ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
प्र वे॑पयन्ति॒ पर्व॑ता॒न्वि वि॑ञ्चन्ति॒ वन॒स्पती॑न् । प्रो आ॑रत मरुतो दु॒र्मदा॑इव॒ देवा॑सः॒ सर्व॑या वि॒शा ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वे॒प॒य॒न्ति॒ । पर्व॑तान् । वि । वि॒ञ्च॒न्ति॒ । वन॒स्पती॑न् । प्रो इति॑ । आ॒र॒त॒ । म॒रु॒तः॒ । दु॒र्मदाः॑ऽइव । देवा॑सः । सर्व॑या । वि॒शा ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् । प्रो आरत मरुतो दुर्मदाइव देवासः सर्वया विशा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वेपयन्ति । पर्वतान् । वि । विञ्चन्ति । वनस्पतीन् । प्रो इति । आरत । मरुतः । दुर्मदाःइव । देवासः । सर्वया । विशा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (वेपयन्ति) चालयन्ति (पर्वतान्) मेघान् (वि) विवेकार्थे (विञ्चन्ति) विभंजन्ति (वनस्पतीन्) वटाश्वत्थादीन् (प्रो) प्रवेशार्थे (आरत) प्राप्नुत। अत्र लोडर्थे लङ् (मरुतः) वायुवद्बलवन्तः (दुर्मदा इव) यथा दुष्टमदा जनाः (देवासः) न्यायधीशाः सेनापतयः सभासदो विद्वांसः। अत्राज्जसेरसुग् इत्यसुक्। (सर्वया) अखिलया (विशा) प्रजया सह ॥५॥
अन्वयः
पुनस्ते कीदृशानि कर्माणि कुर्य्युरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे मरुतो देवासो यूयं यथा वायवो वनस्पतीन् प्रवेपयन्ति पर्वतान्विञ्चन्ति तथा दुर्मदा इव वर्त्तमानानरीन् युद्धेन प्रो आतर सर्वया प्रजया सह सुखेन वर्त्तध्वम् ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा राजधर्मनिष्ठा विद्वांसो दण्डेनोन्मत्तान्दस्यून् वशं नीत्वा धार्मिकीः प्रजाः पालयन्ति तथा यूयमप्येताः पालयत यथा वायवो भूगोलस्याऽभितो विचरन्ति तथा भवन्तोपि विचरन्तु ॥५॥ अष्टादशो वर्गः समाप्तः ॥१८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे कर्म्म करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (मरुतः) वायुवत् बलिष्ठ और प्रिय (देवासः) न्यायाधीश सेनापति सभाध्यक्ष विद्वान् लोगो ! तुम जैसे वायु (वनस्पतीन्) वड़ और पिप्पल आदि वनस्पतियों को (प्रवेपयन्ति) कंपाते और जैसे (पर्वतान्) मेघों को (विविचंति) पृथक-२ कर देते हैं वैसे (दुर्मदा इव) मदोन्मत्तों के समान वर्त्तते हुए शत्रुओं को युद्ध से (प्रो आरत) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये और (सर्वया) सब (विशा) प्रजा के साथ सुख से वर्त्तिये ॥५॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजधर्म में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोग दंड से घमंडी डाकुओं को वश में करके धर्मात्मा प्रजाओं का पालन करते हैं वैसे तुम भी अपनी प्रजा का पालन करो और जैसे पवन भूगोल के चारों ओर विचरते हैं वैसे आप लोग सर्वत्र जाओ-आओ। यह अठारवां वर्ग समाप्त हुआ ॥५॥
विषय
फिर वे कैसे कर्म्म करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मरुतः देवासः यूयं यथा वायवः वनस्पतीन् प्र वेपयन्ति पर्वतान् विञ्चन्ति तथा दुर्मदा इव वर्त्तमानान् अरीन् युद्धेन प्रो आरत सर्वया प्रजया सह सुखेन वर्त्तध्वम् ॥५॥
पदार्थ
हे (मरुतः) वायुवद्बलवन्तः=वायु के समान बलवान्, (देवासः) न्यायधीशाः सेनापतयः सभासदो विद्वांसः=न्यायधीश, सेनापति, सभासद और विद्वानों! (यथा)=जैसे, (यूयम्)=तुम सब, (वायवः)=वायु, (वनस्पतीन्) वटाश्वत्थादीन्=वड और पीपल आदि वनस्पतियों को, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छी तरह से, (वेपयन्ति) चालयन्ति=हिलाते हो, (पर्वतान्) मेघान्=मेघों को, (विञ्चन्ति) विभंजन्ति=[टुकड़ों मे] पृथक-पृथक कर देते हैं, (तथा)=वैसे ही, (दुर्मदा इव) यथा दुष्टमदा जनाः=पागल जैसे लोग, (वर्त्तमानान्)=विद्यमान, (अरीन्)=शत्रु, (युद्धेन)=युद्ध के द्वारा, (प्रो) प्रवेशार्थे=प्रवेश करने के लिये, (आरत) प्राप्नुत=पहुँचते हैं, (सर्वया) अखिलया=समस्त, (प्रजया)=प्रजा के, (सह)=साथ, (सुखेन)=सुख से, (वर्त्तध्वम्)=व्यवहार करें ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजधर्म में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोग दंड से