ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
अर्चा॑ श॒क्राय॑ शा॒किने॒ शची॑वते शृ॒ण्वन्त॒मिन्द्रं॑ म॒हय॑न्न॒भि ष्टु॑हि। यो धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा॒ रोद॑सी उ॒भे वृषा॑ वृष॒त्वा वृ॑ष॒भो न्यृ॒ञ्जते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअर्च॑ । श॒क्राय॑ । शा॒किने॑ । शची॑ऽवते । शृ॒ण्वन्त॑म् । इन्द्र॑म् । म॒हय॑न् । अ॒भि । स्तु॒हि॒ । यः । धृ॒ष्णुना॑ । शव॑सा । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । वृषा॑ । वृ॒ष॒ऽत्वा । वृ॒ष॒भः । नि॒ऽऋ॒ञ्जते॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्चा शक्राय शाकिने शचीवते शृण्वन्तमिन्द्रं महयन्नभि ष्टुहि। यो धृष्णुना शवसा रोदसी उभे वृषा वृषत्वा वृषभो न्यृञ्जते ॥
स्वर रहित पद पाठअर्च। शक्राय। शाकिने। शचीऽवते। शृण्वन्तम्। इन्द्रम्। महयन्। अभि। स्तुहि। यः। धृष्णुना। शवसा। रोदसी इति। उभे इति। वृषा। वृषऽत्वा। वृषभः। निऽऋञ्जते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्य ! यथा सूर्य्यो वृषा वृषभो वृषत्वा धृष्णुना शवसोभे रोदसी निऋञ्जते तथा यो राज्यं साध्नोति तस्मै शाकिने शचीवते शक्राय त्वमर्च तं सर्वन्यायं शृण्वन्तमिन्द्रं महयन् सन्नभिस्तुहि ॥ २ ॥
पदार्थः
(अर्च) सत्कुरु (शक्राय) समर्थाय (शाकिने) प्रशस्ताः शाकाः शक्तियुक्ता गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (शचीवते) प्रशस्ता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्मै। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (शृण्वन्तम्) श्रवणं कुर्वन्तम् (इन्द्रम्) प्रशस्तैश्वर्ययुक्तं सभाद्यध्यक्षम् (महयन्) सत्कुर्वन् (अभि) आभिमुख्ये (स्तुहि) प्रशंस (यः) (धृष्णुना) दृढत्वादिगुणयुक्तेन (शवसा) बलेन (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उभे) द्वे (वृषा) जलानां वर्षकः (वृषत्वा) सुखवर्षकाणां भावस्तानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति शेर्लोपः। (वृषभः) यो वृषान् वृष्टिनिमित्तानि भाति सः (नि) नितरां (ऋञ्जते) प्रसाध्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु०६.१) ॥ २ ॥
भावार्थः
यो गुणोत्कृष्टत्वेन सार्वभौमः सभाद्यध्यक्षो धर्मेण सर्वान् प्रशास्य धर्मे संस्थापयति स एव सर्वैर्मनुष्यैराश्रयितव्यः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम जैसे (वृषा) जल वर्षाने और (वृषभः) वर्षा के निमित्त बादलों को प्रसिद्ध करानेहारा सूर्य्य (वृषत्वा) सुखों की वर्षा के तत्त्व और (धृष्णुना) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (शवसा) आकर्षण बल से (उभे) दोनों (रोदसी) द्यावापृथिवी को (न्यृञ्जते) निरन्तर प्रसिद्ध करता है, वैसे (यः) जो तू राज्य का यथायोग्य प्रबन्ध करता है, उस (शाकिने) प्रशंसनीय शक्ति आदि गुणयुक्त (शचीवते) प्रशंसित बुद्धिमान् (शक्राय) समर्थ के लिये (अर्च) सत्कार कर, उस सबके न्याय को (शृण्वन्तम्) श्रवण करनेवाले (इन्द्रम्) प्रशंसनीय ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष का (महयन्) सत्कार करता हुआ (अभिष्टुहि) गुणों की प्रशंसा किया कर ॥ २ ॥
भावार्थ
जो गुणों की अधिकता होने से सार्वभौम सभाध्यक्ष धर्म से सबको शिक्षा देकर धर्म के नियमों में स्थापन करता है, उसी का सब मनुष्यों को सेवन वा आश्रय करना चाहिये ॥ २ ॥
विषय
'शक्ति व प्रज्ञा के निरतिशय आधार' प्रभु
पदार्थ
