्मिक शूरवीर माणसे क्रोधाने शस्त्रांचा प्रहार करून शत्रूंना जिंकतात व राज्य निष्कंटक करून प्रजेला सुखी करतात तसेच सर्व माणसांनी वेदविद्वानाच्या व ईश्वराच्या विरोधकांना संपूर्ण बल पराक्रमांनी अस्त्र-शस्त्रांनी जिंकून ईश्वर, वेदविद्या व विद्वानयुक्त राज्य संपादन करावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Heroes of the world powerful as the winds, movers and shakers of evil, overflowing with love and charity, wield power and splendour whole and complete, undisturbed strength and valour, and just as men of righteous passion shoot the arrows at the enemy, so shoot at the enemy of the seer and his vision of knowledge and reality.

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    Subject of the mantra

    Then, what should they do, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhūtayaḥ)=those make tremble, [duṣṭoṃ ko]= to the wicked, [aura]=and, (sudānavaḥ)=who have beautiful donations, (marutaḥ)=such ṛtvija, (yūyam)=all of you, (parimanyavaḥ)=whose anger is from everywhere, such a heros, (dviṣam)=of enemies, (prati)=towards, (iṣum)=arrows etc., (śastrasamūham)=on the group of enemies, (prakṣipanti)=throw fast, (na)=like, (ṛṣidviṣe)=knower of the Vedas, for evil men who are against God (asāmi)=all, (ojaḥ)=wisdom, might and, (asāmi) =full, (śavaḥ)=power, (bibhṛtha)=embrace and thrive. (brahma)=of God, (dviṣam) =of every enemy, (prati) =against, (śastrāṇi)=to enemies, (sṛjata)=throw.

    English Translation (K.K.V.)

    O One who shakes the wicked and who has admirable donations! All of you like ṛtvija, whose anger is everywhere, such heroes throw weapons like arrows et cetera against the group of enemies fast. As the knower of the Vedas, for the evil men who are against God, possess all knowledge, valour and perfect strength and flourish. Throw weapons at every enemy of God.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Before describing the qualities of air and scholars in this hymn, the association of the translation of this hymn with the translation of the previous hymn should be known.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile in this mantra. Just as righteous valiant men create anger and make their subjects happy by striking them with weapons and attaining the kingdom without any doubt. In the same way, all human beings who are learned in Vedas and like God; by throwing weapons against the opponents with all their strength and might, conquering them. May God establish a kingdom full of knowledge of Vedas and scholars.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The term ṛtvija has been explained in the mantra Rigveda 01.39.08.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What again should they (Maruts) do is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O bounteous givers, you carry whole strength of knowledge, whole or un-diminished power, ye shakers of the world. O brave learned persons, let loose your indignation and your powerful weapons against wicked persons who hate the seers and are opposed to Vedas, Vedic scholars and believers in God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ओज:) विद्यापराक्रमम् = The strength of knowledge. (ऋषिद्विषे) वेदवेदविदीश्वरविरोधिने दुष्टाय मनुष्याय = For the wicked person who is opposed to and is hater of the Vedas, Vedic Scholars and God Himself. ( मरुतः) ऋत्विज: = Learned priests.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As righteous brave people when full of indignation conquer their enemies with powerful weapons and gladden their subjects (people) having attained resistless Government, in the same manner, all persons should conquer with all their might (spiritual as well as physical when necessary), those who are haters of the true knowledge (Vedas) God and Vedic Scholars and should thus make their Rajya (State) full of the light of God and the true Vedic knowledge.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Prof. Max Muller to translate the expression ऋषि द्विषे as "Wrathful enemy of the poets." Rishi does not mean poet but a seer or sage-a truly wise man. Here ends the commentary of the 39th hymn and 19th Verga of the 1st Mandala of the Rigveda.

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