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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अप॒ त्यं प॑रिप॒न्थिनं॑ मुषी॒वाणं॑ हुर॒श्चित॑म् । दू॒रमधि॑ स्रु॒तेर॑ज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । त्यम् । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑म् । मु॒षी॒वाण॑म् । हु॒रः॒ऽचित॑म् । दू॒रम् । अधि॑ । स्रु॒तेः । अ॒ज॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् । दूरमधि स्रुतेरज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । त्यम् । परिपन्थिनम् । मुषीवाणम् । हुरःचितम् । दूरम् । अधि । स्रुतेः । अज॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अप) दूरीकरणे (त्यम्) पूर्वोक्तम् (परिपन्थिनम्) प्रतिकूलं पन्थानं परित्यज्य स्तेयाय गुप्ते स्थितम्। अत्र छन्दसि परिपंथिपरिपरिणौपर्य्यवस्थातरि। #अ० ५।२।९९। अनेन पर्य्यवस्थाता विरोधी गृह्यते। (मुषीवाणम्) स्तेयकर्मणा भित्तिं भित्वा दृष्टिमावृत्य परपदार्थापहर्त्तारम्। मुषीवानिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (हुरश्चितम्) उत्कोचकं हस्तात्परपदार्थापहर्त्तारम् हुरश्चिदिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (अधि) उपरिभावे (स्रुतेः) स्रवन्ति गच्छन्ति यस्मिन्स स्रुतिमार्गस्तस्मात्। अत्र क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। अ० ३।३।१७४। अनेन स्रुधातोः संज्ञायां क्तिच्। (अज) प्रक्षिप ॥३॥ #[अ० ५।२।८९। सं०]

    अन्वयः

    पुनरेतस्मान्मार्गात्केके निवारणीयाइत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे पूषँस्त्व त्यं परिपंथिनं मुषीवाणं हुरश्चितमनेकविधं स्तेनं स्रुतेर्दूरमध्यपाज ॥३॥

    भावार्थः

    चोरा अनेकविधाः केचिद्दस्यवः केचित्कपटेनापहर्त्तारः। केचिन्मोहयित्वा परपदार्थादायिनः। केचिदुत्कोचकाः। केचिद्रात्रौ सुरंगं कृत्वा परपदार्थान् हरंति केचिन्नानापण्यवासिनो हट्टेषु छलेन परपदार्थान् हरंति केचिच्छुल्कग्राहिणः केचिद्भृत्या भूत्वा स्वामिनः पदार्थान् हरंति केचिच्छलकपटाभ्यां परराज्यानि स्वीकुर्वंति केचिद्धर्मोपदेशेन जनान् भ्रामयित्वा गुरवो भूत्वा शिष्यपदार्थान् हरंति केचित्प्राड्विवाकाः संतो जनान्विवादयित्वा पदार्थान् हरंति केचिन्न्यायासने स्थित्वा शुल्कादिकं स्वीकृत्य मित्रभावेन वाऽन्यायं कुर्वन्त्येतदादयस्सर्वे चोरा विज्ञेयाः। एतान् सर्वोपायैर्निवर्त्य मनुष्यैर्धर्मेण राज्यं शासनीयमिति ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इस मार्ग से किन-२ का निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वन् राजन् ! आप (त्यम्) उस (परिपंथिनम्) प्रतिकूल चलनेवाले डांकू (मुषीवाणम्) चोर कर्म से भित्ति को फोड़ कर दृष्टि का आच्छादन कर दूसरे के पदार्थों को हरने (हुरश्चितम्) उत्कोचक अर्थात् हाथ से दूसरे के पदार्थ को ग्रहण करनेवाले अनेक प्रकार से चोरों को (स्रुतेः) राजधर्म और प्रजामार्ग से (दूरम्) (अध्यपाज) उनपर दण्ड और शिक्षा कर दूर कीजिये ॥३॥

