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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से॑ । आ । सूर्य॑म् । रो॒ह॒य॒त् । दि॒वि । वि । गोभिः॑ । अद्रि॑म् । ऐ॒र॒य॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। दीर्घाय। चक्षसे। आ। सूर्यम्। रोहयत्। दिवि। वि। गोभिः। अद्रिम्। ऐरयत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ केन किमर्थः सूर्य्यलोको रचित इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    इन्द्रः सृष्टिकर्त्ता जगदीश्वरो दीर्घाय चक्षसे यं सूर्य्यलोकं दिव्यारोहयत् सोऽयं गोभिरद्रिं व्यैरयत् वीरयति॥३॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) सर्वजगत्स्रष्टेश्वरः (दीर्घाय) महते निरन्तराय (चक्षसे) दर्शनाय (आ) क्रियार्थे (सूर्य्यम्) प्रत्यक्षं सूर्य्यलोकम् (रोहयत्) उपरि स्थापितवान् (दिवि) प्रकाशनिमित्ते (वि) विविधार्थे (गोभिः) रश्मिभिः। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (ऐरयत्) वीरयत् वीरयत्यूर्ध्वमधो गमयति। अत्र लडर्थे लुङ्॥३॥

    भावार्थः

    सृष्टिमिच्छतेश्वरेण सर्वेषां लोकानां मध्ये दर्शनधारणाकर्षणप्रकाशप्रयोजनाय प्रकाशरूपः सूर्य्यलोकः स्थापितः, एवमेवायं प्रतिब्रह्माण्डं नियमो वेदितव्यः। स प्रतिक्षणं जलमूर्ध्वमाकृष्य वायुद्वारोपरि स्थापयित्वा पुनः पुनरधः प्रापयतीदमेव वृष्टेर्निमित्तमिति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इसके अनन्तर किसने किसलिये सूर्य्यलोक बनाया है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    (इन्द्रः) जो सब संसार का बनानेवाला परमेश्वर है, उसने (दीर्घाय) निरन्तर अच्छी प्रकार (चक्षसे) दर्शन के लिये (दिवि) सब पदार्थों के प्रकाश होने के निमित्त जिस (सूर्य्यम्) प्रसिद्ध सूर्य्यलोक को (आरोहयत्) लोकों के बीच में स्थापित किया है, वह (गोभिः) अपनी किरणों के द्वारा (अद्रिम्) मेघ को (व्यैरयत्) अनेक प्रकार से वर्षा होने के लिये ऊपर चढ़ाकर वारंवार वर्षाता है॥३॥

    भावार्थ

    रचने की इच्छा करनेवाले ईश्वर ने सब लोकों में दर्शन, धारण और आकर्षण आदि प्रयोजनों के लिये प्रकाशरूप सूर्य्यलोक को सब लोकों के बीच में स्थापित किया है, इसी प्रकार यह हर एक ब्रह्माण्ड का नियम है कि वह क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींच करके पवन के द्वारा ऊपर स्थापन करके वार-वार संसार में वर्षाता है, इसी से यह वर्षा का कारण है॥३॥

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    विषय

    इसके अनन्तर किसने किसलिये सूर्य्यलोक बनाया है, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    इन्द्रः सृष्टिकर्त्ता जगदीश्वरः दीर्घाय चक्षसे यं सूर्य्यलोकं दिव्य आरोहयत् सः अयं गोभिः अद्रिं वि ऐरयत् वीरयति॥३॥

