ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 7
अति॑ नः स॒श्चतो॑ नय सु॒गा नः॑ सु॒पथा॑ कृणु । पूष॑न्नि॒ह क्रतुं॑ विदः ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । नः । स॒श्चतः॑ । न॒य॒ । सु॒ऽगा । नः॒ । सु॒ऽपथा॑ । कृ॒णु॒ । पूष॑न् । इ॒ह । क्रतु॑म् । वि॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥
स्वर रहित पद पाठअति । नः । सश्चतः । नय । सुगा । नः । सुपथा । कृणु । पूषन् । इह । क्रतुम् । विदः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशानस्मान्सम्पादयेदित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे पूषन् परमात्मन् सभाध्यक्ष ! वा त्वमिह सश्चतो नोऽस्मान् सुगा सुपथाऽतिनय नोऽस्मान् क्रतुं विदः ॥७॥
पदार्थः
(अति) अत्यन्तार्थे (नः) अस्मान् (सश्चतः) विज्ञानवतो विद्याधर्मप्राप्तान् (नय) प्रापय (सुगा) सुख गच्छन्ति प्राप्नुवति यस्मिन् तेन (नः) अस्मान् (सुपथा) विद्याधर्मयुक्तेनाप्तमार्गेण (कृणु) कुरु (पूषन्) सर्वपोषकेश्वर प्रजापोषक सभाध्यक्ष वा (इह) अस्मिन्समये संसारे वा (क्रतुम) श्रेष्ठं कर्म प्रज्ञां वा क्रतुरिति कर्म्मना०। निघं० १।२। प्रज्ञाना० निघं० ३।९। (विदः) प्राप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयोभ० इति गुणविकल्पो लेट्प्रयोगोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। सायणाचार्य्येणेदमडागमेन साधितम्। गुणप्राप्तिर्न बुद्धाऽतोस्यानभिज्ञता दृश्यते ॥७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालंकारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे जगदीश्वर ! भवान् कृपयाऽधर्ममार्गादस्मान्निवर्त्य धर्ममार्गेण नित्यं गमयत्विति। विद्वानपि प्रष्टव्यः सेवनीयश्च भवान्नोऽस्माञ्छुद्धेन सरलेन वेदविद्यामार्गेण गमयत्विति ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह हम लोगों को किस प्रकार के करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (पूषन्) सबको पुष्ट करनेवाले जगदीश्वर वा प्रजा का पोषण करने हारे सभाध्यक्ष विद्वान् ! आप (इह) इस संसार वा जन्म में (सश्चतः) विज्ञान युक्त विद्या धर्म को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (सुगा) सुख पूर्वक जानेके योग्य (सुपथा) उत्तम विद्या धर्म युक्त विद्वानों के मार्ग से (अतिनय) अत्यन्त प्रयत्न से चलाइये और हम लोगों को उत्तम विद्यादि धर्म मार्ग से (क्रतुम्) उत्तम कर्म वा उत्तम प्रज्ञा से (विदः) जानने वाले कीजिये ॥७॥
भावार्थ
इस मंत्र में श्लेषालंकार है। सब मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये कि हे जगदीश्वर ! आप कृपा करके अधर्म मार्ग से हम लोगों को अलग कर धर्म मार्ग में नित्य चलाइये तथा विद्वान् से पूछना वा उसका सेवन करना चाहिये कि हे विद्वान् ! आप हम लोगों को शुद्ध सरल वेद विद्या से सिद्ध किये हुए मार्ग में सदा चलाया कीजिये ॥७॥
विषय
सुपथ से चलना
पदार्थ
१. हे प्रभो ! आप (नः) - हमें (सश्चतः) - [सश्च् गतौ] मार्ग में बाधा डालने के लिए प्राप्त होते हुए शत्रुओं को (अति नय) - हमें लांघकर दूसरी जगह प्राप्त कराइए, अर्थात् हमें मार्ग में रुकावट डालनेवाले शत्रु प्राप्त न हों ।
२. (नः) - हमें (सुगा) - सुगमता से चलने योग्य (सुपथा) - उत्तम मार्ग से (कृणु) - जानेवाला बनाइए । हम आपकी कृपा से सदा उस पथ से ही चलें जिसमें कि व्यर्थ की उलझनें नहीं हैं ।
३. हे (पूषन्) - पोषक प्रभो ! आप (इह) - इस जीवन - यात्रा में हमें (क्रतुं विदः) - क्रतु को प्राप्त कराइए । निघण्टु २/१ में 'क्रतु' कर्म का नाम है । प्रभु हमें कर्मशक्ति प्राप्त कराएँ । नि० ३/९ में 'क्रतु' प्रजा का नाम है । प्रभु हमें प्रज्ञा - सम्पन्न करें । शतपथ ३/३/४/७ में "क्रतुमनोजवः" इन शब्दों में मनोजव व संकल्प को क्रतु कहा है । प्रभु हमें यह संकल्पशक्ति दें । वस्तुतः हमें हाथों में कर्मशक्ति प्राप्त कराएँ, मन में संकल्पशक्ति दें और मस्तिष्क को प्रज्ञा - सम्पन्न करें । इस प्रकार शरीर, मन व मस्तिष्क में क्रतु को प्राप्त करके हम सदा सुपथ से ही चलें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभुकृपा से क्रतु - सम्पन्न होकर सुपथ से सुगमतापूर्वक आगे बढ़ने में प्रवृत्त हों ।