    भावार्थ

    चोर अनेक प्रकार के होते हैं, कोई डांकू कोई कपट से हरने, कोई मोहित करके दूसरे के पदार्थों को ग्रहण करने, कोई रात में सुरंग लगाकर ग्रहण, करने कोई उत्कोचक अर्थात् हाथ से छीन लेने, कोई नाना प्रकार के व्यवहारी दुकानों में बैठ छल से पदार्थों को हरने, कोई शुल्क अर्थात् रिशवत लेने, कोई भृत्य होकर स्वामी के पदार्थों को हरने, कोई छल कपट से ओरों के राज्य को स्वीकार करने, कोई धर्मोपदेश से मनुष्यों को भ्रमाकर गुरु बन शिष्यों के पदार्थों को हरने, कोई प्राड्विवाक अर्थात् वकील होकर मनुष्यों को विवाद में फंसाकर पदार्थों को हरलेने और कोई न्यायासन पर बैठ प्रजा से धन लेके अन्याय करनेवाले इत्यादि हैं, इन सबको चोर जानो, इनको सब उपायों से निकाल कर मनुष्यों को धर्म से राज्य का पालन करना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    परिपन्थी - मुषीवा - हुरश्चित्

    पदार्थ

    १. (त्यम्) - उस पूर्व मन्त्रोक्त 'अघ, वृक व दुःशेव' के गुणों से युक्त (परिपन्थिनम्) - मार्ग - प्रतिबन्धक, (मुषीवाणम्) - तस्कर [चोर] तथा (हरश्चितम्) - कुटिलताओं के संचय करनेवाले को (स्रुतेः अधि दूरम्) - मार्ग से दूर (अप अज) - परे भेजिए । हमारे मार्ग में इनका आना न हो । 
    २. इन व्यक्तियों के कारण आगे बढ़ना तो सम्भव ही नहीं रहता । यह भी सम्भव है कि कुसंग से हमारी भी वृत्ति खराब हो जाए और हम भी उन - जैसे ही बन जाएँ, अतः यह राजा का भी कर्तव्य होना चाहिए कि 'परिपन्थी, मुषीवा व हुरश्चित्' पुरुषों को प्रजा के मार्ग से दूर रक्खे । यहाँ प्रार्थना है कि प्रभुकृपा से ये व्यक्ति हमारे मार्ग से दूर रहें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - पूषा की कृपा से 'परिपन्थी, मुषीवा, हुरश्चित्' पुरुषों से हमारा टकराव न हो । 
     

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    विषय

    पूषा, पृथ्वी के समान प्रजापालक राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन्! तू (परिपन्थिनम्) दूसरे पर आक्रमण करने के लिए मार्ग से हटकर छुपने वाले और मार्ग में जाते हुए पर आक्रमण करनेवाले, (मुषीवाणम्) चोरी से मूसे के समान दूसरे के घर में सेंध पाड़ कर चुराये धन को ले भागनेवाले, (हुरः चितम्) नाना प्रकार की कुटिल चालों से या झपटकर दूसरे के पदार्थों को हर लेनेवाले, (त्यं) इन चार प्रकार के चोरों को (स्रुतेः) मार्ग से (दूरम्) दूर (अधि अप अज) बलपूर्वक शासन द्वारा दूर कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर इस मार्ग से किन- किन का निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे पूषन् त्वं त्यं परिपंथिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् अनेकविधं स्तेनं स्रुतेः दूरम् अधि अप अज ॥३॥

