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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । वः॒ । वि॒श्वतः॑ । परि॑ । हवा॑महे । जने॑भ्यः । अ॒स्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । केव॑लः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः। अस्माकमस्तु केवलः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। वः। विश्वतः। परि। हवामहे। जनेभ्यः। अस्माकम्। अस्तु। केवलः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अयमेव सर्वोपरि वर्त्तत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यं वयं विश्वतो जनेभ्यः सर्वगुणैरुत्कृष्टमिन्द्रं परमेश्वरं परि हवामहे, स एव वो युष्माकमस्माकं च केवलः पूज्य इष्टोऽस्तु॥१०॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) पृथिव्यां राज्यप्रदम् (वः) युष्माकम् (विश्वतः) सर्वेभ्यः (परि) सर्वतोभावे। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु०१.३) (हवामहे) स्तुवीमः (जनेभ्यः) प्रादुर्भूतेभ्यः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (केवलः) एकश्चेतनमात्रस्वरूप एवेष्टदेवः॥१०॥

    भावार्थः

    ईश्वरोऽस्मिन्मन्त्रे सर्वजनहितायोपदिशति-हे मनुष्या ! युष्माभिर्नैव कदाचिन्मां विहायान्य उपास्यदेवो मन्तव्यः। कुतः, नैव मत्तोऽन्यः कश्चिदीश्वरो वर्त्तते। एवं सति यः कश्चिदीश्वरत्वेऽनेकत्वमाश्रयति स मूढ एव मन्तव्य इति॥१०॥अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त परमेश्वर सर्वोपरि विराजमान है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हम लोग जिस (विश्वतः) सब पदार्थों वा (जनेभ्यः) सब प्राणियों से (परि) उत्तम-उत्तम गुणों करके श्रेष्ठतर (इन्द्रम्) पृथिवी में राज्य देनेवाले परमेश्वर का (हवामहे) वार-वार अपने हृदय में स्मरण करते हैं, वही परमेश्वर (वः) हे मित्र लोगो ! तुम्हारे और हमारे पूजा करने योग्य इष्टदेव (केवलः) चेतनमात्र स्वरूप एक ही है॥१०॥

    भावार्थ

    ईश्वर इस मन्त्र में सब मनुष्यों के हित के लिये उपदेश करता है-हे मनुष्यो ! तुमको अत्यन्त उचित है कि मुझे छोड़कर उपासना करने योग्य किसी दूसरे देव को कभी मत मानो, क्योंकि एक मुझ को छोड़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। जब वेद में ऐसा उपदेश है तो जो मनुष्य अनेक ईश्वर वा उसके अवतार मानता है, वह सब से बड़ा मूढ़ है॥१०॥इस सप्तम सूक्त में जिस ईश्वर ने अपनी रचना के सिद्ध रहने के लिये अन्तरिक्ष में सूर्य्य और वायु स्थापन किये हैं, वही एक सर्वशक्तिमान् सर्वदोषरहित और सब मनुष्यों का पूज्य है। इस व्याख्यान से इस सप्तम सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों और विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने भी उलटे किये हैं॥

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    विषय

    उक्त परमेश्वर सर्वोपरि विराजमान है, इस विषय का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यं वयं विश्वतः जनेभ्यः सर्वगुणैः उत्कृष्टम् इन्द्रम्  परमेश्वरं परि हवामहे, स एव वो युष्माकम् अस्माकम् च केवलः पूज्य इष्टःअस्ति॥१०॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्य लोगों! (यम्)=जिन सब पदार्थों को, (वयम्)=हम, (विश्वतः) सर्वेभ्यः=सब, (जनेभ्यः) प्रादुर्भूतेभ्यः= प्राणियों से, (सर्वगुणैः)=समस्त गुणों से, (उत्कृष्टम्)=उत्कृष्ट को, (इन्द्रम्) पृथिवी राज्यप्रदम्-परमेश्वम्=पृथिवी में राज्य देने वाले परमेश्वर का, (परि) सर्वतोभावे=उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त श्रेष्ठतर, (हवामहे) स्तुतिमहे=हृदय से स्तुति करते हैं, (स)=वह, (एव)=ही, (वः-युष्माकम्)= तुम सबको, (अस्माकम्)=हमारा, (च)= भी, (केवलः)=एकश्चेतनमात्रास्वरूप एवेष्टदेव=चेतनमात्र  स्वरूप एक ही,  (पूज्य)=पूज्य, (इष्टः)=इष्टेव, (अस्ति)=है।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर इस मन्त्र में सब मनुष्यों के हित के लिये उपदेश करता है-हे मनुष्यो ! तुमको अत्यन्त उचित है कि मुझे छोड़कर उपासना करने योग्य किसी दूसरे देव को कभी मत मानो, क्योंकि एक मुझ को छोड़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। जब वेद में ऐसा उपदेश है तो जो मनुष्य अनेक ईश्वर वा उसके अवतार मानता है, वह सब से बड़ा मूढ़ है॥१०॥

