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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑ । यु॒ष्माक॑मस्तु॒ तवि॑षी॒ पनी॑यसी॒ मा मर्त्य॑स्य मा॒यिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्थि॒रा । वः॒ । स॒न्तु॒ । आयु॑धा । प॒रा॒ऽनुदे॑ । वी॒ळु । उ॒त । प्र॒ति॒ऽस्कभे॑ । यु॒ष्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । तवि॑षी । पनी॑यसी । मा । मर्त्य॑स्य । मा॒यिनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे । युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्थिरा । वः । सन्तु । आयुधा । परानुदे । वीळु । उत । प्रतिस्कभे । युष्माकम् । अस्तु । तविषी । पनीयसी । मा । मर्त्यस्य । मायिनः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (स्थिरा) स्थिराणि चिरं स्थातुमर्हाणि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि इति लोपः। (वः) युष्माकम् (सन्तु) भवन्तु (आयुधा) आयुधान्याग्नेयानि धनुर्वाणभुसुंडीशतघ्न्यादीन्यस्त्रशस्त्राणि (पराणुदे) परान्नुदन्ति शत्रून्यस्मिन्युद्धे तस्मै। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। (वीळू) वीडूनि दृढानि बलकारीणि। अत्र ईषाअक्षादित्वात्प्रकृतिभावः। (उत) अप्येव (प्रतिष्कमे) प्रतिष्कंभते प्रतिबध्नाति शत्रून्येन कर्मणा तस्मै। अत्र सौत्रात् स्कम्भुधातोः पूर्ववत् क्विप्। (युष्माकम्) धार्मिकाणां वीराणाम् (अस्तु) भवतु (तविषी) प्रशस्तबलविद्यायुक्ता सेना। तवेर्णिद्वा। उ० १।४९। अनेन टिषच् प्रत्ययो णिद्वा। तविषीति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (पनीयसी) अतिशयेन स्तोतुमर्हा व्यवहारसाधिका (मा) निषेधार्थे (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (मायिनः) कपटधर्माचरणयुक्तस्य। माया कुत्सिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्य। अत्र निंदार्थ इनिः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम् निघं० ३।९। ॥२॥

    अन्वयः

    अथैतेभ्य उपदिश्याऽशीर्दत्वा युष्माभिः किं किं साधनीय मित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे धार्मिकमनुष्या व आयुधा शत्रूणां पराणुद उत प्रतिष्कभे स्थिरावीळू सन्तु। युष्माकं तविषी सेना पनीयस्यन्तु मायिनो मर्त्यस्य मा सन्तु ॥२॥

    भावार्थः

    धार्मिका मनुष्या एवेश्वरानुग्रहविजयौ प्राप्नुवन्ति ईश्वरोपि धर्मात्मभ्य एवाशीर्ददाति नेतरेभ्यः एतैः प्रशस्तानि शस्त्रास्त्राणि रचयित्वा तत्प्रक्षेपाभ्यासं कृत्वा प्रशस्तां सेना शिक्षित्वा दुष्टानां शत्रूणां बधनिरोधपराजयान्कृत्वा न्यायेन नित्यं प्रजारक्ष्या नेदं मायावी प्राप्तुं कर्त्तुं शक्नोति ॥२॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    अब ईश्वर इनको उपदेश और आशीर्वाद देकर सबसे कहता है, कि तुमको क्या-२ सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे धार्मिक मनुष्यो ! (वः) तुम्हारे (आयुधा) आग्नेय आदि अस्त्र और तलवार, धनुष् बाण, भुसुंडी (बन्दूक) शतघ्नी (तोप) आदि शस्त्र अस्त्र (पराणुदे) शत्रुओं को व्यथा करनेवाले युद्ध (उत) और (प्रतिष्कमे) रोकने बांधने और मारने रूप कर्मों के लिये (स्थिरा) स्थिर दृढ़ चिरस्थायी (वीळू) दृढ़ बड़े-२ उत्तम युक्त (तविषी) प्रशस्त सेना (पनीयसी) अतिशय करके स्तुति करने योग्य व व्यवहार को सिद्ध करनेवाली (अस्तु) हो और पूर्वोक्त पदार्थ (मायिनः) कपट आदि अधर्माचरण युक्त (मर्त्यस्य) दुष्ट मनुष्यों के (मा) कभी मत हों ॥२॥