    पदार्थ

    हे (पूषन्)=विद्वान्! (त्वम्)=तुम, (त्यम्) पूर्वोक्तम्=पहले कहे गये, (परिपन्थिनम्) प्रतिकूलं पन्थानं परित्यज्य स्तेयाय गुप्ते स्थितम्= प्रतिकूल मार्ग को छोड़कर, (मुषीवाणम्) स्तेयकर्मणा भित्तिं भित्वा दृष्टिमावृत्य परपदार्थापहर्त्तारम्=चोरी के कार्य को समाप्त करके, (हुरश्चितम्) उत्कोचकं हस्तात्परपदार्थापहर्त्तारम्= भ्रष्टाचारी और हाथ से दूसरे के पदार्थ को ग्रहण करनेवालों को, (अनेकविधम्) = अनेक प्रकार से, (स्तेनम्)= चोरों को, (स्रुतेः) स्रवन्ति गच्छन्ति यस्मिन्स स्रुतिमार्गस्तस्मात्= धारा की तरह बह रहे जिस मार्ग से जाते हैं, उससे, (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम्= दूर के स्थान में, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (अप) दूरीकरणे=दूर, (अज) प्रक्षिप=फेंक दो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    चोर अनेक प्रकार के होते हैं, कोई डाकू, कोई कपट से हरनेवाले, कोई मोहित करके दूसरे के पदार्थों को ग्रहण करनेवाले, कोई रात में सुरंग लगाकर दूसरों के पदार्थों को चुरानेवाले, कोई विभिन्न प्रकार के व्यवसायी स्थानों में रहनेवाले और बाजारों से छल से दूसरों के पदार्थों को चुरानेवाले, कोई शुल्क लेनेवाले बनकर, कोई सेवक बनकर, कोई स्वामी बनकर, पदार्थों को चुरा लेता है। कोई छल और कपट से दूसरे के राज्यों को प्राप्त कर लेता है। कोई धर्म के उपदेश से मनुष्यों को भ्रमित करके गुरु बनकर, शिष्यों के पदार्थों को हर लेता है, कोई वकील बनकर मनुष्यों को विवाद में फंसाकर पदार्थों को चुरा लेता है और कोई न्याय के आसन पर बैठ कर प्रजा से अन्याय करते हैं। इस प्रकार से इन सब चोरों को जानना चाहिए। इनको सब उपायों से हटाकर कर मनुष्यों को धर्म से राज्य का शासन करना चाहिये ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (पूषन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (त्यम्) पहले कहे गये (परिपन्थिनम्) प्रतिकूल मार्ग को छोड़कर (मुषीवाणम्) चोरी के कार्य को समाप्त करके (हुरश्चितम्) भ्रष्टाचारी और हाथ से दूसरे के पदार्थ को ग्रहण करनेवालों को (अनेकविधम्) अनेक प्रकार से (स्तेनम्) चोरों को, (स्रुतेः) धारा की तरह बह रहे जिस मार्ग से जाते हैं, उससे (अधि) ऊपर (दूरम्) दूर के स्थान में (अज) फेंक दो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (अप) दूरीकरणे (त्यम्) पूर्वोक्तम् (परिपन्थिनम्) प्रतिकूलं पन्थानं परित्यज्य स्तेयाय गुप्ते स्थितम्। अत्र छन्दसि परिपंथिपरिपरिणौपर्य्यवस्थातरि। #अ० ५।२।९९। अनेन पर्य्यवस्थाता विरोधी गृह्यते। (मुषीवाणम्) स्तेयकर्मणा भित्तिं भित्वा दृष्टिमावृत्य परपदार्थापहर्त्तारम्। मुषीवानिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (हुरश्चितम्) उत्कोचकं हस्तात्परपदार्थापहर्त्तारम् हुरश्चिदिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (अधि) उपरिभावे (स्रुतेः) स्रवन्ति गच्छन्ति यस्मिन्स स्रुतिमार्गस्तस्मात्। अत्र क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। अ० ३।३।१७४। अनेन स्रुधातोः संज्ञायां क्तिच्। (अज) प्रक्षिप ॥३॥ विषयः- पुनरेतस्मान्मार्गात्केके निवारणीयाइत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पूषँस्त्व त्यं परिपंथिनं मुषीवाणं हुरश्चितमनेकविधं स्तेनं स्रुतेर्दूरमध्यपाज ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- चोरा अनेकविधाः केचिद्दस्यवः केचित्कपटेनापहर्त्तारः। केचिन्मोहयित्वा परपदार्थादायिनः। केचिदुत्कोचकाः। केचिद्रात्रौ सुरंगं कृत्वा परपदार्थान् हरंति केचिन्नानापण्यवासिनो हट्टेषु छलेन परपदार्थान् हरंति केचिच्छुल्कग्राहिणः केचिद्भृत्या भूत्वा स्वामिनः पदार्थान् हरंति केचिच्छलकपटाभ्यां परराज्यानि स्वीकुर्वंति केचिद्धर्मोपदेशेन जनान् भ्रामयित्वा गुरवो भूत्वा शिष्यपदार्थान् हरंति केचित्प्राड्विवाकाः संतो जनान्विवादयित्वा पदार्थान् हरंति केचिन्न्यायासने स्थित्वा शुल्कादिकं स्वीकृत्य मित्रभावेन वाऽन्यायं कुर्वन्त्येतदादयस्सर्वे चोरा विज्ञेयाः। एतान् सर्वोपायैर्निवर्त्य मनुष्यैर्धर्मेण राज्यं शासनीयमिति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चोर अनेक प्रकारचे असतात. कुणी डाकू, कुणी कपटाने धन हरण करणारा, कुणी मोहित करून दुसऱ्याच्या पदार्थांना ग्रहण करणारा, कुणी रात्री सुरुंग लावून ग्रहण करणारा, कुणी नाना प्रकारच्या व्यवहारी दुकानात बसून छळाने पदार्थ घेणारा, कुणी उत्कोचक अर्थात हातातून हिसकावून घेणारा, कुणी लाच घेणारा, कुणी सेवक बनून मालकाचे पदार्थ चोरणारा, कुणी छळ-कपटाने इतरांचे राज्य घेणारा, कुणी ढोंगी धर्मोपदेशक बनून माणसाचा भ्रमित गुरू बनून शिष्यांच्या पदार्थांचे हरण करणारा, कुणी प्राड्विवाक अर्थात वकील बनून माणसांना विवादात फसवून पदार्थ घेणारा तर कुणी न्यायासनावर बसून प्रजेकडून धन घेऊन अन्याय करणारा इत्यादी असतात. या सर्वांना चोर समजावे व त्यांच्याबाबत सर्व उपाय योजून माणसांनी धर्माने राज्याचे पालन करावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Pusha, saviour and protector lord, remove and throw off far from our path that highway man, that robber, who lies in ambush waiting to rob us.