    पदार्थ

    (इन्द्रः)=परमेश्वर, (सृष्टिकर्त्ता)= सृष्टि का निर्माण करने वाला है, (सः) वह  (जगदीश्वरः)=परमेश्वर, (दीर्घाय)=दीर्घ आयु के लिये, (चक्षसे) दर्शनाय= देखने के लिये, (यम्)=जिसको, (सूर्य्यलोकम्)=सूर्य्य लोक  को, (दिवि) प्रकाशनिमित्ते= सब पदार्थों में प्रकाश करने के निमित्त, (आ) आसमन्तात्=चारों ओर से, (रोहयत्) उपरि स्थापितवान्=लोकों के बीच में स्थापित करना, (सः)=वह, (अयम्)=यह, (गोभिः) रश्मिभिः=किरणों से, (अद्रि) मेघम्= बादल को, (वि) विविधर्थे=भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिये, (ऐरयत्) वीरयत् वीरयत्यूर्ध्वमधो गमयति= वर्षा होने के लिये चढ़ाना, (वीरयति)=पराक्रम करता है।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सृष्टि के रचने की इच्छा करनेवाले ईश्वर ने सब लोकों के मध्य में दर्शन, धारण, आकर्षण और प्रकाशित करने के प्रयोजन के लिये प्रकाशरूप सूर्य्यलोक को में स्थापित किया है, इसी प्रकार यह हर एक ब्रह्माण्ड का नियम  जानने योग्य है। वह क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींच करके पवन के द्वारा ऊपर स्थापित करके बार-बार नीचे बरसाता है, इसी से यह वर्षा का कारण है॥३॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (इन्द्रः) परमेश्वर (सृष्टिकर्त्ता) सृष्टि का निर्माण करने वाला है और (चक्षसे) निरन्तर देखने के लिये (यम्) जिन (दिवि) सब पदार्थों  में प्रकाश करने के निमित्त (आ) हर ओर से (रोहयत्) लोकों के बीच में स्थापित करता है। (सूर्य्यलोकम्) सूर्य्य लोक  को, जिस प्रकार (अयम्) यह (गोभिः) किरणों से (अद्रि) बादल को (वि) भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिये [और] (ऐरयत्) वर्षा होने के लिये चढ़ाने का (वीरयति) पराक्रम करता है।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रः) सर्वजगत्स्रष्टेश्वरः (दीर्घाय) महते निरन्तराय (चक्षसे) दर्शनाय (आ) क्रियार्थे (सूर्य्यम्) प्रत्यक्षं सूर्य्यलोकम् (रोहयत्) उपरि स्थापितवान् (दिवि) प्रकाशनिमित्ते (वि) विविधार्थे (गोभिः) रश्मिभिः। गाव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (ऐरयत्) वीरयत् वीरयत्यूर्ध्वमधो गमयति। अत्र लडर्थे लुङ्॥३॥

    विषयः- अथ केन किमर्थः सूर्य्यलोको रचित इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- इन्द्रः सृष्टिकर्त्ता जगदीश्वरो दीर्घाय चक्षसे यं सूर्य्यलोकं दिव्यारोहयत् सोऽयं गोभिरद्रिं व्यैरयत् वीरयति॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सृष्टिमिच्छतेश्वरेण सर्वेषां लोकानां मध्ये दर्शनधारणाकर्षणप्रकाशप्रयोजनाय प्रकाशरूपः सूर्य्यलोकः स्थापितः, एवमेवायं प्रतिब्रह्माण्डं नियमो वेदितव्यः। स प्रतिक्षणं जलमूर्ध्वमाकृष्य वायुद्वारोपरि स्थापयित्वा पुनः पुनरधः प्रापयतीदमेव वृष्टेर्निमित्तमिति॥३॥
     

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    विषय

    सूर्य व मेघ

    पदार्थ

    १. प्रभु का उपासक प्रभु के उपकारों का स्मरण करता हुआ कहता है कि (इन्द्रः) - सब असुरों का संहार करनेवाले प्रभु ने (दीर्घाय चक्षसे) - दीर्घ दृष्टि के लिए  , दूर - दूर तक आँख का व्यापार हो सकने के लिए (सूर्यम्) - सूर्य को (दिवि) - द्युलोक में (आरोहयत्) - आरूढ़ किया । द्युलोक का मुख्य देव सूर्य है । यह सारे जगत् को प्रकाशित करता है । इसी प्रकाश में आँख अपने व्यापार करने में समर्थ होती है ।

    २. उस प्रभु ने ही (गोभिः) - जलों के हेतु से (अद्रिम्) - मेघ को (वि ऐरयत्) - विशेष रूप से प्रेरित किया है । यदि मेघों की व्यवस्था न होती तो सारा पानी समुद्र तक पहुँचकर मनुष्य के लिए दुर्लभ हो जाता । मेघों द्वारा यह पानी फिर से पर्वतशिखरों पर पहुँचकर नदियों के रूप में प्रवाहित होता है और भूमि की सिंचाई के लिए उपयुक्त होकर अन्न की उत्पत्ति का कारण बनता है । एवं  , प्रभु के अनन्त उपकारों में 'द्युलोक में सूर्य का स्थापन' और 'अन्तरिक्ष में मेघों का निर्माण' ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । 

