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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । इत् । हर्योः॑ । सचा॑ । सम्ऽमि॑श्लः । आ । व॒चःऽयुजा॑ । इन्द्रः॑ । व॒ज्री । हि॒र॒ण्ययः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इद्धर्योः सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। इत्। हर्योः। सचा। सम्ऽमिश्लः। आ। वचःऽयुजा। इन्द्रः। वज्री। हिरण्ययः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    उक्तेषु त्रिषु प्रथमतो वायुसूर्य्यावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    यथाऽयं संमिश्ल इन्द्रो वायुः सचा सचयोर्वचोयुजा वचांसि योजयतोर्हर्य्यो गमनागमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्य्यलोकश्च॥२॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) वायुः (इत्) एव (हर्य्योः) हरणाहरणगुणयोः (सचा) समवेतयोः (संमिश्लः) पदार्थेषु सम्यक् मिश्रो मिलितः सन्। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा०८.२.१८) अनेन वार्तिकेन रेफस्य लत्वादेशः। (आ) समन्तात् (वचोयुजा) वाणीर्योजयतोः। अत्र सुपां सुलुगिति षष्ठीद्विवचनस्याकारादेशः। (इन्द्रः) सूर्य्यः (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः। संवत्सरो हि वज्रः। (श०ब्रा०३.३.५.१५) (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेन हिरण्यमयशब्दस्य मलोपो निपात्यते। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श०ब्रा०४.३.१.२१)॥२॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुयोगेनैव वचनश्रवणव्यवहारसर्वपदार्थगमनागमनधारणस्पर्शाः सम्भवन्ति तथैव सूर्य्ययोगेन पदार्थप्रकाशनछेदने च। ‘संमिश्लः’ इत्यत्र सायणाचार्य्येण लत्वं छान्दसमिति वार्तिकमविदित्वा व्याख्यातम्, तदशुद्धम्॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    पूर्व मन्त्र में इन्द्र शब्द से कहे हुए तीन अर्थों में से वायु और सूर्य्य का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जिस प्रकार यह (संमिश्लः) पदार्थों के साथ मिलकर (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य का हेतु स्पर्शगुणवाला वायु, अपने (सचा) सब में मिलनेवाले और (वचोयुजा) वाणी के व्यवहार को वर्त्तानेवाले (हर्य्योः) हरने और प्राप्त करनेवाले गुणों को (आ) सब पदार्थों में युक्त करता है, वैसे ही (वज्री) संवत्सर वा तापवाला (हिरण्ययः) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रः) सूर्य्य भी अपने हरण और आहरण गुणों को सब पदार्थों में युक्त करता है॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु के संयोग से वचन, श्रवण आदि व्यवहार तथा सब पदार्थों के गमन, आगमन, धारण और स्पर्श होते हैं, वैसे ही सूर्य्य के योग से पदार्थों के प्रकाश और छेदन भी होते हैं। संमिश्लः इस शब्द में सायणाचार्य्य ने लकार का होना छान्दस माना है, सो उनकी भूल है, क्योंकि संज्ञाछन्द० इस वार्त्तिक से लकारादेश सिद्ध ही है॥२॥

