ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 6
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वमा॑विथ॒ नर्यं॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॒ त्वं तु॒र्वीतिं॑ व॒य्यं॑ शतक्रतो। त्वं रथ॒मेत॑शं॒ कृत्व्ये॒ धने॒ त्वं पुरो॑ नव॒तिं द॑म्भयो॒ नव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । आ॒वि॒थ॒ । नर्य॑म् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् । त्वम् । तु॒र्वीति॑म् । व॒य्य॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । त्वम् । रथ॑म् । एत॑शम् । कृत्व्ये॑ । धने॑ । त्वम् । पुरः॑ । न॒व॒तिम् । द॒म्भ॒यः॒ । नव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमाविथ नर्यं तुर्वशं यदुं त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो। त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। आविथ। नर्यम्। तुर्वशम्। यदुम्। त्वम्। तुर्वीतिम्। वय्यम्। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। त्वम्। रथम्। एतशम्। कृत्व्ये। धने। त्वम्। पुरः। नवतिम्। दम्भयः। नव ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे शतक्रतो विद्वन् ! यतस्त्वं नर्यं तुर्वशं यदुमाविथ त्वं तुर्वीतिं वय्यमाविथ त्वं कृत्व्ये धन एतशं रथं चाविथ त्वं नव नवतिं शत्रूणां पुरो दम्भयस्तस्माद् भवानेवास्माभिरत्र राज्यकार्य्ये समाश्रयितव्यः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभाध्यक्षः (आविथ) रक्षणादिकं करोषि (नर्यम्) नृषु साधुम् (तुर्वशम्) उत्तमं मनुष्यम् (यदुम्) प्रयतमानम्। अत्र यती प्रयत्ने धातोः बाहुलकाद् औणादिक उः प्रत्ययो जश्त्वं च। (त्वम्) (तुर्वीतिम्) दुष्टान् प्राणिनो दोषांश्च हिंसन्तम्। अत्र संज्ञायां क्तिन्। बहुलं छन्दसि इतीडागमः। (वय्यम्) यो वयते जानाति तम्। अत्र वय धातोः बाहुलकाद् औणादिको यत्प्रत्ययः। (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ (त्वम्) शिल्पविद्योत्पादकः (रथम्) रमणस्याधिकरणम् (एतशम्) वेगादिगुणयुक्ताश्ववन्तम् (कृत्व्ये) कर्त्तव्ये (धने) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसिद्धे द्रव्ये (त्वम्) दुष्टानां भेत्ता (पुरः) पुराणि (नवतिम्) एतत्संख्याकानि (दम्भयः) हिंधि (नव) नवसंख्यासहितानि ॥ ६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यो राज्यं रक्षितुं न क्षमः स राजा नैव कार्य्यः ॥ ६ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धियुक्त विद्वन् सभाध्यक्ष ! जिस कारण (त्वम्) आप (नर्य्यम्) मनुष्यों में कुशल (तुर्वशम्) उत्तम (यदुम्) यत्न करनेवाले मनुष्य की रक्षा (त्वम्) आप (तुर्वीतिम्) दोष वा दुष्ट प्राणियों को नष्ट करनेवाले (वय्यम्) ज्ञानवान् मनुष्य की रक्षा और (त्वम्) आप (कृत्व्ये) सिद्ध करने योग्य (धने) विद्या, चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध हुए द्रव्य के विषय (एतशम्) वेगादि गुणवाले अश्वादि से युक्त (रथम्) सुन्दर रथ की (आविथ) रक्षा करते और (त्वम्) आप दुष्टों के (नव) नौ संख्या युक्त (नवतिम्) नव्वे अर्थात् निन्नाणवे (पुरः) नगरों को (दम्भयः) नष्ट करते हो, इस कारण इस राज्य में आप ही का आश्रय हम लोगों को करना चाहिये ॥ ६ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो राज्य की रक्षा करने में समर्थ न होवे, उस को राजा कभी न बनावें ॥ ६ ॥
