ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 9
श॒ग्धि पू॒र्धि प्र यं॑सि च शिशी॒हि प्रास्यु॒दर॑म् । पूष॑न्नि॒ह क्रतुं॑ विदः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒ग्धि । पू॒र्धि । प्र । यं॒सि॒ । च॒ । शि॒शी॒हि । प्रासि॑ । उ॒दर॑म् । पूष॑न् । इ॒ह । क्रतु॑म् । वि॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥
स्वर रहित पद पाठशग्धि । पूर्धि । प्र । यंसि । च । शिशीहि । प्रासि । उदरम् । पूषन् । इह । क्रतुम् । विदः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(शग्धि) सुखदानाय समर्थोऽसि। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (पूर्धि) प्रीणीहि सर्वाणि सुखानि संप्राप्नुहि (प्र) प्रकृष्टार्थे (यंसि) यच्छ। दुष्टेभ्यः कर्मभ्य उपरतोऽसि। अत्र लोडर्थे लट्। (च) समुच्चये (शिशीहि) सुखेन शयनं कुरु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (प्रासि) सर्वाणि सेनांगानि प्रजांगानि च प्रपूर्धि (उदरम्) #श्रेष्ठैर्भोजनादिभिस्तृप्यतु (पूषन्) सेनाध्यक्ष (इह) प्रजासुखे (क्रतुम्) युद्धप्रज्ञां कर्म वा (विदः) प्राप्नुहि ॥९॥ #[लडरम्। सं०]
अन्वयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे पूषन् सभासेनाद्यध्यक्ष ! त्वं सेनाप्रजांगानि शग्धि पूर्द्धि प्रयंसि शिशीहि नोऽस्माकमुदरं चोत्तमान्नैरिह प्रासि प्रपूर्धि क्रतुं विदः ॥९॥
भावार्थः
नहि सभासेनाध्यक्षाभ्यां विनेह कश्चित्सामर्थ्यप्रदः सुखैरलंकर्त्ता पुरुषार्थप्रदश्चोरदस्युभयनिवारकः सर्वोत्तमभोगप्रदो न्यायविद्याप्रकाशकश्च विद्यते तस्मात्तस्यैवाऽश्रयः सर्वैः कर्त्तव्यः ॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (पूषन्) सभासेनाधिपते ! आप हम लोगों के (शग्धि) सुख देने के लिये समर्थ (पूर्धि) सब सुखों की पूर्त्ति कर (प्रयंसि) दुष्ट कर्मों से पृथक् रह (शिशीहि) सुख पूर्वक सो वा दुष्टों का छेदन कर (प्रासि) सब सेना वा प्रजा के अङ्गों को पूरण कीजिये और हम लोगों के (उदरम्) उदर को उत्तम अन्नों से (इह) इस प्रजा के सुख से तथा (क्रतुम) युद्ध विद्या को (विदः) प्राप्त हूजिये ॥९॥
भावार्थ
इस मंत्र में श्लेषाऽलंकार है। सभा सेनाध्यक्ष के विना इस संसार में कोई सामर्थ्य को देने वा सुखों से अलंकृत करने पुरुषार्थ को देने चोर डाकुओं से भय निवारण करने सबको उत्तम भोग देने और न्यायविद्या का प्रकाश करनेवाला अन्य नहीं हो सकता इससे दोनों का आश्रय सब मनुष्य करें ॥९॥
विषय
पेट का ठीक होना
पदार्थ
१. हे (पूषन्) - पोषक प्रभो ! आप (शग्धि) - हमें शक्तिसम्पन्न कीजिए । शक्ति से ही तो आगे बढ़ना सम्भव होगा ।
२. (पूर्धि) - आप हमें धनों से पूरित कीजिए । उन्नति के लिए किसी भी आवश्यक धन की हमें कमी न रह जाए
३. (च) - और (प्रयंसि) - हमें दुष्ट कर्मों से पूर्णतया रोकिए । आपकी कृपा से धनादि को प्राप्त करके हम कुपथ पर न चल पड़ें ।
४. (शिशीहि) - आप हमारी बुद्धियों को तीक्ष्ण कीजिए । मन्दबुद्धि ही तो हमारे मार्गभ्रंश का कारण बनती है ।
५. (उदरम्) - हमारे उदर को (प्रासि) - न्यूनता से रहित कीजिए, उसका पूरण कीजिए । उदर के कारण शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति हुआ करती है और तब शक्तिक्षय होकर सब अवगुणों के उद्भव का भी उपक्रम होता है ।
६. हे (पूषन्) - पोषक देव ! (इह) - इस जीवन में हमें (क्रतुम् विदः) - कर्म, संकल्प व ज्ञान प्राप्त कराइए ताकि हमारा जीवन सफलता से पूर्ण हो ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन - यात्रा की पूर्ति के लिए 'शक्ति, धन, संयम, तीन बुद्धि व पेट का ठीक होना' - ये बातें अत्यन्त आवश्यक हैं । हममें संकल्प हो कि हम इन्हें अवश्य जुटाएँगे ।
विषय
नानाप्रकार के दुष्टों का दमन, ऐश्वर्यों का संञ्चय ।
भावार्थ
