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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - पूषा छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं तस्य॑ द्वया॒विनो॒ऽघशं॑सस्य॒ कस्य॑ चित् । प॒दाभि ति॑ष्ठ॒ तपु॑षिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तस्य॑ । द्व॒या॒विनः॑ । अ॒घऽशं॑सस्य । कस्य॑ । चि॒त् । प॒दा । अ॒भि । ति॒ष्ठ॒ । तपु॑षिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित् । पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । तस्य । द्वयाविनः । अघशंसस्य । कस्य । चित् । पदा । अभि । तिष्ठ । तपुषिम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (त्वम्) पूर्वोक्तः पूषा (तस्य) पूर्वोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य च (द्वयाविनः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोः परपदार्थापहर्तुः (अघशंसस्य) स्तेनस्य। अघशंस इति स्तेननामसु पठितम्। निघं० ३।२४। (कस्य) किंत्वमितिवदतः (चित्) अपि (पदा) पादाक्रमणेन (अभितिष्ठ) स्थिरो भव (तपुषिम्) श्रेष्ठानां संतापकारिकां सेनाम् ॥४॥

    अन्वयः

    पुनरेतेषां चोराणां का गतिः कार्य्येत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे पूषन्सेनासभाध्यक्ष ! त्वं तस्य द्वयाविनः कस्य चिदघशंसस्य तपुषिं पदाभितिष्ठ पादाक्रांतां कुरु ॥४॥

    भावार्थः

    नैव न्यायकारिभिर्मनुष्यैः कस्यापराधिनश्चोरस्य दण्डदानेन विना त्यागः कर्त्तव्यः। नोचेत्प्रजा पीडिता स्यात्तस्मात्प्रजारक्षणार्थं दुष्टकर्मकारिणः पित्राचार्य्यमातृपुत्रमित्रादयोऽपि सदैव यथाऽपराधं ताडनीयाः ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इन पूर्वोक्त चोरों की क्या गति करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे सेनासभाध्यक्ष ! (त्वम्) आप (तस्य) उस (द्वयाविनः) प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष औरों के पदार्थों को हरने वाले (कस्यचित्) किसी (अघशंसस्य) (तपुषिम्) चोरों की सेना को (पदाभितिष्ठ) बल से वशीभूत कीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    न्याय करनेवाले मनुष्यों को उचित है कि किसी अपराधी चोर को दण्ड देने विना छोड़ना कभी न चाहिये, नहीं तो, प्रजा पीड़ायुक्त होकर नष्ट भ्रष्ट होने से राज्य का नाश होजाय इस कारण प्रजा की रक्षा के लिये दुष्ट कर्म करनेवाले अपराध किये हुए माता-पिता, आचार्य्य और मित्र आदि को भी अपराध के योग्य ताड़ना अवश्य देनी चाहिये ॥४॥

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    विषय

    द्वयावी - अघशंस

    पदार्थ

    १. हे (पूषन्) - पोषकदेव ! (त्वम्) - आप (तस्य) - उस (कस्यचित्) - किसी के भी, अथवा पराया जो कोई भी वह हो, चाहे राजपुत्र भी हो, उस (द्वयाविनः) - सामने वा पीछे अपहरण करनेवाले - प्रत्यक्षापहार व परोक्षापहार से युक्त (अघशंसस्य) - हमारे विषय में अनिष्ट अघ [कपट] का शंसन करनेवाले पुरुष के (तपुषिम्) - इस परसन्तापक देह को (पदा, अभितिष्ठ) - पाँवों से आक्रान्त करके स्थित हो । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा को चाहिए कि द्वयावी, अघशंस पुरुषों को पैरों - तले कुचल दे । प्रभु से भी यही आराधना है कि इन लोगों का परसन्तापक देह नष्ट ही हो जाए । 
     

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    विषय

    पूषा, पृथ्वी के समान प्रजापालक राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन्! (त्वं) तू (द्वयाविनः) आंख के सामने, देखते देखते, और पीठ पीछे दोनों प्रकार से पदार्थ चुराने वाले, (अघशंसस्य) पाप और हत्यादि करने की घात में लगे, (कस्य चित्) क्या तेरा क्या तेरा करके चुरानेवाले (तस्य) उस उस नाना प्रकार के दुष्ट पुरुष के (तपुषिम्) प्रजा को सन्ताप देनेवाले गण के (पदा) ऊपर पैर रखकर, उन पर बलपूर्वक शासन करके (अभि तिष्ठ) उनका मुकाबला कर, उनको वीरतापूर्वक दबा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर इन पूर्वोक्त चोरों की क्या गति करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे पूषन् सेनासभाध्यक्ष ! त्वं तस्य द्वयाविनः कस्य चित् अघशंसस्य तपुषिं पदा अभितिष्ठ पादाक्रांतां कुरु ॥४॥

