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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यु॒ष्मेषि॑तो मरुतो॒ मर्त्ये॑षित॒ आ यो नो॒ अभ्व॒ ईष॑ते । वि तं यु॑योत॒ शव॑सा॒ व्योज॑सा॒ वि यु॒ष्माका॑भिरू॒तिभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ष्माऽइ॑षि॑तः । म॒रु॒तः॒ । मर्त्य॑ऽइषितः । आ । यः । नः॒ । अभ्वः॑ । ईष॑ते । वि । तम् । यु॒यो॒त॒ । शव॑सा । वि । ओज॑सा । वि । यु॒ष्माका॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते । वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युष्माइषितः । मरुतः । मर्त्यइषितः । आ । यः । नः । अभ्वः । ईषते । वि । तम् । युयोत । शवसा । वि । ओजसा । वि । युष्माकाभिः । ऊतिभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (युष्मेषितः) यो युष्माभिर्जेतुमिषितः सः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति दकारलोपः। इमं सुगमपक्षं विहाय सायणाचार्येण प्रत्ययलक्षणादिकोलाहलः कृतः (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ् नामसु पठितम्। निघं० ३।१८। (मर्त्येषितः) मर्त्यैः सेनास्थैरितरैश्चेषितो विजयः (आ) समन्तात् यः शत्रुः (नः) अस्मान् (अभ्वः) यो विरोधी मित्रो न भवति सः (ईषते) हिनस्ति (वि) विगतार्थे (तम्) शत्रुम् (युयोत) पृथक् कुरुत। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। तप्तनप्तन० इति तबादेशः। (शवसा) बलयुक्तसैन्येन (वि) विविधार्थे (ओजसा) पराक्रमेण (वि) विशिष्टार्थे (युष्माकाभिः) युस्माभिरनुकंपिताभिः सेनाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशयुक्ताभिः ॥८॥

    अन्वयः

    पुनः युष्माभिस्तेभ्यः किं साधनीयमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मरुतो ! यूयं योऽभ्वो युष्मेषितो मर्त्येषितः शत्रुर्नोस्मानीषते तं शवसा व्योजसा युष्माकाभिरूतिभिर्वियुयोत ॥८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्ये स्वार्थिनः परोपकारविरहाः परपीडारता अरयः सन्ति तान् विद्याशिक्षाभ्यां दुष्कर्मभ्यो निवर्त्याऽथवा परमे सेनाबले संपाद्य युद्धेन विजित्य निवार्य सर्वहितं सुखं विस्तारणीयम् ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर तुमको उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) विद्वानों ! तुम (यः) जो (अभ्वः) विरोधी मित्र भाव रहित (युष्मेषितः) तुम लोगों को जीतने और (मर्त्येषितः) मनुष्यों से विजय की इच्छा करनेवाला शत्रु (नः) हम लोगों को (ईषते) मारता है उसको (शवसा) बलयुक्त सेना वा (व्योजसा) अनेक प्रकार के पराक्रम और (युष्माकाभिः) तुम्हारी कृपापात्र (ऊतिभिः) रक्षा प्रीति तृप्ति ज्ञान आदिकों से युक्त सेनाओं से (वियुयोत) विशेषता से दूर कर दीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि जो स्वार्थी परोपकार से रहित दूसरे को पीड़ा देने में अत्यन्त प्रसन्न शत्रु हैं उनको विद्या वा शिक्षा के द्वारा खोटे कर्मों से निवृत्त कर वा उत्तम सेना बल को संपादन युद्ध से जीत निवारण करके सबके हित का विस्तार करना चाहिये ॥८॥