१. हे जीव ! तू (शक्राय) = सब कार्यों को करने की शक्ति से सम्पन्न प्रभु के लिए (अर्च) = अर्चना कर । (शाकिने) = वे प्रभु अपने भक्तों को शक्तिसम्पन्न करनेवाले हैं [शाकयति] । प्रभु के सम्पर्क में प्रभुभक्त उसी प्रकार शक्तिसम्पन्न हो जाता है जैसे कि अग्नि के सम्पर्क में लोह - शलाका शक्तिसम्पन्न हो जाती है । २.(शचीवते) = वे प्रभु प्रज्ञावाले हैं । जैसे वे प्रभु शक्ति के आधार हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान के आधार भी वे प्रभु ही हैं । प्रभुभक्त शरीर से शक्तिसम्पन्न बनता है तो मस्तिष्क में वह प्रज्ञासम्पन्न होता है । ३. ये प्रभु अपने भक्तों की प्रार्थना को सदा सुनते हैं । इस (श्रृण्वन्तम्) = प्रार्थना को सुननेवाले (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यवाले प्रभु को (महयन्) = पूजित करता हुआ तू (अभिष्टुहि) = दिन के प्रारम्भ में भी और अन्त में भी स्तुति करनेवाला बन । प्रातः - सायं दोनों समय तेरे जीवन में प्रभुस्तवन चले । यह प्रभुस्तवन ही तो तुझे तेरे जीवन के लक्ष्य का स्मरण कराएगा । ४. ये प्रभु वे हैं (यः) = जो (धृष्णुना, शवसा) = सब शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बल से (वृषा) = अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए और (वृषत्वा) = इस शक्तिशालिता से (वृषभः) = हमपर सब सुखों का वर्षण करनेवाले होते हुए (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (नि ऋञ्जते) = नितरां प्रसाधित करते हैं । वे प्रभु हमारे पृथिवीरूप शरीरों को सुदृढ़ करते हैं तो मस्तिष्करूप द्युलोक को भी ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर देते हैं । शक्ति व प्रज्ञा के निरतिशय आधारभूत वे प्रभु हमें भी शक्ति व प्रज्ञा का आधार बना देते हैं । हमारा शरीर शक्ति से शोभित होता है तो मस्तिष्क ज्ञान का निधान बन जाता है । इस शक्ति व प्रज्ञा के सम्बन्ध से हमारे सब पाप व कष्ट दूर हो जाते हैं । शक्ति व्याधियों को दूर करती है तो प्रज्ञा आधियों को ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें शक्ति देकर स्वस्थ शरीर बनाएँ और प्रज्ञा देकर स्वस्थ मनवाला करें ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे प्रजाजन ! तू (शाकिने) शक्ति से भरे हुए, बलवान् पदार्थों और पुरुषों के स्वामी, ( शक्राय ) स्वतः भी अति शक्तिशाली और ( शचीवते ) प्रज्ञावान् कर्मशक्ति से सम्पन्न और शक्तिशालिनी सेनाओं के स्वामी परमेश्वर ( अर्च ) स्तुति कर । ( इन्द्रम् शृण्वन्तम् ) सब स्थानों और सब कालों में वह परमेश्वर सुन रहा है, ऐसा जान कर ( महयन् ) ईश्वर के प्रति आदर और श्रद्धा से पूजन और अर्चन करता हुआ तू ( अभि स्तुहि ) साक्षात् सा जानकर स्तुति किया कर। इसी प्रकार (इन्द्रं शृण्वन्तम् ) प्रजाओं के न्यायव्यवहारों और कष्टों को सुनते हुए का ( महयन् ) आदर करता हुआ (अभिस्तुहि) राजा की साक्षात् स्तुति कर । (यः वृषा:) जो मेघ के समान प्रजाजनों पर जल के समान सुखों की और विजुलियों के समान शत्रुओं पर शरों की वर्षा करनेहारा है, वह ( वृषभः ) सर्व सुखवर्षक होकर ही ( उभे रोदसी) आकाश और पृथ्वी दोनों को सूर्य के समान ( वृषत्वा ) अपने वर्षण सामर्थ्य या बाँध लेनेवाले आकर्षण सामर्थ्य से राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों को ( नि ऋञ्जते ) अपने अधीन, वश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४, १० विराड्जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ७ जगती । ६ विरात्रिष्टुप् । ८,९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह मनुष्य कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्य ! यथा सूर्य्यः वृषा वृषभः वृषत्वा धृष्णुना शवसा उभे रोदसी नि ऋञ्जते तथा यः राज्यं साध्नोति तस्मै शाकिने शचीवते शक्राय त्वम् अर्च तं सर्वन्यायं शृण्वन्तम् इन्द्रं महयन् सन् अभि स्तुहि ॥२॥
पदार्थ