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पोषकविद्यया पुष्टिकारक विद्वन्= पोषक विद्या के द्वारा पोषण करनेवाले विद्वान्, (सेनासभाध्यक्ष)=सेना और सभा के अध्यक्ष! (त्वम्) पूर्वोक्तः पूषा=तुम, (तस्य) पूर्वोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य च=तुम्हारे द्वारा कहे गये, (द्वयाविनः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोः परपदार्थापहर्तुः= प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दूसरों के पदार्थों को चुराने के लिये, (कस्य) किंत्वमितिवदतः = तुम ऐसा क्या बोलते हो, (चित्) अपि अघशंसस्य= बुराई की कामना करनेवाले की, (तपुषिम्) श्रेष्ठानां संतापकारिकां सेनाम्= परेशानी पैदा करनेवाली श्रेष्ठ सेना, (पदा) पादाक्रमणेन=पैरों के आक्रमण से, (अभितिष्ठ) स्थिरो भव= स्थिर कर दो, [अर्थात्] (पादाक्रांताम्)=कदमों से परास्त, (कुरु)= करो ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    न्याय करनेवाले मनुष्यों के द्वारा किसी अपराधी चोर को दण्ड दिये विना कभी छोड़ना नहीं चाहिये। नहीं तो प्रजा पीड़ित हो जाती है, इसलिये प्रजा की रक्षा के लिये दुष्ट कर्म करनेवाले, माता-पिता, आचार्य, माता, पुत्र, मित्र आदि को भी सदा अपराध के अनुसार ताड़ना दण्ड दिया जाना चाहिये ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (पूषन्) पोषक विद्या के द्वारा पोषण करनेवाले विद्वान्, (सेनासभाध्यक्ष) सेना और सभा के अध्यक्ष! (त्वम्) तुम (तस्य) अपने कहे गये (द्वयाविनः) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दूसरों के पदार्थों को चुराने के लिये, (कस्य) तुम ऐसा क्या बोलते हो। (चित्) बुराई की कामना करनेवाले की (तपुषिम्) परेशानी पैदा करनेवाली श्रेष्ठ सेना को (पदा) पैरों के आक्रमण से (अभितिष्ठ) स्थिर कर दो, [अर्थात्] (पादाक्रांताम्) कदमों से परास्त (कुरु) कर दो ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (त्वम्) पूर्वोक्तः पूषा (तस्य) पूर्वोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य च (द्वयाविनः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोः परपदार्थापहर्तुः (अघशंसस्य) स्तेनस्य। अघशंस इति स्तेननामसु पठितम्। निघं० ३।२४। (कस्य) किंत्वमितिवदतः (चित्) अपि (पदा) पादाक्रमणेन (अभितिष्ठ) स्थिरो भव (तपुषिम्) श्रेष्ठानां संतापकारिकां सेनाम् ॥४॥ विषयः - पुनरेतेषां चोराणां का गतिः कार्य्येत्युपदिश्यते। अन्वयः - हे पूषन्सेनासभाध्यक्ष ! त्वं तस्य द्वयाविनः कस्य चिदघशंसस्य तपुषिं पदाभितिष्ठ पादाक्रांतां कुरु ॥४॥ पदार्थः(महर्षिकृत)- (त्वम्) पूर्वोक्तः पूषा (तस्य) पूर्वोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य च (द्वयाविनः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोः परपदार्थापहर्तुः (अघशंसस्य) स्तेनस्य। अघशंस इति स्तेननामसु पठितम्। निघं० ३।२४। (कस्य) किंत्वमितिवदतः (चित्) अपि (पदा) पादाक्रमणेन (अभितिष्ठ) स्थिरो भव (तपुषिम्) श्रेष्ठानां संतापकारिकां सेनाम् ॥४॥ भावार्थः (महर्षिकृत)- नैव न्यायकारिभिर्मनुष्यैः कस्यापराधिनश्चोरस्य दण्डदानेन विना त्यागः कर्त्तव्यः। नोचेत्प्रजा पीडिता स्यात्तस्मात्प्रजारक्षणार्थं दुष्टकर्मकारिणः पित्राचार्य्यमातृपुत्रमित्रादयोऽपि सदैव यथाऽपराधं ताडनीयाः ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    न्यायाधीशाने अपराधी चोराला दंड दिल्याशिवाय कधी सोडू नये; अन्यथा प्रजेला त्रास होऊन ती नष्ट भ्रष्ट झाल्यास राज्याचा नाश होतो. यामुळे प्रजेच्या रक्षणासाठी दुष्ट कर्म करणाऱ्या अपराधी माता, पिता, पुत्र, आचार्य व मित्र इत्यादींनाही अपराधाप्रमाणे योग्य शिक्षा द्यावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, whosoever the sinner, thief or robber, overt or covert, suppress, and keep his oppressive force under foot.

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    Subject of the mantra

    Then what should be done for these aforesaid thieves, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (pūṣan)=scholars who subsists through supporting knowledge, [aura]=and, (senāsabhādhyakṣa)=president of the army and assembly! (tvam)=you, (tasya)=your said, (dvayāvinaḥ)=to steal other people's perceptible, and imperceptible goods, (kasya)=what do you say like this, (cit)=of ill-wisher, (tapuṣim)=to the trouble makers best army, (padā)=by foot attack, (abhitiṣṭha)=stabilize, [arthāt]=I e, (pādākrāṃtām)=defeated by steps, (kuru)=do it.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who subsist through supporting knowledge and president of army and assembly! What do you say like this in order to steal other people's goods, said by you which are perceptible and imperceptible. With the attack of the feet, stabilize the superior army of the one who wishes evil, that is, defeat it with the feet.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Justice-seeking people should never let a criminal thief go without punishing him. Otherwise, the people suffer, therefore, to protect the people, those who do evil deeds, parents, teachers, mothers, sons, friends, etc. should always be chastised and punished according to their crime.

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