घमंडी डाकुओं को वश में करके धर्मात्मा प्रजाओं का पालन करते हैं वैसे तुम भी अपनी प्रजा का पालन करो और जैसे पवन भूगोल के चारों ओर विचरते हैं वैसे आप लोग सर्वत्र जाओ-आओ। यह अठारवां वर्ग समाप्त हुआ ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मरुतः) वायु के समान बलवान्, (देवासः) न्यायधीश, सेनापति, सभासद और विद्वानों! (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (वायवः) वायु (वनस्पतीन्) वड और पीपल आदि वनस्पतियों को (प्र) अच्छी तरह से (वेपयन्ति) हिलाते हो, [वैसे ही] (पर्वतान्) मेघों को (विञ्चन्ति) [टुकड़ों मे] पृथक-पृथक कर देते हैं। (तथा) वैसे ही (दुर्मदा इव) पागल जैसे लोग (वर्त्तमानान्) विद्यमान (अरीन्) शत्रुओं को (युद्धेन) युद्ध के द्वारा (प्रो) प्रवेश करने के लिये (आरत) पहुँचते हैं। [ऐसे ही] (सर्वया) समस्त (प्रजया) प्रजा के (सह) साथ (सुखेन) सुख से (वर्त्तध्वम्) व्यवहार करें ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (वेपयन्ति) चालयन्ति (पर्वतान्) मेघान् (वि) विवेकार्थे (विञ्चन्ति) विभंजन्ति (वनस्पतीन्) वटाश्वत्थादीन् (प्रो) प्रवेशार्थे (आरत) प्राप्नुत। अत्र लोडर्थे लङ् (मरुतः) वायुवद्बलवन्तः (दुर्मदा इव) यथा दुष्टमदा जनाः (देवासः) न्यायधीशाः सेनापतयः सभासदो विद्वांसः। अत्राज्जसेरसुग् इत्यसुक्। (सर्वया) अखिलया (विशा) प्रजया सह ॥५॥
विषयः- पुनस्ते कीदृशानि कर्माणि कुर्य्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे मरुतो देवासो यूयं यथा वायवो वनस्पतीन् प्रवेपयन्ति पर्वतान्विञ्चन्ति तथा दुर्मदा इव वर्त्तमानानरीन् युद्धेन प्रो आरत सर्वया प्रजया सह सुखेन वर्त्तध्वम् ॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा राजधर्मनिष्ठा विद्वांसो दण्डेनोन्मत्तान्दस्यून् वशं नीत्वा धार्मिकीः प्रजाः पालयन्ति तथा यूयमप्येताः पालयत यथा वायवो भूगोलस्याऽभितो विचरन्ति तथा भवन्तोपि विचरन्तु ॥५॥ अष्टादशो वर्गः समाप्तः ॥१८॥
विषय
प्रजा का पूर्ण जीवन
पदार्थ
१. (मरुतः) - युद्धभूमि में ही मरनेवाले, कभी पीठ नहीं दिखानेवाले सैनिक (दुर्मदाः इव) - प्रबल मदवाले हाथियों की भाँति (पर्वतान्) - पर्वतों को भी (प्रवेपयन्ति) - कँपा देते हैं, (वनस्पतीन्) - बड़े - बड़े वृक्षों को (विविञ्चन्ति) - बीच के वृक्षों को काटकर परस्पर वियुक्त अलग - अलग कर देते हैं ।
२. ये सैनिक (प्र उ आरत) - निश्चय से आगे बढ़ते हैं । (देवासः) - ये शत्रुओं को जीतने की कामनावाले होते हैं [दिव् विजिगीषा] । इस प्रकार ये मरुत् (सर्वया विशा) - पूर्ण प्रजा के साथ होते हैं, अर्थात् प्रजा के जीवन में सर्वतोमुखी उन्नति के वातावरण को उत्पन्न करते हैं । युद्ध के समय अथवा पराधीनता की स्थिति में उन्नति सम्भव नहीं होती । उन्नति के लिए अपराधीनता व स्वतन्त्रता आवश्यक है । इस स्वतन्त्रता को स्थिर रखना इन 'दुर्मद मरुतों' वीर सैनिकों का ही काम है ।
भावार्थ
भावार्थ - वीर सैनिक पर्वतों व वनस्पतियों को कम्पित करते हुए आगे बढ़ते हैं और शत्रुओं पर विजय की कामना करते हैं ताकि प्रजाओं को उन्नत होने का अवसर प्राप्त होता रहे ।
विषय
मरुद् गण, वायुओं, प्राणों, विद्वानों का समान रूप से वर्णन ।
भावार्थ
हे (मरुतः) प्रचण्ड वायुओं के समान प्रबल वेग से जाने वाले वीर पुरुषो! (पर्वतान्) पर्वतों और मेघों को जिस प्रकार वायुगण (प्र वेपयन्ति) बड़े बल से हिला देते हैं और वे जिस प्रकार (वनस्पतीन्) वट, गूलर आदि बड़े वृक्षों को (वि विञ्चन्ति) प्रबल झकोरों से तोड़ फोड़ कर पृथक २ कर देते हैं उसी प्रकार आप लोग भी (देवासः) युद्ध विजय की कामना करते हुए (दुर्मदाः इव) अति मदमत्त पुरुषों के समान किसी की भी पर्वाह न करते हुए (पर्वतान्) पर्वत के समान दृढ़ और मेघ के समान शरवर्षानेवाले शत्रुओं को भी (वेपयन्ति) खूब कंपा डालो। और (वनस्पतीन्) वट आदि के समान बड़ी २ प्रजाओं और सेनाओं को आश्रय देने वाले राजाओं को भी (वि विञ्चन्ति) तोड़ फोड़ कर भेद नीति से बिरला २, पृथक् २ कर दो। और (सर्वया विशा) अपनी समस्त आश्रित प्रजा के साथ (प्रो आरत) आगे