हे (मनुष्य)= मनुष्य ! (यथा)=जैसे, (सूर्य्यः)=सूर्य, (वृषा) जलानां वर्षकः=जलों के बरसानेवाले, (वृषभः) यो वृषान् वृष्टिनिमित्तानि भाति सः=बरसाने के लिये चमकनेवाले बादल, (वृषत्वा) सुखवर्षकाणां भावस्तानि= सुख की वर्षा करके, (धृष्णुना) दृढत्वादिगुणयुक्तेन=दृढता आदि के गुणों और, (शवसा) बलेन=बल से, (उभे) द्वे=दोनों, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ= द्यावा और पृथिवी को, (नि) नितरां= उत्कृष्टता से, (ऋञ्जते) तथा प्रसाध्नोति=सजाता है, (यः)=जो, (राज्यम्)= राज्य को, (साध्नोति)= उत्तम बनाता है, (तस्मै)=उस, (शाकिने) प्रशस्ताः शाकाः शक्तियुक्ता गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै=प्रशस्त गुणवाले, (शचीवते) प्रशस्ता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्मै= प्रशस्त प्रज्ञावाले के द्वारा, (शक्राय) समर्थाय=समर्थ के लिये, (त्वम्)=तुम, (अर्च) सत्कुरु=सत्कार करो, (तम्)=उसके, (सर्वन्यायम्)= समस्त न्याय का, (शृण्वन्तम्) श्रवणं कुर्वन्तम्= श्रवण करते हुए, और, (इन्द्रम्) प्रशस्तैश्वर्ययुक्तं सभाद्यध्यक्षम्=प्रशस्त ऐश्वर्य वाले सभा आदि के अध्यक्ष का, (महयन्) सत्कुर्वन् =सत्कार करते, (सन्)= हुए, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (स्तुहि) = उसकी प्रशंसा करो ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो गुणों की उत्कृष्टता से सार्वभौमिक सभाध्यक्ष है, वह धर्म से सबको शासित करके धर्म में स्थापित करता है, उसी पर सब मनुष्यों को आश्रित रहना चाहिये ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्य) मनुष्य ! (यथा) जैसे (सूर्य्यः) सूर्य (वृषा) जलों के बरसानेवाले, (वृषभः) बरसाने के लिये चमकनेवाले बादल (वृषत्वा) सुख की वर्षा करके (धृष्णुना) दृढता आदि के गुणों और (शवसा) बल से (उभे) दोनों, (रोदसी) द्यावा और पृथिवी को (नि) उत्कृष्टता से, (ऋञ्जते) वैसे ही सजाते हैं, (यः) जो (राज्यम्) राज्य को (साध्नोति) उत्तम बनाता है। (तस्मै) उस (शाकिने) प्रशस्त गुणवाले और (शचीवते) प्रशस्त प्रज्ञावाले के द्वारा, (शक्राय) समर्थ के लिये (त्वम्) तुम (अर्च) सत्कार करो। (तम्) उसके (सर्वन्यायम्) समस्त न्याय का (शृण्वन्तम्) श्रवण करते हुए और (इन्द्रम्) प्रशस्त ऐश्वर्य वाले सभा आदि के अध्यक्ष का (महयन्+सन्) सत्कार करते हुए (अभि) सामने से (स्तुहि) उसकी प्रशंसा करो ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अर्च) सत्कुरु (शक्राय) समर्थाय (शाकिने) प्रशस्ताः शाकाः शक्तियुक्ता गुणा विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (शचीवते) प्रशस्ता प्रज्ञा विद्यते यस्य तस्मै। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (शृण्वन्तम्) श्रवणं कुर्वन्तम् (इन्द्रम्) प्रशस्तैश्वर्ययुक्तं सभाद्यध्यक्षम् (महयन्) सत्कुर्वन् (अभि) आभिमुख्ये (स्तुहि) प्रशंस (यः) (धृष्णुना) दृढत्वादिगुणयुक्तेन (शवसा) बलेन (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उभे) द्वे (वृषा) जलानां वर्षकः (वृषत्वा) सुखवर्षकाणां भावस्तानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति शेर्लोपः। (वृषभः) यो वृषान् वृष्टिनिमित्तानि भाति सः (नि) नितरां (ऋञ्जते) प्रसाध्नोति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु०६.१) ॥२॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्य ! यथा सूर्य्यो वृषा वृषभो वृषत्वा धृष्णुना शवसोभे रोदसी निऋञ्जते तथा यो राज्यं साध्नोति तस्मै शाकिने शचीवते शक्राय त्वमर्च तं सर्वन्यायं शृण्वन्तमिन्द्रं महयन् सन्नभिस्तुहि ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो गुणोत्कृष्टत्वेन सार्वभौमः सभाद्यध्यक्षो धर्मेण सर्वान् प्रशास्य धर्मे संस्थापयति स एव सर्वैर्मनुष्यैराश्रयितव्यः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