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    विषय

    फिर तुमको उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मरुतः ! यूयं यःअभ्वः युष्मेषितः मर्त्येषितः शत्रुः नःअस्मान् ईषते तं शवसा वि ओजसा युष्माकाभिः ऊतिभिः वियुयोत ॥८॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) ऋत्विजः=ऋत्विज !  (यूयम्)=तुम सब,  (यः)=जो, (अभ्वः) यो विरोधी मित्रो न भवति सः=जो विरोधी मित्र नहीं होता वह, (युष्मेषितः) यो युष्माभिर्जेतुमिषितः सः=जो तुम लोगों को जीतने की कामना करता है, (मर्त्येषितः) मर्त्यैः सेनास्थैरितरैश्चेषितो विजयः=और मनुष्यों की सेना को मारकर विजयी होने की इच्छा करनेवाला है ,  (शत्रुः)=शत्रु, (नः) अस्मान्=हमें, (ईषते) हिनस्ति=मारता है, (तम्) शत्रुम्=उस शत्रु को, (शवसा) बलयुक्तसैन्येन=बलयुक्त सेना के द्वारा, (वि) विगतार्थे- हिनस्ति=मारता है,  (ओजसा)=बल से, (युष्माकाभिः) युस्माभिरनुकंपिताभिः सेनाभिः=तुम्हारे द्वारा दया दिखाई गई सेना द्वारा, (ऊतिभिः) रक्षाप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशयुक्ताभिः=रक्षा, प्रीति, तृप्ति और ज्ञान में प्रवेश करनेवालों के द्वारा (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से,  (युयोत) पृथक् कुरुत= पृथक् करो॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को उचित है कि जो स्वार्थी परोपकार से रहित दूसरे को पीड़ा देने में अत्यन्त प्रसन्न शत्रु हैं उनको विद्या वा शिक्षा के द्वारा खोटे कर्मों से निवृत्त कर वा उत्तम सेना बल को संपादन युद्ध से जीत निवारण करके सबके हित का विस्तार करना चाहिये ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मरुतः) ऋत्विज !  (यूयम्) तुम सब  (यः) जो (अभ्वः) विरोधी मित्र नहीं होता है, वह (युष्मेषितः) जो तुम लोगों को जीतने की कामना करता है, (मर्त्येषितः) और मनुष्यों की सेना को मारकर विजयी होने की इच्छा करनेवाला है।  (शत्रुः) [जो] शत्रु (नः) हमें (ईषते) मारता है, (तम्) उस शत्रु को (शवसा) बलयुक्त सेना के द्वारा (वि) मारता है।  (ओजसा) बल से (युष्माकाभिः) तुम्हारे द्वारा दया दिखाई गई सेना के द्वारा (ऊतिभिः) और रक्षा, प्रीति, तृप्ति और ज्ञान में प्रवेश करनेवालों के द्वारा (वि) विविध प्रकार से  (युयोत) पृथक्-पृथक् करो॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युष्मेषितः) यो युष्माभिर्जेतुमिषितः सः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति दकारलोपः। इमं सुगमपक्षं विहाय सायणाचार्येण प्रत्ययलक्षणादिकोलाहलः कृतः (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ् नामसु पठितम्। निघं० ३।१८। (मर्त्येषितः) मर्त्यैः सेनास्थैरितरैश्चेषितो विजयः (आ) समन्तात् यः शत्रुः (नः) अस्मान् (अभ्वः) यो विरोधी मित्रो न भवति सः (ईषते) हिनस्ति (वि) विगतार्थे (तम्) शत्रुम् (युयोत) पृथक् कुरुत। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। तप्तनप्तन० इति तबादेशः। (शवसा) बलयुक्तसैन्येन (वि) विविधार्थे (ओजसा) पराक्रमेण (वि) विशिष्टार्थे (युष्माकाभिः) युस्माभिरनुकंपिताभिः सेनाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशयुक्ताभिः ॥८॥
    विषयः- पुनः युष्माभिस्तेभ्यः किं साधनीयमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मरुतो ! यूयं योऽभ्वो युष्मेषितो मर्त्येषितः शत्रुर्नोस्मानीषते तं शवसा व्योजसा युष्माकाभिरूतिभिर्वियुयोत ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्ये स्वार्थिनः परोपकारविरहाः परपीडारता अरयः सन्ति तान् विद्याशिक्षाभ्यां दुष्कर्मभ्यो निवर्त्याऽथवा परमे सेनाबले संपाद्य युद्धेन विजित्य निवार्य सर्वहितं सुखं विस्तारणीयम् ॥८॥