    भावार्थ

    धार्मिक मनुष्य ही परमात्मा के कृपा पात्र होकर सदा विजय को प्राप्त होते हैं दुष्ट नहीं। परमात्मा भी धार्मिक मनुष्यों ही को आशीर्वाद देता है पापियों को नहीं। पुण्यात्मा मनुष्यों को उचित है कि उत्तम-२ शस्त्र-अस्त्र रचकर उनके फेंकने का अभ्यास करके सेना को उत्तम शिक्षा देकर शत्रुओं का निरोध वा पराजय करके न्याय से मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करनी चाहिये ॥२॥ सं० भा० के अनुसार इसके आगे इन शस्त्रादि पदार्थों को छली मनुष्य नहीं प्राप्त कर सक्ता इतना वाक्य और होना चाहिये। सं०

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    विषय

    अब ईश्वर इनको उपदेश और आशीर्वाद देकर सबसे कहता है, कि तुमको क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे धार्मिक मनुष्या वः आयुधा शत्रूणां पराणुद उत प्रतिष्कभे स्थिरा वीळू सन्तु। युष्माकं तविषी सेना पनीयसी अस्तु मायिनः मर्त्यस्य मा सन्तु ॥२॥

    पदार्थ

    हे (धार्मिक)=धार्मिक, (मनुष्या)=मनुष्यों, (वः) युष्माकम्=तुम्हारे, (आयुधा) आयुधान्याग्नेयानि धनुर्वाणभुसुंडीशतघ्न्यादीन्यस्त्रशस्त्राणि=आग्नेय आदि अस्त्र, तलवार, धनुष् बाण, बन्दूक [भुसुंडी]  और तोप[शतघ्नी]  आदि अस्त्र, (शत्रूणाम्)=शत्रुओं को, (पराणुदे) परान्नुदन्ति शत्रून्यस्मिन्युद्धे=जिस युद्ध में दूर भेज देते हैं,  (उत) अप्येव=ऐसे भी, (प्रतिष्कभे) प्रतिष्कंभते प्रतिबध्नाति शत्रून्येन कर्मणा तस्मै=रोकने बांधने और मारने रूप कर्मों के लिये, (स्थिरा) स्थिराणि चिरं स्थातुमर्हाणि=चिरस्थायी स्थिर होने योग्य, (वीळू) वीडूनि दृढानि बलकारीणि=दृढ़ बल से युक्त, (सन्तु) भवन्तु=हों, (युष्माकम्) धार्मिकाणां वीराणाम्=तुम धार्मिक वीरों की, (तविषी) प्रशस्तबलविद्यायुक्ता सेना=प्रशंसनीय बल और विद्या से युक्त सेना, (पनीयसी) अतिशयेन स्तोतुमर्हा व्यवहारसाधिका=अतिशय करके स्तुति करने योग्य व व्यवहार को सिद्ध करनेवाली, (अस्तु) भवतु=होवे,  (मायिनः) कपटधर्माचरणयुक्तस्य=कपटी और अधर्माचरण से युक्त, (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य=मनुष्य, [कभी] (मा) निषेधार्थे=न, (सन्तु) भवन्तु=होवें॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    धार्मिक मनुष्य ही परमात्मा के कृपा पात्र होकर सदा विजय को प्राप्त होते हैं दुष्ट नहीं। परमात्मा भी धार्मिक मनुष्यों ही को आशीर्वाद देता है पापियों को नहीं। पुण्यात्मा मनुष्यों को उचित है कि उत्तम- उत्तम शस्त्र-अस्त्र रचकर उनके फेंकने का अभ्यास करके सेना को उत्तम शिक्षा देकर शत्रुओं का निरोध वा पराजय करके न्याय से मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करनी चाहिये ॥२॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (धार्मिक) धार्मिक (मनुष्या) मनुष्यों! (वः) तुम्हारे (आयुधा) आग्नेय आदि अस्त्र, तलवार, धनुष् बाण, बन्दूक [भुसुंडी]  और तोप[शतघ्नी]  आदि अस्त्र (शत्रूणाम्) शत्रुओं को (पराणुदे) जिस युद्ध में दूर भेज देते हैं,  (उत) ऐसे भी (प्रतिष्कभे) रोकने, बांधने और मारने रूप कर्मों के लिये (स्थिरा) चिरस्थायी होने योग्य (वीळू) दृढ़ बल से युक्त (सन्तु) हों। (युष्माकम्) तुम धार्मिक वीरों की (तविषी) प्रशंसनीय बल और विद्या से युक्त सेना (पनीयसी) अत्यधिक स्तुति करने योग्य व व्यवहार को सिद्ध करनेवाली (अस्तु) होवे।  (मायिनः) कपटी और अधर्माचरण से युक्त (मर्त्यस्य) मनुष्य (मा) [कभी] न (सन्तु) होवें॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (स्थिरा) स्थिराणि चिरं स्थातुमर्हाणि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि इति लोपः। (वः) युष्माकम् (सन्तु) भवन्तु (आयुधा) आयुधान्याग्नेयानि धनुर्वाणभुसुंडीशतघ्न्यादीन्यस्त्रशस्त्राणि (पराणुदे) परान्नुदन्ति शत्रून्यस्मिन्युद्धे तस्मै। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। (वीळू) वीडूनि दृढानि बलकारीणि। अत्र ईषाअक्षादित्वात्प्रकृतिभावः। (उत) अप्येव (प्रतिष्कमे) प्रतिष्कंभते प्रतिबध्नाति शत्रून्येन कर्मणा तस्मै। अत्र सौत्रात् स्कम्भुधातोः पूर्ववत् क्विप्। (युष्माकम्) धार्मिकाणां वीराणाम् (अस्तु) भवतु (तविषी) प्रशस्तबलविद्यायुक्ता सेना। तवेर्णिद्वा। उ० १।४९। अनेन टिषच् प्रत्ययो णिद्वा। तविषीति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (पनीयसी) अतिशयेन स्तोतुमर्हा व्यवहारसाधिका (मा) निषेधार्थे (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (मायिनः) कपटधर्माचरणयुक्तस्य। माया कुत्सिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्य। अत्र निंदार्थ इनिः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम् निघं० ३।९। ॥२॥ 
    विषयः- अथैतेभ्य उपदिश्याऽशीर्दत्वा युष्माभिः किं किं साधनीय मित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे धार्मिकमनुष्या व आयुधा शत्रूणां पराणुद उत प्रतिष्कभे स्थिरावीळू सन्तु। युष्माकं तविषी सेना पनीयस्यस्तु मायिनो मर्त्यस्य मा सन्तु ॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- धार्मिका मनुष्या एवेश्वरानुग्रहविजयौ प्राप्नुवन्ति ईश्वरोपि धर्मात्मभ्य एवाशीर्ददाति नेतरेभ्यः एतैः प्रशस्तानि शस्त्रास्त्राणि रचयित्वा तत्प्रक्षेपाभ्यासं कृत्वा प्रशस्तां सेना शिक्षित्वा दुष्टानां शत्रूणां बधनिरोधपराजयान्कृत्वा न्यायेन नित्यं प्रजारक्ष्या नेदं मायावी प्राप्तुं कर्त्तुं शक्नोति ॥२॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    [परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति] ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि, हे जीवो! (व:) [युष्माकम्] तुम्हारे लिए (आयुधा) आयुध, अर्थात् शतघ्नी [तोप], भुशुण्डी [बन्दूक ], धनुष-बाण, करवाल [तलवार], शक्ति [बरछी] आदि शस्त्र (स्थिरा) स्थिर और (वीळू) दृढ़ हों । किस प्रयोजन के लिए? (पराणुदे) तुम्हारे शत्रुओं के पराजय के लिए, जिससे तुम्हारे दुष्ट शत्रु लोग तुम्हें कभी दुःख न दे सकें और (उत, प्रतिष्कभे) शत्रुओं के वेग को थामने के लिए (युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी) तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना सब संसार में प्रशंसित हो, जिससे तुमसे लड़ने को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो, परन्तु “मा मर्त्यस्य मायिनः " जो अन्यायकारी मनुष्य है, उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्य का बल और राज्यैश्वर्यादि कभी मत बढ़े, उसका पराजय ही सदा हो । [भक्त प्रार्थना करते हैं-] हे बन्धुवर्गो! आओ, अपने सब मिलके सर्वदुःखों का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करें, वह ईश्वर अपने को आशीर्वाद देवे, जिससे अपने शत्रु कभी न बढ़ें ॥ २२ ॥

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    विषय

    पराणुदे - प्रतिष्कभे [धकेलना - रोकना]