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस सप्तम सूक्त में जिस ईश्वर ने अपनी रचना के सिद्ध रहने के लिये अन्तरिक्ष में सूर्य्य और वायु स्थापन किये हैं, वही एक सर्वशक्तिमान् सर्वदोषरहित और सब मनुष्यों का पूज्य है॥१०॥
    महर्षिकृतः टिप्पणी- इस व्याख्यान से इस सप्तम सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों और विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने भी उलटे किये हैं॥१०॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्य लोगों! (यम्) जिन सब पदार्थों को (वयम्) हम (विश्वतः) सब (जनेभ्यः) प्राणियों से (सर्वगुणैः) समस्त गुणों से (उत्कृष्टम्) उत्कृष्ट  (इन्द्रम्) पृथिवी में राज्य देने वाले परमेश्वर का (परि) उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त श्रेष्ठतर (हवामहे) हृदय से स्तुति करते हैं, (स) वह (एव) ही (वः) तुम सबको (अस्माकम्) हमारा (च) भी  (केवलः) चेतनमात्र  स्वरूप एक ही  (पूज्य) पूज्य (इष्टः) इष्ट देव (अस्ति) है।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रम्) पृथिव्यां राज्यप्रदम् (वः) युष्माकम् (विश्वतः) सर्वेभ्यः (परि) सर्वतोभावे। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु०१.३) (हवामहे) स्तुवीमः (जनेभ्यः) प्रादुर्भूतेभ्यः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (केवलः) एकश्चेतनमात्रस्वरूप एवेष्टदेवः॥१०॥
    विषयः- अयमेव सर्वोपरि वर्त्तत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यं वयं विश्वतो जनेभ्यः सर्वगुणैरुत्कृष्टमिन्द्रं परमेश्वरं परि हवामहे, स एव वो युष्माकमस्माकं च केवलः पूज्य इष्टोऽस्ति॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरोऽस्मिन्मन्त्रे सर्वजनहितायोपदिशति-हे मनुष्या ! युष्माभिर्नैव कदाचिन्मां विहायान्य उपास्यदेवो मन्तव्यः। कुतः, नैव मत्तोऽन्यः कश्चिदीश्वरो वर्त्तते। एवं सति यः कश्चिदीश्वरत्वेऽनेकत्वमाश्रयति स मूढ एव मन्तव्य इति॥१०॥

    सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥१०॥

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    विषय

    प्रभु ही हमारे एकमात्र मित्र हों , 'असाधारण मित्र'

    पदार्थ

    १. संसार में मनुष्य ही मनुष्य की सहायता करता है । सम्बन्धी एक - दूसरे के लिए सहायक होते हैं  , परन्तु ये सब सम्बन्ध व सहायताएँ एक सीमा के बाद समाप्त हो जाती हैं । जब हमारा कोई भी सहायक नहीं रहता  , उस समय प्रभु ही हमारे सहायक होते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि - (विश्वतः जनेभ्यः) - सब लोगों से (परि) - परे  , अर्थात् जब संसार में कोई भी अन्य व्यक्ति हमारा साथी नहीं रह जाता तब (वः) - तुम सबके कल्याण के लिए (इन्द्रम्) - उस परमैश्वर्यशाली पुरुष  , परमात्मा को (हवामहे) - पुकारते हैं । जब सारा संसार हमारा साथ नहीं देता  , तब भी प्रभु हमारे साथ होते हैं । 

    २. ये प्रभु (अस्माकम्) - हमारे (केवलः) असाधारण मित्र हों । हम सब संसार से अधिक प्रभु को चाहें - ['आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्'] - आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए हम सम्पूर्ण पृथिवी का त्याग कर सकें । एक ओर ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ हों और दूसरी ओर 'आत्मतत्त्व' तो हम कठोपनिषद् के नचिकेता की तरह संसार के सब प्रलोभनों को छोड़ सकें और प्रभु का ही वरण करें । प्रभु मिलेंगे तो प्रकृति तो मिल ही जाएगी । विष्णु के हम अतिथि बनें तो लक्ष्मी हमें भोजन कराएगी ही । प्रभु के प्राप्त होने पर सब - कुछ प्राप्त हो जाएगा  , अतः यही कामना सर्वश्रेष्ठ है कि - (अस्माकमस्तु केवलः) - बस हमें प्रभु प्राप्त हो जाएँ । 

    भावार्थ

    भावार्थ - जब हमारा कोई सहायक नहीं होता तब ये प्रभु हमारे सहायक होते हैं । बस  , हम प्रभु - प्राप्ति की ही कामना करें । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का आरम्भ प्रभु - स्तवन से होता है [१] । द्युलोक में उदय होता हुआ सूर्य  , बरसता हुआ मेघ  , दोनों प्रभु की अद्भुत विभूतियाँ हैं [३] । प्रभु ही हमें विजयी बनाते हैं [४] । हमारे लिए वेदज्ञान का अपावरण करते हैं [६] । प्रभु के अनन्त दान हैं  , हम उनकी स्तुतियाँ कहाँ कर सकते हैं [७] । ठीक बात तो यह है कि हम गौवें हैं और प्रभु हमारे गोपाल हैं [८] । वह हमारा पालन करते हैं तथा सब वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं [९] । बस   , प्रभु की ही कामना करनी ठीक है [१०] । ' वे प्रभु ही हमें वर्षिष्ठ [सर्वोत्तम] धन प्राप्त कराएंगे ' इन शब्दों से अगला सूक्त आरंभ होता है -

