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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ तत्ते॑ दस्र मन्तुमः॒ पूष॒न्नवो॑ वृणीमहे । येन॑ पि॒तॄनचो॑दयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तत् । ते॒ । द॒स्र॒ । म॒न्तु॒ऽमः॒ । पू॒ष॒न् । अवः॑ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । येन॑ । पि॒तॄन् । अचो॑दयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे । येन पितॄनचोदयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तत् । ते । दस्र । मन्तुमः । पूषन् । अवः । वृणीमहे । येन । पितॄन् । अचोदयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (आ) समन्तात् (तत्) पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं च (ते) तव (दस्र) दुष्टानामुपक्षेप्तः (मन्तुमः) मन्तुः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ (पूषन्) सर्वथा पुष्टिकारक (अवः) रक्षणादिकम् (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि (येन) (पितॄन्) वयोज्ञानवृद्धान् (अचोदयः) धर्मे प्रेरयेः। अत्र लिङर्थे लङ् ॥५॥

    अन्वयः

    पुनः स न्यायाधीशः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे दस्र ! मन्तुमः पूषन् विद्वँस्त्वं येन पितॄनचोदयस्तत् ते तवाऽवो रक्षणादिकं वयं वृणीमहे ॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्या यथा प्रेमप्रीत्या सेवनेन जनकादीनध्यापकादीन् ज्ञानवयोवृद्धांश्च प्रीणयेयुस्तथैव सर्वासां प्रजानां सुखाय दुष्टान् दण्डयित्वा श्रेष्ठान्सुखयेयुः ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह न्यायाधीश कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (दस्र) दुष्टों को नाश करने (मन्तुमः) उत्तम ज्ञानयुक्त (पूषन्) सर्वथा पुष्टि करनेवाले विद्वान् ! आप (येन) जिस रक्षादि से (पितॄन्) अवस्था वा ज्ञान से वृद्धों को (अचोदयः) प्रेरणा करो (तत्) उस (ते) आपके (अवः) रक्षादि को हम लोग (आवृणीमहे) सर्वथा स्वीकार करें ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे प्रेम प्रीति के साथ सेचन करने से उत्पन्न करने वा पढ़ानेवाले ज्ञान वा अवस्था से वृद्धों को तृप्त करें वैसे ही सब प्रजाओं के सुख के लिये दुष्ट मनुष्यों को दण्ड दे के धार्मिकों को सदा सुखी रक्खें ॥५॥

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    विषय

    पितरों द्वारा पोषण

    पदार्थ

    १. हे (दस्र) - दुष्टों का उपक्षय करनेवाले ! (मन्तुमः) - विचारशील ज्ञानी (पूषन्) - सबके पोषकदेव ! (ते) - आपके (तत् अवः) - उस रक्षण को (आवृणीमहे) - हम सर्वथा वरण करते हैं (येन) - जिस रक्षण के हेतु से आप (पितॄन्) - माता - पिता, आचार्य व अतिथि आदि पितरों को (अचोदयः) - प्रेरित करते हैं । 
    २. प्रभु के रक्षण का प्रकार यही है कि वे हमारे माता - पिता आदि को इस प्रकार उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराते हैं कि वे हमारे रक्षण के लिए पूर्ण प्रयत्नशील होते हैं । प्रभुकृपा से उन्हें ऐसी शक्ति मिलती है कि वे प्रभु के निमित्त [Agent] बनकर हमारा रक्षण करते हैं । वस्तुतः उनके द्वारा प्रभु ही रक्षण कर रहे होते हैं । सब दुष्टों का उपक्षय करनेवाले प्रभु ही हैं । सब उत्तम विचार व ज्ञान के स्रोत प्रभु ही हैं, वे ही पोषण करनेवाले हैं । 
     

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    विषय

    पूषा, पृथ्वी के समान प्रजापालक राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (दस्र) दुष्टों के नाश करनेहारे! हे (मन्तुमः) उत्तम ज्ञान और मनन सामर्थ्यवाले! हे (पूषन्) प्रजा के पोषक राजन्! (येन) जिस शासन-बल से तू (पितृन्) माँ बाप के समान प्रजा के पालक अधिकारी पुरुषों को (अचोदयः) प्रेरित करता है, हम (ते) तेरे (तत्) उस (अवः) प्रजा के रक्षण तथा व्यवहार को (वृणीमहे) चाहते हैं। इति चतुर्विशो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह न्यायाधीश कैसा होवे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे दस्र ! मन्तुमः पूषन् विद्वँस्त्वं येन पितॄनचोदयस्तत् ते तवाऽवो रक्षणादिकं वयं वृणीमहे ॥५॥

