ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
न॒हि वः॒ शत्रु॑र्विवि॒दे अधि॒ द्यवि॒ न भूम्यां॑ रिशादसः । यु॒ष्माक॑मस्तु॒ तवि॑षी॒ तना॑ यु॒जा रुद्रा॑सो॒ नू चि॑दा॒धृषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । वः॒ । शत्रुः॑ । वि॒वि॒दे । अधि॑ । द्यवि॑ । न । भूम्या॑म् । रि॒शा॒द॒सः॒ । यु॒ष्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । तवि॑षी । तना॑ । यु॒जा । रुद्रा॑सः । नु । चि॒त् । आ॒ऽधृषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः । युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । वः । शत्रुः । विविदे । अधि । द्यवि । न । भूम्याम् । रिशादसः । युष्माकम् । अस्तु । तविषी । तना । युजा । रुद्रासः । नु । चित् । आधृषे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(नहि) निषेधार्थे (वः) युष्मान् (शत्रुः) विरोधी (विविदे) विंदेत् अत्र लिङर्थे लिट्। (अधि) उपरिभावे (द्यवि) प्रकाशे (न) निषेधार्थे (भूम्याम्) पृथिव्याम् (रिशादसः) रिशान् शत्रून् रोगान् वा समन्ताद्दस्यन्त्युपक्षयन्ति ये तत्सम्बुद्धौ (युष्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (तविषी) प्रशस्तबलयुक्ता सेना (तना) विस्तृता (युजा) युनक्ति यया तया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (रुद्रासः) ये रोदयन्त्यन्यायकारिणोजनांस्तत्सम्बुद्धौ (नु) क्षिप्रम् (चित्) यदि (आधृषे) समन्ताद् धृष्णुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र पूर्ववत् क्विप् ॥४॥
अन्वयः
पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे रिशादसो रुद्रासो वीरा चित् यदि युष्माकमाधृषे तना युजा तविष्यस्तु स्यात्तर्ह्यधि द्यवि न्यायप्रकाशे वो युष्मान् शत्रुर्नुनहि विविदे कदाचिन्न प्राप्नुयान्न भूम्यां भूमिराज्ये कश्चिच्छत्रूरुत्पद्येत ॥४॥
भावार्थः
यथा पवना अजातशत्रवः सन्ति तथा मनुष्या विद्याधर्मबलपराक्रमवन्तो न्यायाधीशा भूत्वा सर्वान्प्रशास्य दुष्टाञ्च्छत्रून् निवार्याऽदृष्टशत्रवः स्युः ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे विद्वान् किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (रिशादसः) शत्रुओं के नाश कारक (रुद्रासः) अन्यायकारी मनुष्यों को रुलानेवाले वीर पुरुष ! (चित्) जो (युष्माकम्) तुम्हारे (आधृषे) प्रगल्भ होनेवाले व्यवहार के लिये (तना) विस्तृत (युजा) बलादि सामग्री युक्त (तविषी) सेना (अस्तु) हो तो (अधिद्यवि) न्याय प्रकाश करने में (वः) तुम लोगों को (शत्रुः) विरोधी शत्रु (नु) शीघ्र (नहि) नहीं (विविदे) प्राप्त हो और (भूम्याम्) भूमि के राज्य में भी तुम्हारा कोई मनुष्य विरोधी उत्पन्न न हो ॥४॥
भावार्थ
जैसे पवन आकाश में शत्रु रहित विचरते हैं वैसे मनुष्य विद्या, धर्म, बल, पराक्रमवाले न्यायाधीश हो सबको शिक्षा दे और दुष्ट शत्रुओं को दण्ड देके शत्रुओं से रहित होकर धर्म में वर्त्ते ॥४॥
विषय
फिर वे विद्वान् किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे रिशादसः रुद्रासः वीरा चित् यदि युष्माकम् आधृषे तना युजा तविषी अस्तु स्यात् तर्हि अधि द्यवि न्यायप्रकाशे वः युष्मान् शत्रुः नु नहि विविदे कदाचित् न प्राप्नुयात् न भूम्यां भूमिराज्ये कश्चित् शत्रूः उत्पद्येत ॥४॥
पदार्थ
हे (रिशादसः) रिशान् शत्रून् रोगान् वा=शत्रुओं या रोगों के नाश कारक, (रुद्रासः) ये रोदयन्त्यन्यायकारिणोजनांस्तत्सम्बुद्धौ=अन्यायकारी मनुष्यों को रुलानेवाले, (वीरा)=वीर पुरुषों! (चित्) यदि=यदि, (युष्माकम्) मनुष्याणाम्=तुम मनुष्यों के, (आधृषे) समन्ताद् धृष्णुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मै=जिनमें हर ओर से प्रगल्भ व्यवहार है, उनमें, (तना) विस्तृता= विस्तृत, (युजा) युनक्ति यया तया=जिनसे जुड़े हैं, उनकी, (तविषी) प्रशस्तबलयुक्ता सेना=प्रशस्त बल से युक्त सेना, (अस्तु) भवतु= होवे, (तर्हि)=इसलिये, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (द्यवि) प्रकाशे=प्रकाश में, अर्थात् (न्यायप्रकाशे)=न्याय के प्रकाश में, (वः) युष्मान्=तुम्हारा, (शत्रुः) विरोधी=विरोधी, (नु) क्षिप्रम्=शीघ्रता