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    विषय

    सैनिक शासन व राज - परिवर्तन

    पदार्थ

    १. राष्ट्र में ऐसा भी हो सकता है कि कभी कोई उच्छृङ्खल राजा अपने सैनिकों के बल के घमण्ड से प्रजा पर कुछ अत्याचार करने लगे अथवा अपने कुछ खुशामदी पुरुषों से विकृत प्रेरणा प्राप्त करके प्रजा को अनुचित कर - भार से पीड़ित करे, ऐसा राजा मन्त्र में 'युष्मेषितः तथा मर्त्येषितः' शब्दों से स्मरण किया गया है । 'इषितः ' का अर्थ [animated, exited] 'उत्तेजित किया गया' है । मन्त्र में कहते हैं कि हे (मरुतः) - प्रजा के रक्षण के लिए रणाङ्गण में मृत्यु का आलिंगन करनेवाले वीरो ! (युष्मेषितः) - तुम्हारे द्वारा प्रेरित हुआ - हुआ, अर्थात् तुम्हारे बल के कारण अत्याचार के लिए उत्तेजित हुआ - हुआ अथवा (मर्त्येषितः) - खुशामदी पुरुषों से भड़काया हुआ (यः) - जो कोई (अभ्वः) - [Mighty] शक्तिशाली प्रजा का शत्रुभूत राजा (नः) - हम प्रजाओं पर (आ ईषते) - सब ओर से आक्रमण करता है (तम्) - उसको (शवसा) - [शवः उदकनाम, नि० १/१२] पानी से (वियुयोत) - पृथक् कर दीजिए, उसे पानी न मिल सके । पानी की प्यास से व्याकुल होकर वह अपनी उद्दण्डता को समाप्त करने के लिए बाधित होगा ही । सायणाचार्य 'शवसा' का अर्थ 'अन्नेन' करते हैं, उसे अन्न न पहुँच सके । राजमहल को इस प्रकार घेर लिया जाए कि वहाँ अन्नादि पहुँचना सम्भव ही न रहे । इस राजा को (ओजसा) - ओज व बल से 
    (वि) - पृथक् करो । इसकी शक्ति को न्यून करने का प्रयत्न करो तथा (युष्माकाभिः, ऊतिभिः) - अपने रक्षणों से (वि) - इसे वंचित कर दो । जब इस प्रजापीड़क राजा को सैनिकों का रक्षण प्राप्त न होगा तो यह अवश्य ही प्रजा के अनुकूल शासन करने के लिए बाधित होगा अथवा गद्दी को छोड़ने के लिए बाधित किया जा सकेगा । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सैनिकों को चाहिए कि सेना के घमण्ड पर या खुशामदियों के कुमन्त्रण के कारण यदि कोई राजा उच्छृङ्खल होकर प्रजापीड़न में प्रवृत्त हो तो उसे अन्न व जल से वंचित करके, निर्बल करके व सैन्य रक्षणों से वंचित करके ठीक मार्ग पर लाने का प्रयत्न करें । 
     