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    विषय

    पूर्व मन्त्र में इन्द्र शब्द से कहे हुए तीन अर्थों में से वायु और सूर्य्य का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा अयं संमिश्ल इन्द्रः वायुः सचा सचयोः वचः युजा वचांसि योजयतोः हर्य्यो गमन आगमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्य्यलोकः च ॥२॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (अयम्)=यह, (संमिश्लः) पदार्थेषु सम्यक् मिश्रो मिलितः सन्=पदार्थों में अच्छी तरह मिले हुए, (इन्द्रः)=परमेश्वर, (वायुः)=वायु, (सचा) समवेतयोः=एक साथ मिले हुए, (वचोयुजा)=वाणी के व्यवहार को वर्त्ताने वाले, (वचांसि)=वचनों से, (योजयतोः)=जोड़ते हुए, (हर्य्यो)=नष्ट करने  और प्राप्त करने वाले, (गमन)=जाना,  (आगमनानि)=आना, (युनक्ति)=जोड़ना, (तथा) वैसे ही, (इत्)=निश्चय से, (एव)=ही, (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः=संवत्सर या तापवाला, (हिरण्यय)=प्रकाशस्वरूप, (इन्द्रः)=परमेश्वर, (सूर्यलोकः)=सूर्यलोक, (च)=भी॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु के संयोग से वचन, श्रवण आदि व्यवहार तथा सब पदार्थों के गमन, आगमन, धारण और स्पर्श होते हैं, वैसे ही सूर्य्य के योग से पदार्थों के प्रकाश और छेदन भी होते हैं॥२॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द द्वारा की गई टिपप्णी इस प्रकार है-संमिश्लः इस शब्द में सायणाचार्य्य ने लकार का होना छान्दस माना है, सो उनकी भूल है, क्योंकि संज्ञाछन्द० इस वार्त्तिक से लकारादेश सिद्ध ही है॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (अयम्) यह (संमिश्लः) पदार्थों में अच्छी तरह व्याप्त हुआ (इन्द्रः) परमेश्वर और (वायुः) वायु (सचा) एक साथ मिलकर (वचोयुजा) वाणी के व्यवहार को वर्त्ताने वाले होते हैं। (वचांसि) वचनों से (योजयतोः)  जोड़ते हुए (हर्य्यो) नष्ट करने  और प्राप्त करने वाले, (गमन) जाते (आगमनानि) आते और (युनक्ति) जुड़ते हैं, (तथा) वैसे ही (इत्) निश्चय से (एव) ही (वज्री) संवत्सर या तापवाला, (हिरण्यय) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रः) परमेश्वर (सूर्यलोकः) और सूर्यलोक, (च) भी करता है।॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रः) वायुः (इत्) एव (हर्य्योः) हरणाहरणगुणयोः (सचा) समवेतयोः (संमिश्लः) पदार्थेषु सम्यक् मिश्रो मिलितः सन्। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा०८.२.१८) अनेन वार्तिकेन रेफस्य लत्वादेशः। (आ) समन्तात् (वचोयुजा) वाणीर्योजयतोः। अत्र सुपां सुलुगिति षष्ठीद्विवचनस्याकारादेशः। (इन्द्रः) सूर्य्यः (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः। संवत्सरो हि वज्रः। (श०ब्रा०३.३.५.१५) (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेन हिरण्यमयशब्दस्य मलोपो निपात्यते। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श०ब्रा०४.३.१.२१) ॥२॥
    विषय-उक्तेषु त्रिषु प्रथमतो वायुसूर्य्यावुपदिश्येते।

    अन्वयः- यथाऽयं संमिश्ल इन्द्रो वायुः सचा सचयोर्वचोयुजा वचांसि योजयतोर्हर्य्यो गमनागमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्य्यलोकश्च॥२॥

    भावार्थः (महर्षिकृतः) - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुयोगेनैव वचनश्रवणव्यवहारसर्वपदार्थगमनागमनधारणस्पर्शाः सम्भवन्ति तथैव सूर्य्ययोगेन पदार्थप्रकाशनछेदने च। 'संमिश्लः' इत्यत्र सायणाचार्य्येण लत्वं छान्दसमिति वार्तिकमविदित्वा व्याख्यातम्, तदशुद्धम्॥२॥
     

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    विषय

    वज्री हिरण्ययः

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की उपासना करने पर (इन्द्रः) - शत्रुओं का विदारण करनेवाला जीव (इत्) - निश्चय से (वचोयुजा) [वचोयुजा - वचसा युज्येते इति] - वेद के निर्देश के अनुसार कार्यों में व्याप्त होनेवाले (हर्योः) - ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों का (सचा) - समवेत करनेवाला होता है [षच समवाये]  , इनके साथ - साथ चलता है  , अर्थात् ज्ञानेन्द्रियाँ जैसा ज्ञान देती हैं कर्मेन्द्रियाँ उसी प्रकार कार्य करती हैं । इनका परस्पर विरोध नहीं होता ['जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः'] मैं धर्म को जानता तो हूँ  , परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती' ऐसा उसे नहीं कहना पड़ता । ज्ञान के अनुसार ही उसके सारे कार्य होते हैं] । 

    २. इस प्रकार निज जीवन में ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का समन्वय करके चलता हुआ यह 'मधुच्छन्दाः' (आ  , संमिश्लः) - समाज में सब और उत्तमता से मेल करनेवाला होता है  , किसी से इसका वैर - विरोध नहीं होता । 

    ३. (इन्द्रः) वह जितेन्द्रिय पुरुष (वज्री) - शरीर में वज्र

    तुल्य दृढ़तावाला होता है और (हिरण्ययः) - ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाला होता है । 'दृढ शरीर' व 'दीप्तमस्तिष्क' बनकर यह आदर्शपुरुष बनने का प्रयत्न करता है । 

    भावार्थ

     

    भावार्थ - प्रभु की उपासना का जीवन में यह परिणाम दिखता है - १. ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का परस्पर समन्वय  , ज्ञान के अनुसार कर्म करना । २. समाज में उचित मेल से चलना । ३. दृढ़ शरीर होना । ४. दीप्तमस्तिष्क बनना । 