विषय
नानाप्रकार के दुष्टों का दमन, ऐश्वर्यों का संञ्चय ।
भावार्थ
हे (पूषन्) समस्त जगत् के पोषक परमेश्वर! राष्ट्र प्रजा के पोषक राजन्! विद्वन्! (नः) हम लोगों को (सुगा) सुख से जाने योग्य (सुपथा) उत्तम मार्ग से (अति कृणु) सब विध्न बाधाओं से पार कर। और हमें (सश्चतः कृणु) उद्देश्यों तक पहुंचने वाला बना। (इह) इस संसार में तू ही (क्रतुम्) कर्त्तव्यों और ज्ञानों को (विदः) जानता और बनाता है हमें भी आकर ज्ञान करा। हे विद्वन्! तू उन सब कर्त्तव्यों और विज्ञानों को स्वयं (विदः) जान और जना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह हम लोगों को किस प्रकार के करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे पूषन् परमात्मन् सभाध्यक्ष ! वा त्वम् इह सश्चतः नःअस्मान् सुगा सुपथा अति नय नः अस्मान् क्रतुं विदः ॥७॥
पदार्थ
हे (पूषन्) सर्वपोषकेश्वर प्रजापोषक सभाध्यक्ष वा=प्रजा सहित सबके पोषक और सभा के अध्यक्ष परमेश्वर! (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन्समये संसारे वा=इस समय या इस संसार में, (सश्चतः) विज्ञानवतो विद्याधर्मप्राप्तान्=विशेष ज्ञानवाले विद्या के धर्म को प्राप्त किये हुए, (नः) अस्मान्=हमें, (सुगा) सुख गच्छन्ति प्राप्नुवति यस्मिन् तेन=जिनसे सुख प्राप्त होते हैं, ऐसे (अति) अत्यन्तार्थे=अत्यन्त, (सुपथा) विद्याधर्मयुक्तेनाप्तमार्गेण= विद्या और धर्म से युक्त आप्त पुरुषों के मार्ग से, (नय)=ले जाइये, (नः) अस्मान्=हमें, (क्रतुम्) श्रेष्ठं कर्म प्रज्ञां वा क्रतुरिति= श्रेष्ठ कर्म और प्रज्ञा, (विदः) प्राप्नुहि=[का ज्ञान हमें]प्राप्त कराइये ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में श्लेषालंकार है। सब मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये। हे जगदीश्वर ! आप कृपा करके अधर्म मार्ग से हम लोगों को वापस करके धर्म मार्ग में नित्य चलाइये। विद्वान् से भी पूछना और उसका सेवन करना चाहिये कि वे हम लोगों को शुद्ध और सरल वेद विद्या से सिद्ध किये हुए मार्ग में सदा चलाया करें॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (पूषन्) प्रजा सहित सबके पोषक और सभा के अध्यक्ष परमेश्वर! (त्वम्) तुम (इह) इस समय या इस संसार में (सश्चतः) विशेष ज्ञानी और विद्या के धर्म को प्राप्त किये हुए (नः) हमें (सुगा) जिनसे सुख प्राप्त होते हैं, ऐसे (अति) अत्यन्त (सुपथा) विद्या और धर्म से युक्त आप्त पुरुषों के मार्ग से (नय) ले जाइये। (नः) हमें (क्रतुम्) श्रेष्ठ कर्म, प्रज्ञा और क्रतु अर्थात् वैदिक अनुष्ठान (विदः) [का ज्ञान हमें] प्राप्त कराइये ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (अति) अत्यन्तार्थे (नः) अस्मान् (सश्चतः) विज्ञानवतो विद्याधर्मप्राप्तान् (नय) प्रापय (सुगा) सुख गच्छन्ति प्राप्नुवति यस्मिन् तेन (नः) अस्मान् (सुपथा) विद्याधर्मयुक्तेनाप्तमार्गेण (कृणु) कुरु (पूषन्) सर्वपोषकेश्वर प्रजापोषक सभाध्यक्ष वा (इह) अस्मिन्समये संसारे वा (क्रतुम) श्रेष्ठं कर्म प्रज्ञां वा क्रतुरिति कर्म्मना०। निघं० १।२। प्रज्ञाना० निघं० ३।९। (विदः) प्राप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयोभ० इति गुणविकल्पो लेट्प्रयोगोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। सायणाचार्य्येणेदमडागमेन साधितम्। गुणप्राप्तिर्न बुद्धाऽतोस्यानभिज्ञता दृश्यते ॥७॥ विषयः- पुनः स कीदृशानस्मान्सम्पादयेदित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पूषन् परमात्मन् सभाध्यक्ष ! वा त्वमिह सश्चतो नोऽस्मान् सुगा सुपथाऽतिनय नोऽस्मान् क्रतुं विदः ॥७॥ भावार्थः (महर्षिकृत)- अत्र श्लेषालंकारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे जगदीश्वर ! भवान् कृपयाऽधर्ममार्गादस्मान्निवर्त्य धर्ममार्गेण नित्यं गमयत्विति। विद्वानपि प्रष्टव्यः सेवनीयश्च भवान्नोऽस्माञ्छुद्धेन सरलेन वेदविद्यामार्गेण गमयत्विति ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांनी ईश्वराची प्रार्थना या प्रकारे केली पाहिजे की हे जगदीश्वरा ! तू कृपा करून अधर्म मार्गापासून आम्हाला दूर करून धर्ममार्गात नित्य वळव व विद्वानांना विचारले पाहिजे की हे विद्वाना ! तू आम्हाला शुद्ध सरळ वेदविद्येने सिद्ध केलेल्या मार्गानेच सदैव ने ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Pusha, lord of light and enlightenment, save us from the enemy, take us far on way to knowledge by the simplest noble path. Let us have the light and vision of good yajnic action.