से, (नहि) निषेधार्थे=न, (विविदे) विंदेत्=जान पाये, (कदाचित्)=कदाचित्, (न) निषेधार्थे=न, (प्राप्नुयात्)= उपलब्ध होवे, (न) निषेधार्थे=न, (भूम्याम्) पृथिव्याम्=पृथिवी में, (कश्चित्)=कोई, (शत्रूः)= शत्रु, (उत्पद्येत)=उत्पन्न होवे ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे पवन आकाश में शत्रु रहित विचरते हैं वैसे मनुष्य विद्या, धर्म, बल, पराक्रमवाले न्यायाधीश हो सबको शिक्षा दे और दुष्ट शत्रुओं को दण्ड देके शत्रुओं से रहित होकर धर्म में वर्त्ते ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (रिशादसः) शत्रुओं या रोगों के नाश कारक! (रुद्रासः) जो अन्यायकारी मनुष्यों को रुलानेवाले (वीरा) वीर पुरुष हैं। (चित्) यदि (युष्माकम्) तुम मनुष्यों के (आधृषे) जिनमें हर ओर से प्रगल्भ व्यवहार है, उनमें (तना) विस्तृत और (युजा) जिनसे जुड़े हैं, उनकी (तविषी) प्रशस्त बल से युक्त सेना (अस्तु) होवे। (तर्हि) इसलिये (अधि) ऊपर (द्यवि) प्रकाश में अर्थात् (न्यायप्रकाशे) न्याय के प्रकाश में (वः) तुम्हारा (शत्रुः) विरोधी (नु) शीघ्रता से (नहि) न (विविदे) जान पाये, (कदाचित्) कदाचित् (न) न (प्राप्नुयात्) उपलब्ध होवे और (न) न (भूम्याम्) पृथिवी में (कश्चित्) कोई (शत्रूः) शत्रु (उत्पद्येत) उत्पन्न होवे ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नहि) निषेधार्थे (वः) युष्मान् (शत्रुः) विरोधी (विविदे) विंदेत् अत्र लिङर्थे लिट्। (अधि) उपरिभावे (द्यवि) प्रकाशे (न) निषेधार्थे (भूम्याम्) पृथिव्याम् (रिशादसः) रिशान् शत्रून् रोगान् वा समन्ताद्दस्यन्त्युपक्षयन्ति ये तत्सम्बुद्धौ (युष्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (तविषी) प्रशस्तबलयुक्ता सेना (तना) विस्तृता (युजा) युनक्ति यया तया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (रुद्रासः) ये रोदयन्त्यन्यायकारिणोजनांस्तत्सम्बुद्धौ (नु) क्षिप्रम् (चित्) यदि (आधृषे) समन्ताद् धृष्णुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र पूर्ववत् क्विप् ॥४॥
विषयः- पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे रिशादसो रुद्रासो वीरा चित् यदि युष्माकमाधृषे तना युजा तविष्यस्तु स्यात्तर्ह्यधि द्यवि न्यायप्रकाशे वो युष्मान् शत्रुर्नुनहि विविदे कदाचिन्न प्राप्नुयान्न भूम्यां भूमिराज्ये कश्चिच्छत्रूरुत्पद्येत ॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा पवना अजातशत्रवः सन्ति तथा मनुष्या विद्याधर्मबलपराक्रमवन्तो न्यायाधीशा भूत्वा सर्वान्प्रशास्य दुष्टाञ्च्छत्रून् निवार्याऽदृष्टशत्रवः स्युः ॥४॥
विषय
सैनिकों में ऐकमत्य
पदार्थ
१. हे (रिशादसः) - हिंसक शत्रुओं को खा जानेवाले सैनिको ! (वः) - तुम्हारा (शत्रुः) - शातन व विनाश करनेवाला (नहि अधि द्यवि) - न तो द्युलोक में और (न भूम्याम्) - न ही इस पृथिवी पर (विविदे) - विद्यमान है, अर्थात् तुम्हारा मुकाबला न देव कर सकते हैं, न मनुष्य । आँधी, बाढ़ व आग आदि के रूप में ये वायु, जल व अग्नि आदि देव तुम्हें आगे बढ़ने से रोक नहीं सकते, मनुष्य की तो शक्ति ही क्या है कि वे तुम्हे रोक पाएँ व तुम्हारा विनाश कर पाएँ ।
२. हे (रुद्रासः) - [रोरूयमाणो द्रवति] प्रभु - नाम - स्मरण करते हुए व गर्जना करते हुए शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले सैनिको ! (युष्माकम्) - तुम्हारे (युजा) - [योगेन, परस्परैकभावेन] मेल व परस्पर अविरोध के कारण (तविषी) - यह सेना (नु चित्) - [क्षिप्रमेव] शीघ्र ही (आधृषे) - शत्रओं के धर्षण के लिए (तना) - विस्तृत शक्तिवाली (अस्तु) - हो, अर्थात् सैनिकों के परस्पर ऐकमत्य व एक विचार के कारण सेना की शक्ति इतनी प्रबल हो कि वह शत्रुओं का पूर्ण धर्षण करने में समर्थ हो ।
भावार्थ
भावार्थ - सैनिकों का ऐकमत्य होना सेना को प्रबल बनाता है और वह सेना सदा शत्रुओं का धर्षण करनेवाली होती है ।
विषय
मरुद् गण, वायुओं, प्राणों, विद्वानों का समान रूप से वर्णन ।
भावार्थ