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत सूक्त भी मरुतों का है । इस सूक्त में मुख्यरूप से देश की शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा करनेवाले उन मरुतों का उल्लेख है जोकि रणाङ्गण में ही 'म्रियन्ते' मर जाएँ, परन्तु कायरता से भाग नहीं खड़े हों । इनको कहते हैं - हे (मरुतः) - सैनिको ! (यत्) - जब (इत्था) - सचमुच (परावतः) - दूर देश से (शोचिः न) - सूर्यकिरणों की भाँति (मानम्) - मननीय, विचारपूर्वक बनाये गये शस्त्रास्त्रसमूह को (प्र+अस्यथ) - प्रकर्षेण शत्रु - सैन्य पर फेंकते हो तो वस्तुतः (कस्य क्रत्वा) - उस आनन्दमय प्रभु के संकल्प कर्म व प्रज्ञान के साथ (कस्य वर्पसा) - उस आनन्दमय प्रभु के बल के साथ ही तुम ऐसा कर पाते हो, अर्थात् प्रभु का स्मरण होने पर तथा प्रभु की शक्ति से शक्ति - सम्पन्न होने पर ही निर्भीकता से ये वीर देशरक्षा के लिए संग्राम कर पाते हैं । 
    २. यहाँ युद्ध में प्रभुस्मरण का यह भी महान् लाभ है कि हम अन्याय्य युद्धों में प्रवृत्त न होंगे । यहाँ 'शोचिः न' सूर्य की किरणों के समान, यह उपमा भी ध्यान देने योग्य है । सूर्यकिरणें बुराई व दुर्गन्ध को समाप्त करती हैं, इसी प्रकार इन मरुतों ने भी अवाञ्छनीय तत्त्वों को ही समाप्त करना है । शस्त्रों को यहाँ 'मानम्' - 'मननीय - विचारपूर्वक बनाये गये' - ऐसा कहा है । वस्तुतः जब अस्त्रों का निर्माण अन्धाधुन्ध होने लगता है तब वे भय की - शान्ति के स्थान में भय की वृद्धि का कारण बन जाते हैं । 
    ३. ये विचारपूर्वक बनाये गये अस्त्रों को फेंकनेवाले सैनिक युद्ध में मृत्यु होने पर (कम्) - उस आनन्दमय प्रभु को (याथ) - प्राप्त होते हैं और (ह) - निश्चय से (कम्) - उस प्रभु को ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि (धूतयः) - ये शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हैं और अपने मलों को भी कम्पित कर दूर करनेवाले हैं । ये वीर अवश्य उस प्रभु को पाते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - देश की रक्षा के लिए वीर सैनिक विचारपूर्वक अस्त्रों का प्रयोग करते हैं । प्रभु की भावना को हृदय में लेकर प्रभु की शक्ति से शक्ति - सम्पन्न होकर ये शत्रुओं को कम्पित करते हैं और प्रभु को पाते हैं । 
     

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    विषय

    हमारे अस्त्र-शस्त्र

    शब्दार्थ

    हे वीर सैनिको ! (प्रतिष्कभे पराणुदे) युद्ध में शत्रुओं को रोकने और उन्हें मार भगाने के लिए (व:) आप लोगों के (आयुधा) युद्ध करने के हथियार, अस्त्र-शस्त्र (स्थिरा: उत वीळू सन्तु) स्थिर और दृढ़ हों । हे वीर पुरुषो ! (युष्माकम्) तुम लोगों की (तविषी) बलवती सेना (पनीयसी) अत्यन्त व्यवहार कुशल एवं प्रशंसनीय हो; परन्तु (मायिन: मर्त्यस्य मा) जो मायावी शत्रु हैं, छल-कपट से युद्ध करनेवाले है उनके अस्त्र-शस्त्र वैसे दृढ़ और उनकी सेना वैसी प्रशंसनीय न हो ।

    भावार्थ

    देश की रक्षा का भार सैनिकों पर होता है परन्तु सैनिक देश की रक्षा उसी दशा में कर सकते हैं जब उनके अस्त्र-शस्त्र दृढ़ और तीक्ष्ण हों । कोई भी देश किसी भी समय किसी भी देश पर आक्रमण कर सकता है ; अत: राष्ट्र-रक्षा के लिए सैनिक सदैव उद्यत रहने चाहिएँ, उनके पास तीक्ष्ण, दृढ़ अस्त्र-शस्त्रों की कमी नहीं होनी चाहिए । सेना भी अत्यन्त बलवान्, व्यवहारकुशल और प्रशंसनीय होनी चाहिए । जो मायावी हैं, छल-कपट से युद्ध करनेवाले हैं, शत्रु हैं, उनके अस्त्र-शस्त्र स्थिर और दृढ़ नहीं होने चाहिएँ । उनकी सेना भी बलवान् नहीं होनी चाहिए - देश के सैनिकों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए । तीक्ष्ण, दृढ़ एवं स्थिर अस्त्र-शस्त्रों से संग्राम में विजय प्राप्त की जा सकती है। अतः इस सम्बन्ध में सदा सावधान रहना चाहिए ।