     

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    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    ( जनेभ्यः) समस्त प्रजाजनों से ( परि ) ऊपर, सबसे उत्कृष्ट, ( विश्वतः ) सर्वत्र विद्यमान, ( इन्द्रम् ) राजा के समान परमेश्वर की हम ( हवामहे ) स्तुति करते हैं। वह ( केवलः ) एकमात्र अद्वितीय, मोक्षमय परमेश्वर ही (अस्माकम्, वः) हमारे और तुम्हारे कल्याणकारी (अस्तु) हो । इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर या मंत्रात सर्व माणसांच्या हितासाठी उपदेश करतो - हे माणसांनो! तुम्ही मला सोडून दुसऱ्या कोणत्याही देवाची उपासना करू नका. कारण मला सोडून दुसरा कोणताही ईश्वर नाही. जेथे वेदात असा उपदेश केलेला आहे तेथे जो माणूस अनेक ईश्वर किंवा त्याचे अवतार मानतो, तो सर्वात मूढ असतो. ॥ १० ॥

    टिप्पणी

    या सूक्ताच्या मंत्रांचे अर्थ सायणाचार्य इत्यादी आर्यावर्तीय व विल्सन इत्यादी इंग्रजांनी विपरीत लावलेले आहेत.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For the sake of you all of humanity, we invoke and worship Indra, the one lord ruler over the universe, and we pray He may be with us in vision in a state of absolute bliss.

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    Subject of the mantra

    Aforesaid God is present above all, this subject has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=human beings substances, (yam) =those all, (viśvataḥ)=from all, (janebhyaḥ)=and from all living beings, (sarvaguṇaiḥ)=with all qualities, (utkṛṣṭam)and excellent, (indram)= of the God, giving kingdom in the earth, (pari)= superior in good qualities, (havāmahe)= praise heartly, (sa)=He, (eva)=only, (vaḥ)=to you all, (asmākam)=our, (ca)=as well, (kevalaḥ)= conscious form only, (pūjya)= venerable, (iṣṭaḥ)=desired God, (asti)=is,

    English Translation (K.K.V.)

    O Human beings! From all substances and from all living beings, we remember the God with all qualities and with a superior heart; having the best of all qualities; the God, who gives the kingdom to the earth. He is the one venerable desired God of all of you and by our conscious form only.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this seventh hymn, the God who has established the Sun and the air in space for the perfection of his creation, He is the one Omnipotent, all-flawless and worshiped by all human beings. Maharishi's comment regarding the translation of the hymn- From this explanation one should know the association of the translation of the sixth hymn with the translation of this seventh hymn. The translation of the mantras of this hymn has been interpreted on the contrary by Sayanacharya etc. of the Indian content and scholars of indology like Wilson et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches in this mantra for the benefit of all human beings - O human beings! It is very proper to you that you should never consider any other God to be worshiped except Me, because there is no other God except Me. When there is such a teaching in the Vedas, then the person who believes in many Gods or their incarnations, he is the biggest fool of all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    This God is the Best and the Lord of all is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O friends! We worship God for the welfare of you and all other people. May He be the only object of our worship and desire, as He is superior to all and the Best.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God gives instruction in this Mantra for the welfare of all. O men, you should not regard any one else as Adorable instead of me because there is none else who is the Lord of the Universe. Therefore any one who regards many Gods is to be considered as ignorant. In this seventh hymn, is told that God Who has created and placed the sun and the air in the middle region and the sky is only one Almighty Supreme Being to be adored by all persons. So it has direct connection with the previous hymn. This hymn has also been wrongly interpreted by Sayanacharya, Prof. Wilson and other Europeans.

    Translator's Notes

    That the translations of Shri Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith are wrong is quite evident from the fact that they all take Indra in this hymn to be a deity sitting somewhere in heaven, instead of an Omnipresent Supreme Being. The translation of the last Mantra of this hymn by Wilson and Griffith is particularly repulsive while Sayanacharya translates अस्माकमस्तुकेवल: as स इन्द्र: अस्माकं केवल: असाधारणोऽस्तुइतरेभ्योऽप्य्धिकमनुग्रहमस्मासु करोत्वित्यर्थः ।। i.e. Let Indra show extra-ordinary favor which is more than that upon others. Prof. Wilson Translates it as "May he (Indra) be exclusively our own." Griffith's ! translation is still worse and more absurd. "For your sake from each side we call Indra away from other men; Our's and none other's may he be." (Griffith). It is against the very spirit of the Vedas which enjoin up on us to regard all beings on earth as our friends (मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणिभूतानि समीक्षे मीत्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ( य० ३६.१८ )। Therefore the meaning of the Mantra is as given above. It does not mean at all that He (God) be ours and of none else, but that He may be the only object of our worship and desire. We should worship and desire Him and Him alone.

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