ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 3
अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥
स्वर सहित पद पाठअर्च॑ । दि॒वे । बृ॒ह॒ते । शू॒ष्य॑म् । वचः॑ । स्वऽक्ष॑त्रम् । यस्य॑ । धृ॒ष॒तः । धृ॒षत् । मनः॑ । बृ॒हत्ऽश्र॑वाः । असु॑रः । ब॒र्हणा॑ । कृ॒तः । पु॒रः । हरि॑ऽभ्याम् । वृ॒ष॒भः । रथः॑ । हि । सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्चा दिवे बृहते शूष्यं१ वचः स्वक्षत्रं यस्य धृषतो धृषन्मनः। बृहच्छ्रवा असुरो बर्हणा कृतः पुरो हरिभ्यां वृषभो रथो हि षः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्च। दिवे। बृहते। शूष्यम्। वचः। स्वऽक्षत्रम्। यस्य। धृषतः। धृषत्। मनः। बृहत्ऽश्रवाः। असुरः। बर्हणा। कृतः। पुरः। हरिऽभ्याम्। वृषभः। रथः। हि। सः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वन्मनुष्य ! त्वं यस्य धृषतो मनो हि यो धृषद् बृहच्छ्रवा असुरः पुरो हरिभ्यां युक्तो दिव इव वृषभो रथो बर्हणा कृतस्तस्मै बृहते स्वक्षत्रं वर्धय शूष्यं वचोऽर्च च ॥ १३ ॥
पदार्थः
(अर्च) पूजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवे) सर्वथा शुभगुणस्य प्रकाशकाय (बृहते) विद्यादिगुणैर्वृद्धाय (शूष्यम्) शूषे बले साधु यत्तत्। शूषमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (वचः) विद्याशिक्षासत्यप्रापकं वचनम् (स्वक्षत्रम्) स्वस्य राज्यम् (यस्य) सभाध्यक्षस्य (धृषतः) अधार्मिकान् दुष्टान् धर्षयतस्तत्कर्मफलं प्रापयतः (धृषत्) यो धृष्णोति दृढं कर्म करोति सः (मनः) सर्वक्रियासाधकं विज्ञानम् (बृहच्छ्रवाः) बृहच्छ्रवणं यस्य सः (असुरः) मेघो वा यः प्रज्ञां राति ददाति सः। असुर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) असुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (बर्हणा) वृद्धियुक्तेन (कृतः) निष्पन्नः (पुरः) पूर्वः (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यां तुरङ्गाभ्यां (वृषभः) यः पूर्वोक्तान् वृषान् भाति सः (रथः) रमणीयः (हि) खलु (सः) ॥ ३ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरीश्वरेष्टं सभाद्यध्यक्षप्रशासितमेकमनुष्यराजप्रशासनविरहं राज्यं सम्पादनीयम्। यतः कदाचिद् दुःखान्यायालस्याज्ञानशत्रुपरस्परविरोधपीडितं न स्यात् ॥ ३ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्य ! तू (यस्य) जिस (धृषतः) अधार्मिक दुष्टों को कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करानेवाले सभाध्यक्ष का (धृषत्) दृढ़ कर्म करनेवाला (मनः) क्रियासाधक विज्ञान (हि) निश्चय करके है, जो (बृहच्छ्रवाः) महाश्रवणयुक्त (असुरः) जैसे प्रज्ञा देनेवाले (पुरः) पूर्व (हरिभ्याम्) हरण-आहरण करने वा अग्नि, जल वा घोड़े से युक्त मेघ (दिवे) सूर्य के अर्थ वर्त्तता है, वैसे (वृषभः) पूर्वोक्त वर्षाने वालों के प्रकाश करनेवाले (रथः) यानसमूह को (बर्हणा) वृद्धि से (कृतः) निर्मित किया है, उस (बृहते) विद्यादि गुणों से वृद्ध (दिवे) शुभ गुणों के प्रकाश करनेवाले के लिये (स्वक्षत्रम्) अपने राज्य को बढ़ा और (शूष्यम्) बल तथा निपुणतायुक्त (वचः) विद्या शिक्षा प्राप्त करनेवाले वचन का (अर्च) पूजन अर्थात् उनके सहाय युक्त शिक्षा कर ॥ ३ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर को इष्ट, सभाध्यक्ष से शासित, एक मनुष्य के प्रशासन से अलग राज्य को सम्पादन करें, जिससे कभी दुःख, अन्याय, आलस्य, अज्ञान और शत्रुओं के परस्पर विरोध से प्रजा पीड़ित न होवे ॥ ३ ॥