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    विषय

    मरुद् गण, वायुओं, प्राणों, विद्वानों का समान रूप से वर्णन ।

    भावार्थ

    हे वीर पुरुषो! (वः) आप लोगों के (आयुधा) युद्ध करने के हथियार, आग्नेय, वायव्य आदि अस्त्र शस्त्र (पराणुदे) शत्रुओं को दूर हटा देने वाले संग्राम के निमित्त (स्थिरा) स्थिर हों और (प्रतिष्कभे) शत्रुओं को रोकने और मुकाबले पर डट जाने के लिए वे हथियार (वीळू) बलवान्, दृढ़, मज़बूत (सन्तु) हों। हे वीर पुरुषो! (युष्माकम्) तुम लोगों की (तविषी) बलवती सेना (पनीयसी) अति व्यवहारकुशल, प्रशंसनीय (अस्तु) हो। (मायिनः) कुटिल, मायावी (मर्त्यस्य) मनुष्य के (मा) वैसे दृढ़ शस्त्रास्त्र और प्रबल, कुशल सेना न हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    धार्मिक माणसेच परमेश्वराचे कृपापात्र बनून सदैव विजय प्राप्त करतात, दुष्ट नाही. परमात्माच धार्मिक माणसांना आशीर्वाद देतो. पापी लोकांना नाही. पुण्यात्मा माणसांनी उत्तम शस्त्र अस्त्र निर्माण करून त्यांना फेकण्याचा अभ्यास करून सेनेला उत्तम शिक्षण देऊन शत्रूंचे निवारण करून पराजय करून न्यायाने माणसांचे निरंतर रक्षण केले पाहिजे. ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    [परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति] तो म्हणतो, हे जीवांनो! (वः) [युष्माकम्] तुमच्या साठी आयुधे, शतघ्नी [तोफ] भुशुण्डी [बंदूक], धनुष्यबाण, करवाल [तलवार], शक्ती [भाला], इत्यादी शस्त्रे (वीळू) असावीत. त्यांचे प्रयोजन काय? (पराणुदे) तुम्हाला कोणी दष्ट शत्रंनी दुःख देऊ नये व त्यांचा पराभव व्हावा. (उत, प्रतिष्कभे) शत्रूचा वेग थांबवावा. (युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी) तुमची बलरूपी सेना सर्व जगात प्रशंसनीय असावी म्हणजे तुमच्याशी लढण्याचा संकल्पही शत्ररूने करू नये. परंतु (मा मर्त्यस्य मायिनः) जो मनुष्य अन्यायी आहे त्याला आम्ही आशीर्वाद देत नाही. दुष्ट पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्याचे बळ राज्यऐश्वर्य कधीही वृद्धिंगत होऊ नये. त्याचा नेहमी पराभव व्हावा, हे बंधूनो, आपण सर्वजण मिळून सर्व दुःखाचा नाश होण्यासाठी व विजय प्राप्त होण्यासाठी ईश्वराला प्रसन्न करू या. त्यामुळे ईश्वराने आपल्याला आशीर्वाद द्यावा व आपले शत्रू कधीही वरचढ होऊ नयेत. ॥२२॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    May your weapons be strong and steady to drive off the enemy, and strong and firm to stem the onslaught. May your forces be admirably intelligent and resourceful. Let the cunning and wicked people have nothing such.

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    Purport

    God blesses all souls-human beings, saying-O souls! Your weapons, namely cannons, rifles, bows and arrows, swords, spears etc. should be firm and strong. For what purpose ? In order to defeat your enemies, so that no wicked enemy can ever harm you. Moreover to stop the violent agitation of the enemies, your strong and excellent army should be praise-worthy all over the world, so that no enemy may intend wage a war against you. But the men who are unjust, we do not bless them. Those who are wicked, sinful, and devoid of devotion to God, their power and kingdom should never prosper. They should come to grief and suffer defeat. O freinds ! Come, we all getting to propiate God so that all our miseries and sorrows come to an end and we should be ever victorious. May God bless us so that our foes should never prosper and increase.