विषय
प्रभु की रक्षा के पात्र
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (नर्यम्) = [गतमन्त्र के अनुसार वासना को जीतकर] नर लोकहित के कार्यों में तत्पर मनुष्य का (आविथ) = रक्षण करते हैं । "सर्वभूतहिते रताः" व्यक्ति ही सच्चे प्रभुभक्त हैं । ऐसे ही व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं । २. हे प्रभो ! आप (तुर्वशम्) = त्वरा से, शीघ्रता से [तुर्वनि इति तुरः] कामादि हिंसक शत्रुओं को वश में करनेवाले मनुष्य की रक्षा करते हैं । निघण्टु में 'तुर्वश' शब्द मनुष्य का नाम है । मनुष्य का नाम इसलिए है कि वह शीघ्रता से शत्रुओं को वश में करनेवाला है । प्रभु के प्रिय ये ही लोग होते हैं, कामाभिभूत पुरुष नहीं । ३. हे प्रभो ! आप (यदुम्) = यत्नशील पुरुष की रक्षा करते हो । संसार में "गिरना" दोष व निन्दा का कारण नहीं है । निन्दनीय बात तो यह है कि हम गिरकर फिर उठने का प्रयास ही न करें । हम कामादि आन्तर शत्रुओं के आक्रमण से बार - बार आक्रान्त होने पर भी इस आन्तर शत्रु के साथ युद्ध को समाप्त न कर दें । यदि 'युधिष्ठिर' बनेंगे तो अन्ततः हमारी 'अनन्त विजय' निश्चित ही है । ४. (त्वम्) = आप (तुर्वीतिम्) = 'तुर्वति हिनस्ति' शत्रुओं का संहार करनेवाले का रक्षण करते हैं । तेजस्वी बनकर जैसे हम बाह्य शत्रुओं से अपना रक्षण करनेवाले बनें, उसी प्रकार मन को ओजस्वी व बलवान् बनाकर कामादि शत्रुओं का भी अपने पर आक्रमण न होने दें । ५. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो ! आप (वय्यम्) = [वयते इति वयः, तत्र साधुः] गतिशील पुरुषों में उत्तम की, अर्थात् उत्कृष्ट गतिवाले की रक्षा करते हो । अकर्मण्य व्यक्ति प्रभु का प्रिय नहीं होता । ६. (त्वम्) = आप (कृत्व्ये धने) = करनेयोग्य, अर्थात् उपार्जन के योग्य धन के निमित्त (रथम्) = रहण स्वभाववाले, गतिशील, आलस्यशून्य पुरुष को तथा (एतशम्) = [प्राप्तविद्यम्] अश्ववद् बलिष्ठम् - द० ऋ० ४/३०/६, प्राप्तविद्य बलिष्ठ व्यक्ति को रक्षित करते हो । ७. (त्वम्) = आप शम्बर आदि असुरों के (नवतिं नव) = निन्यानवे (पुरः) = नगरों को (दम्भयः) = नष्ट करते हैं । असुरों के नगरों का संहार करके आप देवनगरों की स्थापना करते हैं । हमारे शरीरों को आप असुरनगर नहीं बनने देते हो । जब हममें ओज व बल की कमी हो जाती है तब हमारी 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को असुर अपना अधिष्ठान बना लेते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - 'नर्य, तुर्वश, यदु, तुर्वीति, वय्य, रथ व एतश' प्रभु की रक्षा के पात्र होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी राज्याचे रक्षण करण्यास समर्थ नसलेल्याला कधीही राजा बनवू नये. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord and hero of a hundred noble actions, you protect the good among humanity, the best of them, the industrious, who destroys the evil and who knows.$Now that the battle is on and almost won for success and prosperity, protect the tempestuous chariot of advance and progress and break down the ninety nine forts of the enemies of humanity.
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