    पदार्थ

    हे (दस्र) दुष्टानामुपक्षेप्तः= दुष्टों को नष्ट करनेवाले! (मन्तुमः) मन्तुः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ= प्रशंसनीय ज्ञानी मनुष्य, (पूषन्) सर्वथा पुष्टिकारक= सम्पूर्ण रूप से, (विद्वन्)= विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (येन)=जिस, (पितॄन्) वयोज्ञानवृद्धान्= जो आयु से ज्ञानवृद्ध हैं, वे (अचोदयः) धर्मे प्रेरयेः=हमें धर्म में प्रेरित करें, (तत्) पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं च=और पूर्व में कहे गये प्रशंसनीय ज्ञानी मनुष्य आदि, (ते) तव=तुम्हारी, (अवः) रक्षणादिकम्=रक्षा आदि के कार्य को, (वयम्)=हम, (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि=स्वीकार करते हैं ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे प्रेम और प्रीति के साथ सेवन करने से पिता और पढ़ानेवाले ज्ञान और अवस्था से वृद्ध तृप्त होते हैं, वैसे ही सब प्रजाओं के सुख के लिये दुष्ट मनुष्यों को दण्ड दे के श्रेष्ठों को सदा सुखी रखना चाहिए ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (दस्र) दुष्टों को नष्ट करनेवाले! (मन्तुमः) प्रशंसनीय ज्ञानी मनुष्य और (पूषन्) सम्पूर्ण रूप से पुष्टिकारक (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (येन) जिससे (पितॄन्) आयु से ज्ञानवृद्ध हैं, वे [हमें धर्म मार्ग में] (अचोदयः) प्रेरित करें (तत्) और पूर्व में कहे गये प्रशंसनीय ज्ञानी मनुष्य आदि (ते) तुम्हारी (अवः) रक्षा आदि के कार्य को (वयम्) हम (वृणीमहे) स्वीकार करते हैं ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (आ) समन्तात् (तत्) पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं च (ते) तव (दस्र) दुष्टानामुपक्षेप्तः (मन्तुमः) मन्तुः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ (पूषन्) सर्वथा पुष्टिकारक (अवः) रक्षणादिकम् (वृणीमहे) स्वीकुर्वीमहि (येन) (पितॄन्) वयोज्ञानवृद्धान् (अचोदयः) धर्मे प्रेरयेः। अत्र लिङर्थे लङ् ॥५॥ विषयः - पुनः स न्यायाधीशः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे दस्र ! मन्तुमः पूषन् विद्वँस्त्वं येन पितॄनचोदयस्तत् ते तवाऽवो रक्षणादिकं वयं वृणीमहे ॥५॥ पदार्थन्वयः(म.द.स.)- हे दस्र ! मन्तुमः पूषन् विद्वन् त्वं येन पितॄन् अचोदयः तत् ते तव अवः रक्षणादिकं वयं वृणीमहे ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- मनुष्या यथा प्रेमप्रीत्या सेवनेन जनकादीनध्यापकादीन् ज्ञानवयोवृद्धांश्च प्रीणयेयुस्तथैव सर्वासां प्रजानां सुखाय दुष्टान् दण्डयित्वा श्रेष्ठान्सुखयेयुः ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे ज्ञानवृद्ध व वयोवृद्ध पिता, अध्यापक यांना प्रेमाने तृप्त केले जाते तसे सर्व प्रजेच्या सुखासाठी दुष्ट माणसांना दंड देऊन धार्मिक लोकांना सदैव सुखी ठेवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Pusha, wondrous destroyer of evil, generous saviour and protector, lord of knowledge, we pray for your love, grace and protection by which you inspire and enlighten our parents and seniors (to follow the right path).

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    Subject of the mantra

    Then how should that judge be, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dasra)=destroyer of the wicked! (mantumaḥ)=admirable learned man and, (pūṣan)=fully nourishing, (vidvan)=scholar, (yena) =by which, (pitṝn) wise with age, they, [hameṃ dharma mārga meṃ]=to us in the way of righteousness, (acodayaḥ)=must inspire, (tat)=and the admirable learned man etc., said earlier, (te)=your, (avaḥ)=the work of defense etc. (vayam)=we,(vṛṇīmahe)=accept.

    English Translation (K.K.V.)

    O destroyer of the wicked, admirable and fully nourishing scholar! You are wise with age and inspire us in the way of righteousness as said earlier, We accept the work of protecting praiseworthy knowledgeable man like you et cetera. 5

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as by consuming food with love and affection, fathers and teachers and elders are satisfied with their knowledge and status, in the same way, for the happiness of all the subjects, the good ones should always be kept happy by punishing the wicked people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a dispenser of justice (or a Judge) should be is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O nourisher, learned person ( dispenser of justice ), O destroyer of the wicked, possessing good knowledge or wisdom, we solicit of thee that protection, knowledge and love where with thou promptest elderly educated persons to tread upon the path of Dharma (righteousness).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दस्र) दुष्टानामुपक्षेप्तः = Destroyer of the wicked. ( मन्तुम: ) दसु -उपक्षये = Tr. मन्तुः प्रशस्तं ज्ञानं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ = Possessing good knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men should always satisfy and please their parents, teachers and other elderly educated persons with love and service, in the same way, they should gladden all good men by punishing the wicked for the welfare of all subjects.

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