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    Subject of the mantra

    Now, God preaches and blesses them and tells everyone, what you should they accomplish, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhārmika)=righteous, (manuṣyā)=humans! (vaḥ)=your, (āyudhā)=firearms, sword, bow and arrow, gun[bhusuṃḍī] and cannon[śataghnī] etc. (śatrūṇām)=to the enemies, (parāṇude)=in the war in which are sent away, (uta)=like this also, (pratiṣkabhe)=for actions in the form of restraining, binding and killing (sthirā)=able to lasting, (vīḻū)=having strong force, (santu)=be, (yuṣmākam)=of you religious heroes, (taviṣī)=an army of commendable strength and learning, (panīyasī)=highly commendable and prove activities, (astu)=be, (māyinaḥ) =being cheat and unrighteous, (martyasya)=human, (mā)=not [kabhī]=ever, (santu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O righteous men! Your firearms, swords, bows and arrows, guns [bhusuṃḍī] and cannons [śataghnī] etc. weapons in the war, in which the enemies are sent away, in the form of stopping, binding and killing, should also be equipped with a strong force capable of for everlasting deeds. You are an army of righteous heroes with commendable strength and knowledge. you are highly praiseworthy and prove your activities. There should never be a person with hypocrisy and unrighteousness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Only righteous people get victory by being blessed by God, not evil ones. God also blesses only the righteous people, not the sinners. It is appropriate for a pious soul that by making the best weapons and missile-weapon, by practicing their throwing, by giving the best training to the army, by stopping and defeating the enemies, one should continuously protect the people with justice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What all should you accomplish with the help of the Maruts is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Strong be your weapons for driving away your foes, firm in resisting them, Yours be the army that men praise, not that (army or strength) of an unrighteous deceitful mortal.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( आयुधा ) आयुधानि आग्नेयानि धनुर्बाणभुशुण्डीशतघ्न्यादीनि अस्त्रशस्त्राणि । = Arms of various kinds like cannons, rifles, bows, arrows, swords, spears and all other war weapons. (वीळू) वीळूनि दृढानि बलकारीणि । = Firm and strong, powerful. (तविषी) प्रशस्तबलयुक्ता सेना । तविषीति बलनामसु पठितम् ( निघ० २.९) = Powerful army. ( मायिनः ) कपटाद्यधर्माचरणयुक्तस्य माया कुत्सिता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्य अत्र निन्दार्थ इनिः । मायेति प्रज्ञानामसु पठितम् ॥ ( निघ० ३.९ ) । = Of an un-righteous deceitful persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Righteous persons receive the Grace of God and victory. God also blesses only righteous persons and not others. These righteous persons should manufacture powerful arms, should practice their use well, train their army, defeat, capture or kill (as the case and necessity may be) their unrighteous wicked foes and protect their subjects justly. Unrighteous, treacherous and fraudulent person can not do all this.

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    [परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति] ईश्वर सबै जीव हरु लाई आशीर्वाद दिनु हुन्छ हे जीव ! वः = [युष्माकम् ] तिमीहरुका लागी आयुधा = आयुध अर्थात् शतघ्नी [तोप], भुशुण्डी [ बन्दूक], धनुष-बाण करवाल अर्थात् तलवार शक्ति अर्थात् बरछी आदि शस्त्र स्थिरा= स्थिर र वीळू दृढ हुन् । कुन प्रयोजनका लागी हुन् ? पराणुदे = तिम्रा शत्रु हरु को पराजय का लागी, जसमा तिम्रा शत्रु हरु ले तिमीलाई कहिल्यै पनि दुःख दिन नसकून् अनि उत, प्रतिष्कभे= शत्रु हरु को वेग लाई थाम्न का लागी युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी = तिम्रो बलरूप उत्तम सेना सकल संसार मा प्रशंसित होस्, जसले तिमी संग लड्न का लागी शत्रु को कुनै संकल्प पनि नहोस्, परन्तु मा मर्त्यस्य मायिनः= जुन अन्यायकारी मनुष्य छ, तेसलाई मँ आशीर्वाद दिन्न । दुष्ट, पापी, ईश्वर भक्तिरहित मानिस को बल र राज्यैश्वर्यादि कहिल्यै बढ्दैन, तेसको सदा पराजय नै हुनेछ । [भक्तजन प्रार्थना गर्दछन् ] हे बन्धु वर्ग हो ! आउनुहोस् हामी सबैजना मिलेर समस्त दुःख हरु को विनाश र विजय का लागीईश्वर लाई प्रसन्न पारौं, ईश्वर ले आशीर्वाद दिनेछन् । जसले हाम्रा वैरी हरु कहिल्यै बढ्न् न सकूँन् ॥२२॥ 

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