हे (पूषन्) सर्वपोषक! राजन्! सभा-सेनाध्यक्ष! तू (शग्धि) सब कार्य करने में समर्थ है। तू हमें (पूर्धि) समस्त ऐश्वयों से पूर्णकर। (प्र यंसि च) तू ही अच्छी प्रकार हमें सब ऐश्वर्य दान कर। (शिशीहि) तू अच्छी प्रकार तीक्ष्ण तेजस्वी हो। तू ही हमारे (उदरम्) पेटों को अन्न से (प्रासि) पूर्णकर। तू ही (क्रतुम् विदः) समस्त कर्त्तव्यों और ज्ञानों को जान और जना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे पूषन् सभासेनाद्यध्यक्ष ! त्वं सेनाप्रजांगानि शग्धि पूर्द्धि प्र यंसि शिशीहि नः अस्माकम् उदरं च उत्तमान्नैः इह प्रासि प्र पूर्धि क्रतुं विदः ॥९॥
पदार्थ
हे (पूषन्) सभासेनाद्यध्यक्ष=सभा और सेना आदि के अध्यक्ष! (त्वम्)=तुम, (सेनाप्रजांगानि)=सेना और प्रजा के अङ्गों के, (शग्धि) सुखदानाय समर्थोऽसि=सुखों को देने के लिये समर्थ हो, (पूर्धि) प्रीणीहि सर्वाणि सुखानि संप्राप्नुहि=समस्त सुखों से प्रसन्नता प्राप्त कराओ, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (यंसि) यच्छ। दुष्टेभ्यः कर्मभ्य उपरतोऽसि= दुष्ट कर्मों से पृथक् रह, (शिशीहि) सुखेन शयनं कुरु=सुख के साथ सोओ, (नः)अस्माकम्=हमें, (उदरम्) श्रेष्ठैर्भोजनादिभिस्तृप्यतु= श्रेष्ठ भोजन आदि से तृप्त करो, (च) समुच्चये=और, (उत्तमान्नैः)= उत्तम अन्न से, (इह) प्रजासुखे= प्रजा के सुख में, (प्रासि) सर्वाणि सेनांगानि प्रजांगानि च प्रपूर्धि=समस्त सेना और प्रजा के अङ्गों, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (पूर्धि) प्रीणीहि सर्वाणि सुखानि संप्राप्नुहि= समस्त सुखों से प्रसन्नता प्राप्त कराओ, (क्रतुम्) युद्धप्रज्ञां कर्म वा= युद्ध, प्रज्ञा और कर्म का, (विदः) प्राप्नुहि=[ ज्ञान हमें] प्राप्त कराइये ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभा और सेनाध्यक्ष के विना इस संसार में कोई सामर्थ्य को देनेवाला और सुखों से अलंकृत करनेवाला, पुरुषार्थ को देनेवाला, चोर डाकुओं से भय को दूर करनवाला, सबको उत्तम भोग प्रदान करनेवाला और न्यायविद्या का प्रकाश करनेवाला विद्यमान नहीं है, इसलिये उसका ही आश्रय सब मनुष्यों को करना चाहिए ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (पूषन्) सभा और सेना आदि के अध्यक्ष! (त्वम्) तुम (सेनाप्रजांगानि) सेना और प्रजा के अङ्गों को (शग्धि) सुख देने में समर्थ हो। (पूर्धि) समस्त सुखों से प्रसन्नता प्राप्त कराओ। (प्र) प्रकृष्ट रूप से, (यंसि) दुष्ट कर्मों से पृथक् रहो और (शिशीहि) सुख के साथ सोओ। (नः) हमें (उदरम्) श्रेष्ठ भोजन आदि से तृप्त करो (च) और (उत्तमान्नैः) उत्तम अन्न से (इह) प्रजा के सुख में (प्रासि) समस्त सेना और प्रजा के अङ्गों को (प्र) प्रकृष्ट रूप से, (पूर्धि) समस्त सुखों से प्रसन्न करो। (क्रतुम्) युद्ध, प्रज्ञा और कर्म का (विदः) [ ज्ञान हमें] प्राप्त कराइये ॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (शग्धि) सुखदानाय समर्थोऽसि। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (पूर्धि) प्रीणीहि सर्वाणि सुखानि संप्राप्नुहि (प्र) प्रकृष्टार्थे (यंसि) यच्छ। दुष्टेभ्यः कर्मभ्य उपरतोऽसि। अत्र लोडर्थे लट्। (च) समुच्चये (शिशीहि) सुखेन शयनं कुरु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (प्रासि) सर्वाणि सेनांगानि प्रजांगानि च प्रपूर्धि (उदरम्) श्रेष्ठैर्भोजनादिभिस्तृप्यतु (पूषन्) सेनाध्यक्ष (इह) प्रजासुखे (क्रतुम्) युद्धप्रज्ञां कर्म वा (विदः) प्राप्नुहि ॥९॥ विषयः - पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पूषन् सभासेनाद्यध्यक्ष ! त्वं सेनाप्रजांगानि शग्धि पूर्द्धि प्रयंसि शिशीहि नोऽस्माकमुदरं चोत्तमान्नैरिह प्रासि प्रपूर्धि क्रतुं विदः ॥९॥ भावार्थः (महर्षिकृत)- नहि सभासेनाध्यक्षाभ्यां विनेह कश्चित्सामर्थ्यप्रदः सुखैरलंकर्त्ता पुरुषार्थप्रदश्चोरदस्युभयनिवारकः सर्वोत्तमभोगप्रदो न्यायविद्याप्रकाशकश्च विद्यते तस्मात्तस्यैवाऽश्रयः सर्वैः कर्त्तव्यः ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सभा, सेनाध्यक्षाशिवाय या जगात कुणी सामर्थ्य देणारा, सुखाने अलंकृत करणारा, पुरुषार्थाला वाव देणारा, चोर डाकूंपासून भयाचे निवारण करणारा, सर्वोत्तम भोग देणारा, न्यायविद्येचा प्रकाश करणारा दुसरा कुणी होऊ शकत नाही. यामुळे त्याचा आश्रय सर्व माणसांनी घ्यावा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Pusha, you are the power and the glory. Give us strength and power. Give us fulfilment. Give us the wealth of life. You are the light and peace. Give us peace and lustre. Give us plenty of food to our satisfaction and delight. Know our battles of action.
Subject of the mantra
Then how is that, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (pūṣan)=President of assembly and army etc.! (tvam)=you, (senāprajāṃgāni)=to the sections of army and the subjects, (śagdhi)-are able to provide happiness, (pūrdhi)=Get happiness with all the pleasures, (pra)=excellently, (yaṃsi)=abstain from evil deeds and, (śiśīhi)=sleep with pleasure, (naḥ)=to us,(udaram)=satiate with the best of food etc., (ca)=and, (uttamānnaiḥ)=with the best foodgrain, (iha)=in the happiness of the people, (prāsi)=to all the branches of army and the people, (pra)=excellently, (pūrdhi)=please with all the pleasures, (kratum)=of war, wisdom and karma, (vidaḥ)=get obtained, [jñāna hameṃ]= knowledge us.
English Translation (K.K.V.)
O president of the assembly and the army chief etc.! You are able to provide happiness to the army and the people. Excellently, abstain from evil deeds; and sleep with happiness. Satisfy us with the best food etc. and please the army and the sections of the people with all the happiness. Grant us the knowledge of war, wisdom and karma.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without the President of the Assembly and Chief of the Army, there is no one present in this world who gives strength and adorns them with happiness, who provides capability, who removes the fear from thieves and robbers, who provides good enjoyment to all and who illuminates the knowledge of justice, therefore, all human beings need to take refuge in Him only.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How else should he (Poosha) be is taught in the Ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly or Commander of the Army, you are able to give happiness to all. Therefore be gracious to us. Fill us full, feed us and invigorate or sharpen us with vigor. Discharging your duties properly, sleep well at night, being free from all evils. Engage all your knowledge and action in bringing about the welfare of the subjects, knowing how to protect us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is none except the President of the Assembly and Commander-in-Chief of the Army who is giver of happiness, strength and encouragement for exertion, remover of all fear of the thieves and the robbers, provider of all legitimate means of good enjoyment and illuminator of justice and knowledge. Therefore all should take shelter in them. ( शग्धि ) सुखदानाय समर्थोऽसि । = Are able to give happiness. ( शिशीहि) सुखेन शयनं कुरु = Sleep well at night.
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