Subject of the mantra
Then what kind of things should he do to us, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (pūṣan)=the Supreme Lord, the one who nourishes all including the subjects and the President of the assembly! (tvam)=you, (iha)=at this time or in this world, (saścataḥ) Specially knowledgeable and having attained the practice of knowledge, (naḥ)=to us,(sugā)=from whom happiness is derived, such, (ati)=excessive, (supathā)=by the path of men endowed with learning and righteousness, (naya)=take away, (naḥ)=to us, (kratuma)=best karma, Prajna (wisdom) and Kratu i.e. Vedic Rituals (vidaḥ)=get obtained, [kā jñāna hameṃ]= knowledge to us.
English Translation (K.K.V.)
O Supreme Lord, the one who nourishes all including the subjects and the President of the assembly! At this time or in this world, you have attained the righteousness of special knowledge, from whom we get happiness, take us from the path of such people who are very knowledgeable and righteousness.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra. All human beings should pray to God in this way. O god! Please turn us back from the path of unrighteousness and make us follow the path of righteousness daily. We should also ask and make use of the scholars so that they always guide us in the pure and simple path accomplished by the knowledge of Vedas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should he (Poosha) make us is taught in the Seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O pooshan (God or the President of the Assembly) fill us with knowledge and righteousness. Conduct us by an easy and pleasant path which is trodden by the wise endowed with knowledge and Dharma (righteousness ). Make us full of knowledge and the power of action.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सञ्चतः) विज्ञानवतो विद्याधर्मप्राप्तान् = Full of knowledge and Dharma (righteousness). ( सुपथा ) विद्याधर्मयुक्तेन आप्तमार्गेण = By noble path trodden by the wise endowed with wisdom and Dharma. ( पूषन् ) सर्वपोषकेश्वर प्रजापोषक सभाध्यक्ष वा = O God the nourisher of all or the President of the Assembly who protects all. (विद:) प्राप्नुहि । अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति गुणविकल्पो लेट् प्रयोगः अन्तर्गतोण्यर्थच । सायणाचार्येणेदमडागमेन साधितम् । गुणप्राप्तिर्न बुद्धा अतोऽस्यानभिज्ञता दृश्यते ||
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Shleshalankara or double entendre. All men should thus pray to the Lord of the Universe. O God, take us away from the path of evil and lead us towards the path of Dharma. Learned persons also should be served and requested to conduct us by the pure and easy Vedic Path.
Translator's Notes
Thus Rishi Dayananda has pointed out a serious grammatical blunder committed by Sayanacharya. सञ्चति गतिकर्मा ( निघ० २.१४) गतेस्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानप्राप्त्यर्थ ग्रहणम् || Knowledge and attainment-these two meanings of the verb have been taken here by Rishi Dayananda.
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