    ३. अध्यात्म में जीव को भी चाहिए कि अपने मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान - सूर्य को उदित करे और हृदयान्तरिक्ष में प्रेम के मेघ को उत्पन्न करने के लिए प्रयत्नशील हो । जैसे सूर्य से पार्थिव जल अन्तरिक्ष में पहुँचता है और मेघरूप हो सबपर बरसता है  , उसी प्रकार अध्यात्म में ज्ञान - सूर्य से पार्थिव वस्तुओं के प्रति होनेवाला प्रेम हृदय - अन्तरिक्ष में पहुँचकर फिर से सब प्राणियों के लिए बरसने लगता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - द्युलोक का सूर्य तथा अन्तरिक्षलोक के मेघ  , ये परमेश्वर की महान् विभूतियाँ हैं । 

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    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ( दीर्घाय ) चिरकाल तक ( चक्षसे ) देखने के लिए ( दिवि ) प्रकाश के लिए, आकाश में ( सूर्यम् आरोहयत् ) सूर्य को स्थापित करता है । और वह सूर्य ( गोभिः ) किरणों से ( अद्रिम् ) मेघ को ( वि ऐरयत्) विविध दिशाओं में गति देता है। राजा के पक्ष में —वह राजा दीर्घ दर्शन के लिए राजसभा में सबके ऊपर सूर्य के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष को सभापतिरूप से स्थापित करे वह अपनी ( गोभिः ) वाणियों, आज्ञाओं से ( अद्रिम् ) अखण्ड शासकगण को विशेष रूप से संचालन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृजनाची इच्छा करणाऱ्या ईश्वराने सर्व लोकांमध्ये दर्शन, धारण व आकर्षण इत्यादी प्रयोजनांसाठी प्रकाशरूपी सूर्याला सर्व गोलांच्या मध्ये स्थापन केलेले आहे. त्याचप्रकारे प्रत्येक ब्रह्मांडाचा नियम आहे की सूर्य क्षणोक्षणी जल वर खेचतो व वायूद्वारे वर स्थापन करून वारंवार वृष्टी करवितो. त्यामुळे तो पर्जन्याचे कारण आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, raised the sun high up in the heavens for expansive light and vision. With the rays of the sun, He forms and moves the cloud for rain.

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    Subject of the mantra

    After doing this, who and why has created Sun region, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (indraḥ)=God, (sṛṣṭikarttā)=Creator of universe, (saḥ)=he, (dīrghāya) =for long life, (cakṣase)=for seeing regularly, (yam)=which, (divi)=for the sake of illuminating all materials, (ā)=from all sides, (rohayat)=establishes between planets, (sūryyalokam)=sun region, Yat=in which way, (ayam)=this, (gobhiḥ)= by rays, (adri)=clouds, (vi) =for different purposes, [aura]=and, (airayat)=for raining raises, (vīrayati)=valour.

    English Translation (K.K.V.)

    The God, who is creator of the universe, illuminates all materials from all directions for long life and for regular vision and establishes them between the planets and in the Sun world. Just as it does the might of offering clouds to the rays for different purposes and to bring rain.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God, who desires to create the universe, has established in the midst of all the worlds the Sun-like form of light for the purpose of seeing, holding, attracting and illuminating, similarly, it is worth knowing the law of every world. By pulling the water up from moment to moment, setting it up by the wind and making it rain down again and again, this is the reason for this rain.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God Who is the Creator and Lord of the world has placed the sun on high in the sky, so that people may see well all objects with his rays. He makes the clouds move hither and thither, so that it may rain.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गोभिः) रश्मिभिः गाव इति रश्मिनामसु ( निघ० १.५) = Rays. (अद्रिम ) मेघम् अद्रिरितिमेघनामसु ( निघ० १.१० ) = The cloud By the term Indra, God is prayed.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Desiring to create the world, God established the bright sun with the object of vision, upholding, attracting and illuminating in the midst of every world. This should be known to be the rule for every world or universe. The sun draws the water of the oceans up, keeps it there through the air and then takes it below. That is the cause of the rain.

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