उत्कृष्ट गुण असलेला सार्वभौम सभाध्यक्ष सर्वांना धर्माचे शिक्षण देऊन धर्माच्या नियमात स्थापित करतो त्याचाच सर्व माणसांनी आश्रय घेतला पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Offer homage to Indra, lord of strength, power, knowledge and wisdom. Sing songs of praise glorifying the Lord who, with His mighty strength and power of knowledge and wisdom, creates both heaven and earth and the sky, and with the same strength and generosity showers His blessings on us.
Subject of the mantra
Then what kind of that man is, this topic is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣya) =human, (yathā) =like, (sūryyaḥ) =Sun, (vṛṣā)= the one who showers water, (vṛṣabhaḥ)shining clouds to rain, (vṛṣatvā) =showering happiness, (dhṛṣṇunā) =qualities of tenacity etc. and, (śavasā) =by power, (ubhe) =both, (rodasī) =to heaven and earth, (ni) =with excellence, (ṛñjate)= decorate the same way, (yaḥ) =which, (rājyam) =to the state, (sādhnoti) =makes it perfectm,(tasmai) =that, (śākine) =of rich qualities and, (śacīvate)=by one of immense wisdom, (śakrāya) =for the capable, (tvam) =you, (arca)=show hospitality, (tam) =his, (sarvanyāyam)=of all justice, (śṛṇvantam) =while listening and, (indram)= of the chairman of the assembly etc. having immense opulence, (mahayan +san) =with hospitality, (abhi) =from front, (stuhi) =praise Him.
English Translation (K.K.V.)
O human! Just as the Sun showers water and the clouds shine to shower happiness, they decorate both the sky and the earth with excellence by virtue of their qualities like determination etc., similarly, that makes the state perfect. Through that person of immense qualities and immense intelligence, you should pay respect to the capable one. Praise Him in person, listening to all his justice and honouring the Chairman of the Assembly etc. with immense opulence.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The one who is the universal president by virtue of excellence, rules everyone through righteousness and establishes them in righteousness, on him all human beings should remain dependent.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is told further in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Praise respectfully the mighty, wise and powerful justly listening Indra (The President of the Assembly etc.) who like the Sun that is showerer of waters and illuminator of all objects, most powerful, making the earth and heaven shine with his irresistible might, can govern well. Glorify him o man.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( शाकिने ) प्रशस्ता: शाकाः शक्तियुक्ता गुणा विद्यन्ते यस्मिन् तस्मै = Mighty. (इन्द्रम् ) प्रशस्तैश्वर्ययुक्त सभाद्यध्यक्षम् । = To the President of the Assembly endowed with noble wealth. (ऋंजते) प्रसाध्नोति । ऋंजतिः प्रसाधनकर्मा (निरु० ६.१ ) = Accomplishes.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should approach and take shelter in that President of the Assembly etc. who on account of supremacy in his universal virtues keeps all in the path of righteousness governing all with justice and law.
Translator's Notes
The Mantra is equally applicable to God who is showerer of peace and bliss and by His Almightiness controls the heaven and the earth. He should be adored by all. He listens to the earnest prayers of His devotees.
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