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    Subject of the mantra

    Then which ones should be redressed through this path, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (pūṣan)=scholar! (tvam)=you, (tyam)=said before, (paripanthinam)=off the beaten track, (muṣīvāṇam)=by ending the act of theft, (huraścitam)=to the corrupt and those who accept other's material by hand, (anekavidham)=in many ways, (stenam) =to the thieves, (sruteḥ)=flowing like a stream, by the way they go, by that, (adhi) =above, (dūram)=to a distant place, (aja)=throw it away.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! Leaving aside the pernicious way you said earlier, you put an end to the act of theft, corruptors and those who take other's property by hand, thieves in many ways, the path that flows like a stream, throw it away above to a distant place.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are many types of thieves, some who are robbers, some who defeat others by deceit, some who take someone else's goods by luring them, some who steal others' goods by digging tunnels at night, some who live in different types of business places and steal money from others by deceit in the markets. Someone steals the goods, some by posing as a fee collector, some by posing as a servant, some by posing as a master. Someone acquires the kingdoms of others through deceit and fraud. Someone misleads people with the teachings of righteousness and poses as a guru and takes away the wealth of the disciples, someone poses as a lawyer and embroils people in disputes and steals the wealth and someone sits on the seat of justice and does injustice to the subjects. This is how all these thieves should be known. By removing them from all measures, people should rule the state with righteousness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who else are to be removed from this path is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander-in-chief of the army or the President of the Assembly, trample with your feet upon the mischievous army of that evil-minded pilferer or double-tongued person of both kinds of things seen and un-seen or what is present and what is absent), who ever he may be.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (द्वयाविनः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोः परपदार्थापहर्तुः ।। = The stealer of the articles seen or unseen. (तपुषिम् ) श्रेष्ठानां सन्तापिकां सेनाम् || = Mischievous army. (अघशंसस्य ) स्तेनस्य अघशंस इति स्तेननाम ( निघ०३.२४) = Of the thief.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The dispensers of justice should never leave a thief without giving him suitable punishment, otherwise the people will suffer. Therefore, for the protection of the people, it is necessary to give punishment to all guilty persons even if they be the parents, preceptors and friends of the officers concerned.

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