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    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः इत् ) वायु ही ( वचोयुजा ) वाणी या शब्द के साथ योग करने वाले ( हर्योः ) लाने और ले जाने के गुणों को ( सचा ) एक साथ ( संमिश्लः ) सब पदार्थों में युक्त करता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् सूर्य भी ( वज्री ) संवत्सर और तप से युक्त और ( हिरण्ययः ) प्रकाश से युक्त है। राजा के पक्ष में—(वचोयुजा हर्योः सचा संमिश्लः इन्द्रः इत् ) वाणीमात्र से रथ में जुड़ जाने वाले, आज्ञाकारी घोड़ों से युक्त वह राजा ही है । और वही (वज्री) शक्तिशाली खड्ग धारण करता और तेजस्वी धनसम्पन्न है । अध्याम में—वह जीव ही वाणी के साथ युक्त होकर प्राण और अपान से युक्त है । वही ( वज्री ) बलवान् और तेजस्वी है । परमेश्वर भी वेदवाणी से युक्त होने वाले गुरु शिष्यों को मिलाने वाला है । वही ( वज्री ) ज्ञानमय और प्रकाशमय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूच्या संयोगाने भाषण, श्रवण इत्यादी व्यवहार व सर्व पदार्थांचे गमन आगमन धारण व स्पर्श होतो, तसेच सूर्यामुळे पदार्थांना प्रकाश मिळतो व ते खंडितही होतात.

    टिप्पणी

    ‘संमिश्ल’ या शब्दात सायणाचार्याने लकार होणे छान्दस मानलेले आहे. ती त्यांची चूक आहे. कारण ‘संज्ञाछन्द. ’ या वार्तिकाने लकारादेश सिद्धच आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, the omnipresent Spirit, Indra, the universal energy of vayu or maruts, and Indra, the solar energy, the bond of unity and sustenance in things, co-existent synthesis of equal and opposite complementarities of positive and negative, activiser of speech, lord of the thunderbolt and the golden light of the day and the year.

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    Subject of the mantra

    In the aforesaid mantra three meanings had been mentioned for the word “Indra”. Air and Sun have been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=as, (ayam)=this, (saṃmiślaḥ)= well pervaded in substances, (indraḥ)=God and, (vāyuḥ)=air, (sacā)= together with, (vacoyujā)=are those who make the voice to be used, (vacāṃsi)=by words, (yojayatoḥ)=combining, (haryyo)= destroyers and recipients, (gamana)=going, (āgamanāni)=coming and, (yunakti)=join, (tathā)=in the same way, (it)=definitely, (eva)=only, (vajrī)= completely a year or heating, (hiraṇyaya)=effulgent, (indraḥ)=God, (sūryalokaḥ)=and the sun-world, (ca)=also.

    English Translation (K.K.V.)

    As it is well pervaded in the substances, the God and the air together make the voice to be used. Those who destroy and gain, go and come and combine, connecting by words, in the same way, with certainty, the one who is having completely a year or heating, does the God in the form of light and also does the Sun world.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra there is a latent simile as a figurative. Just as by the combination of air, speech, hearing, etc., and all things move, arrive, hold and touch, so also the combination of the Sun causes light and piercing of objects.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In respect to this mantra, the comment made by Maharishi Dayanand is as follows- Well mixed (saṃmiślaḥ), In this word, Sayanacharya has considered the existence of Lakar to be a mantra, so it is his mistake, because noun in this mantra has proved the order of lakara by a grammatical process known as vartik. Year-The Sun is the cause of periods like seconds, minutes, hour, days, months and years.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sun and the air are described in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As this air which is mixed up with all objects, unites its properties of removing and taking which are instrumental in all dealings of the speech, in the same way, the shining sun which possesses heat and is the cause of making the year, unites its property of taking and removing with all things. (The sun dispels darkness and spreads light).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वज्रः) संवत्सर : तापो वा अस्य अस्तीति वज्री सूर्यः संवत्सरो हि वज्रः । ( शत० ३.३.५.१५ ) = Full of heat or the cause of time. (हिरण्ययः) ज्योतिर्हि हिरण्यम् (शत० ४. ३.१.२१), =Full of light.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As it is on account of the association of the air that speech, hearing, going, coming, upholding and touching are possible, in the same way, light and piercing are possible on account of the sun.

    Translator's Notes

    Sayanacharya interprets the word हिरण्यय: as हिरण्यमय:- सर्वाभरणभूषितः इत्यर्थः which is not correct in connection with Indra which is to be taken here for the sun or the air. Neither God nor the sun nor the air put on ornaments. Sayanacharya seems to be in the habit of giving materialistic or ritualistic interpretation. The spiritual interpretation of the Mantra (as given by me in the translation of the Sama Veda (Mantra 597) is "God is the combiner of kindness and love when sincerely prayed to by earnest true devotees. He is the Creator and Lord of the world, the Holder of the thunderbolt of justice or the Light of lights or Absolute Truth. हरतः पापसन्तापादिकं भक्तानामिति कारुण्यवात्सल्यरूपौ 'अखौ हरी । सत्यं वै हिरण्यम् (गोपथ ३.३.१७)। In the third Mantra, by Indra the nature of the sun and its purpose is taught and who is the creator of the sun is answered.

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