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    विषय

    ‘पृषतीः’ का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो और वीर सैनिको! (यः) जो (अभ्वः) शक्तिमान् न होकर, निर्बल या सुहृद् भाव से न रहने वाला शत्रु (युष्मेषितः) आप लोगों को विजय करना अभीष्ट है और (मर्त्येषितः) साधारण मनुष्य भी जिसे जीतना चाहते हैं, वह यदि (नः) हमें (ईषते) मारे तो (तम्) उसको (शवसा) अपने बल से और (ओजसा) पराक्रम से और (युष्माकाभिः) अपनी (ऊतिभिः) चढ़ाइयों या, रक्षा प्रेम, तृप्ति, आक्रमण आदि करने वाली सेनाओं से (वि युयोत) हमसे दूर रखो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्वार्थी व परोपकाररहित, दुसऱ्याला त्रास देताना प्रसन्न होणारे लोक शत्रू असतात. हे माणसांनी जाणावे. त्यांना विद्या व शिक्षणाद्वारे खोट्या कर्मापासून निवृत्त करावे. उत्तम सेना बल संपादन करून युद्धात जिंकून त्यांचे निवारण करावे व सर्वांच्या हिताचा विस्तार करावा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, veterans of knowledge and heroes of might and right, if the monstrous enemy whom you would wish to subdue and whom the people wish to suppress attacks us, then with your valour and splendour and with your means of protection and promotion for us, ward him off.

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    Subject of the mantra

    Then, what should you accomplish by them, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (marutaḥ)=ṛtvija! (yūyam)=all of you, (yaḥ)=those, (abhvaḥ)=an opponent, who is not a friend, he, (yuṣmeṣitaḥ)=who wishes to win over you, (martyeṣitaḥ)=and one who desires to be victorious by killing the army of humans, [jo]=which (śatruḥ)=enemy, (naḥ)=to us,(īṣate)=kills, (tam)=to that enemy, (śavasā)=by powerful force, (vi)=kills, (ojasā)=by force, (yuṣmākābhiḥ)=mercy shown by you by the army, (ūtibhiḥ)=and by those who enter into protection, love, fulfillment and knowledge, (vi)=in a variety of ways, (yuyota)=divide.

    English Translation (K.K.V.)

    O ṛtvija! The opponent who is not your friend, is the one who wishes to conquer you and wishes to be victorious by killing the human army. The enemy who kills us, kills that enemy with a strong army. Divide in various ways by the army shown mercy by you, by force and by those who enter into protection, love, satisfaction and knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is appropriate for humans that those enemies who are very happy in causing pain to others without selfish charity, by stopping them from wrong deeds by knowledge or education or by using the best army force, by winning the war and by preventing them, it is in the interest of all and should be expanded.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The one who gives, enhances the praises and is present on time for performing sacrifices or one who performs yajan in every season is called ṛtvija.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What more should you accomplish with their help and co-operation is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave learned people, whatever adversary whom you and other persons of the army desire to overcome, attacks us, deprive him of power, by your strong army, by your own might and by your defending forces endowed with protection, love and knowledge etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मरुतः ) ऋत्विजः मरुत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम् ( निघ० ३.१८ ) = Priests and other learned persons. (ईषते) हिनस्ति = Attacks or assails. (अभ्वः) यो विरोधी, मित्रो न भवति सः = Adversary, not friendly. (ऊतिभिः) रक्षाप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशयुक्ताभिः सेनाभिः = Forces endowed with protection, love and knowledge etc. (वियुयोत) पृथक् कुरुत = Remove, deprive.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should extend happiness which brings about welfare to all, by making them refrain from evil selfish enemies who have no idea of doing good to others, but on the contrary who give them trouble, by imparting them good knowledge and education or conquering them in battles with the help of army and power.

    Translator's Notes

    ईषते is from ईष-गतिहिंसादर्शनेषु Here the second meaning of the Verb हिंसा has been taken by Rishi Dayananda and has been interpreted as हिनस्ति Attacks or assails. यु-मिश्रणा मिश्रणयोः Here it is in the sense of अमिश्रण removing or depriving of power. " Prof. Maxmuller's translation of the Mantra as “Whatever fiend, roused by you or roused by men, attacks us, deprive him of power, of strength, and of your favors," is not correct as it is absurd to say that the Maruts (learned priests or other good brave people) rouse the fiends or wicked persons.

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