विषय
प्रभुरूप रथ
पदार्थ
१. (दिवे) = उस प्रकाशमय (बृहते) = शक्ति से बढ़े हुए प्रभु के लिए (अर्च) = तू अर्चन करनेवाला बन । तेरा यह (वचः) = स्तुति - वचन (शूष्यम्) = बल का वर्धन करनेवाला है । वह तू इन्द्र के लिए अर्चना करनेवाला बन (यस्य धृषतः) = जिस शाओं के धर्षण करनेवाले का (धृषत्) = शत्रुधर्षक (मनः) = मन (स्वक्षत्रम्) = आत्मबल - सम्पन्न है । वस्तुतः प्रभु की सच्ची उपासना वही करता है जोकि अपने मन को आत्मबल - सम्पन्न बनाकर शत्रुभूत वासनाओं को कुचल देता है । प्रभु - उपासना का यह परिणाम होना ही चाहिए । यदि उपासक बनकर भी एक व्यक्ति वासनाओं के वशीभूत होता रहे तो उस उपासना का लाभ ही क्या हुआ ? २. वे प्रभु (बृहत् श्रवाः) = वृद्धि के कारणभूत ज्ञान के आधार हैं ; (असुरः) = [असून् राति] प्राणशक्ति देनेवाले हैं । वे प्रभु अपने भक्त को वह ज्ञान व प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं जो उसकी उन्नति का कारण बनते हैं । ३. इस भक्त के द्वारा वे प्रभु (बर्हणा) = वृद्धि के दृष्टिकोण से (पुरः कृतः) = आगे किये जाते हैं । एक प्रभुभक्त प्रभु को अपने जीवन का आदर्श बनाता है, 'पुरो - हित' बनाता है । प्रभु के गुणों का स्मरण करता हुआ उन गुणों को अपने में धारण करने का प्रयत्न करता है । ४. वे प्रभु (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के द्वारा (वृषभः) = हमपर ज्ञान व शक्ति का वर्षण करते हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ देकर वे हमें ज्ञान - प्राप्ति के योग्य बनाते हैं और कमेन्द्रियों के द्वारा हमें शक्तिसम्पन्न करते हैं । इस प्रकार (हि) = निश्चय से (सः) = वे प्रभु (रथः) = रहणशील हैं, जीवन - यात्रा में हमें तीव्रता से आगे ले - जाते हैं । वे प्रभु हमारे रथ बनते हैं, जिसके द्वारा हम यात्रा को पूर्ण कर लेते हैं । 'भ्रामयन् सर्वभूतानि' इन गीता - शब्दो में इसी भाव की ध्वनि मिलती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्तवन से हमारी शक्ति बढ़ती है । ज्ञान व शक्ति से सम्पन्न होकर हम जीवन - यात्रा में आगे बढ़ते हैं । प्रभु हमारे रथ हो जाते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी एका माणसाच्या राज्य प्रशासनापेक्षा ईश्वर व सभाध्यक्षाकडून प्रशंसित राज्य संपादन करावे. ज्यामुळे सर्व दुःख, अन्याय, आळस, अज्ञान व शत्रूंचा परस्पर विरोध यांनी प्रजा त्रस्त होता कामा नये. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Offer resounding words of strength and creative imagination in honour of Indra, great lord of light and grandeur. Great is the sovereign republic of the lord of awful power, awful in his mind capable of wondrous acts of wisdom. The lord is a good listener and giver of vital energy and fresh life, and subduer of enemies. He rides and rushes forward in a chariot drawn by the winds and sunbeams.
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