बढ़ो। इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे राजधर्मनिष्ठ विद्वान लोक उन्मत्तांना दंड देऊन ताब्यात ठेवतात व धार्मिक प्रजेचे पालन करतात तसे तुम्ही आपल्या प्रजेचे पालन करा व जसे वायू भूगोलाच्या सर्व बाजूंनी वाहतात तसे तुम्ही सर्वत्र गमनागमन करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as Maruts, the winds, shake up the mountains, scatter the clouds and uproot the trees, so you, brave heroes, intelligent, brilliant and creative, together with all the people, throw off the evil and the wicked like drunkards lost in intoxication.
Subject of the mantra
Then, what karmas they should do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ)=strong as the wind, (devāsaḥ)=Judges, generals, councilors and scholars! (yathā)=like, (yūyam)=all of you, (vāyavaḥ)=winds, (vanaspatīn) To the plants like Vad(banyan) and Peepal (Ficus religiosa or sacred fig) etc., (pra)=thoroughly, (vepayanti)=shake, [vaise hī]=in the same way, (parvatān)=to clouds, (viñcanti)= separate, [ṭukaḍaoṃ me]=in pieces, (tathā)=in the same way, (durmadā iva) =mad like people, (varttamānān)=present, (arīn)=to enemies, (yuddhena)=by war, (pro)=to enter, (ārata)=reach, [aise hī]=in the same way, (sarvayā)=all, (prajayā)=of people, (saha)=with, (sukhena)=happily, (varttadhvam)=behave.
English Translation (K.K.V.)
O Strong as air, judge, commander, councilor and scholar! Just as you stir all the plants like wind, Vad and Peepal (Ficus religiosa or sacred fig) etc. well, similarly they separate the clouds into pieces. In the same way mad people reach out to enter the existing enemies by war. In the same way, treat all the subjects with happiness.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as the learned people who follow the royal righteousness follow the pious subjects by controlling the arrogant dacoits with punishment, so you also follow your subjects and like the wind wanders around the worlds, so you people go and come everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kinds of actions should they (Maruts) do is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O heroic learned mighty persons like the winds, O Commander of the army, as the winds move the clouds making them tremble (so to speak ) and shatter the trees, in the same manner, you should fight with wicked persons who behave like the intoxicated and should remain happy with all your subjects or the people in general.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( मरुतः ) वायुवद् बलवन्तः = Powerful or mighty like the winds. ( देवासः) न्यायाधीशाः, सेनापतयः, सभासदो विद्वांसः = Dispensers of justice, commanders of the armies and members of the Assemblies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara. As loyal learned persons, keep under their control intoxicated robbers and thieves, and preserve and support righteous people, you should also do like them. As winds move about the earth, you should also go round and move from place to place.
Translator's Notes
It is very wrong on the part of Prof. Maxmuller to take Maruts as Storm Gods and to translate the last two stanzas of this Mantra as “come on Maruts, like mad men, ye gods, with your whole tribe." (Vedic hymns Vol. I, P. 97) विक्षु does not mean tribe but subjects or people. दुर्मंदासः or mad men does not refer to the Maruts, but to their foes who are to be Faught against.
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