हे (रिशादसः) हिंसक शत्रुओं को भी नाश करने वाले वीर पुरुषो! एवं विद्वान् धार्मिक पुरुषो! (नू चित्) यदि शीघ्र ही (युष्माकम् तविषी) आप लोगों की सेना (तना युजा) विस्तृत सहयोगी बल और सेनापति के साथ (आधृषे) शत्रुओं के दबाने में समर्थ (अस्तु) हो जाय तो निश्चय से हे (रुद्रासः) दुष्ट शत्रुओं के रुलाने वाले वीरो! या उपदेश करने हारे विद्वानो! (वः शत्रुः) तुम लोगों का कोई भी शत्रु (अधि द्यवि, अधि भूम्याम्) आकाश और पृथिवी दोनों में भी (न विविदे) नहीं पाया जाय, अथवा वह तुमको न पा सके।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
जसा वायू आकाशात निर्बंधपणे वाहतो तसे माणसाने विद्या, धर्म, बल, पराक्रमयुक्त न्यायाधीश बनून सर्वांना शिक्षित करावे व दुष्ट शत्रूंना दंड देऊन, शत्रूरहित बनून धर्माचे वर्तन करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Scourge of wrong and enemies of injustice, no enemy will stand against you on earth or on high in the light of your justice and rectitude. May your forces be blazing brilliant, wide and expansive, expert and well- provided with weapons and equipment for your struggle and battles for life and humanity.
Subject of the mantra
Then, what kind of those scholars should be, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (riśādasaḥ)=destroyer of enemies or diseases! (rudrāsaḥ)=who make unjust people cry, (vīrā)=are brave men, (cit)=if, (yuṣmākam)=of you humans, (ādhṛṣe)=In those who have confident conduct from all sides, (tanā)= pervaded and, (yujā)=to whom they are associated, utheir (taviṣī)=army with commendable force, (astu)=be, (tarhi)=therefore, (adhi)=above, (dyavi) =in the light, that is, (nyāyaprakāśe)= in the light of justice, (vaḥ)=your, (śatruḥ)=opponent, (nu)=hurriedly, (nahi)=not, (vivide)=get to know, (kadācit)=perhaps, (na)=not, (prāpnuyāt)=be available and, (na) =not, (bhūmyām)=in the earth, (kaścit)=any, (śatrūḥ)=enemy, (utpadyeta)=be born.
English Translation (K.K.V.)
O Destroyer of enemies or diseases! The brave men who make unjust people cry. If army of you human beings, who have confident conduct from all sides. Pervaded in those, whom, you are attached with immense strength. That's why in the light above i.e. in the light of justice, your adversary may not be known quickly, may not be available and may not be born on earth.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as the wind roams in the sky without enemies, so should a man be a judge of knowledge, righteousness, strength, valour, give education to everyone and punish the evil enemies, be free from enemies and live in righteousness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should they (learned men) be, is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave destroyers of your foes and diseases, if you have a powerful army, no adversary of yours will there be in the light of justice nor any upon the earth, may your collected strength of army be quickly exerted O heroes who make your opponents weep, to humble or overcome your enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( रिशादसः ) रिशान् शत्रून् रोगान् वा समन्तात् दस्यन्ति उपक्षयन्ति ये तत्सम्बुद्धौ = Destroyers of the foes and diseases. (द्यवि) न्यायप्रकाशे = In the light of justice. (तविषी) प्रशस्तबलयुक्ता सेना = Powerful army.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the airs have no enemies and are liked by all, in the same way, people should be endowed with knowledge, righteousness, strength and force and justice, so that they may rule over all with justice, may destroy their opponents and should become so popular as to have no enemy at all.
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