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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वृषा॑ यू॒थेव॒ वंस॑गः कृ॒ष्टीरि॑य॒र्त्योज॑सा। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुतः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । यू॒थाऽइ॑व । वंस॑गः । कृ॒ष्टीः इ॒य॒र्ति॒ । ओज॑सा । ईशा॑नः । अप्र॑तिऽस्कुतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्त्योजसा। ईशानो अप्रतिष्कुतः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा। यूथाऽइव। वंसगः। कृष्टीः इयर्ति। ओजसा। ईशानः। अप्रतिऽस्कुतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    ईश्वरो मनुष्यान् कथं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    वंसगो वृषा यूथानीवाप्रतिष्कुत ईशानो वृषेश्वरः सूर्य्यश्चौजसा बलेन कृष्टीर्धर्मात्मनो मनुष्यान् आकर्षणादिव्यवहारान् वेयर्ति प्राप्नोति॥८॥

    पदार्थः

    (वृषा) शुभगुणवर्षणकर्त्ता (यूथेव) गोसमूहान् वृषभ इव। तिथपृष्ठ० (उणा०२.१२) (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति। (कृष्टीः) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा (इयर्ति) प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्य्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा (अप्रतिष्कुतः) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीता स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा॥८॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या एवेश्वरं प्राप्तुं समर्थास्तेषां ज्ञानोन्नतिकरणस्वभाववत्त्वात्। धर्मात्मनो मनुष्यानेव प्राप्तुमीश्वरस्य स्वभाववत्त्वाद्यथैतं प्राप्नुवन्ति तथेश्वरेण नियोजितत्वादयं सूर्य्योऽपि स्वसंनिहितान् लोकानाकर्षितुं समर्थोऽस्तीति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर मनुष्यों को कैसे प्राप्त होता है, सो अर्थ अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-

    पदार्थ

    जैसे (वृषा) वीर्य्यदाता रक्षा करनेहारा (वंसगः) यथायोग्य गाय के विभागों को सेवन करनेहारा बैल (ओजसा) अपने बल से (यूथेव) गाय के समूहों को प्राप्त होता है, वैसे ही (वंसगः) धर्म के सेवन करनेवाले पुरुष को प्राप्त होने और (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्य्यवान् जगत् का रचनेवाला परमेश्वर अपने (ओजसा) बल से (कृष्टीः) धर्मात्मा मनुष्यों को तथा (वंसगः) अलग-अलग पदार्थों को पहुँचाने और (वृषा) जल वर्षानेवाला सूर्य्य (ओजसा) अपने बल से (कृष्टीः) आकर्षण आदि व्यवहारों को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और श्लेषालङ्कार है। मनुष्य ही परमेश्वर को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे ज्ञान की वृद्धि करने के स्वभाववाले होते हैं। और धर्मात्मा ज्ञानवाले मनुष्यों का परमेश्वर को प्राप्त होने का स्वभाव है। तथा जो ईश्वर ने रचकर कक्षा में स्थापन किया हुआ सूर्य्य है, वह अपने सामने अर्थात् समीप के लोकों को चुम्बक पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ होता है॥८॥

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    विषय

    परमेश्वर मनुष्यों को कैसे प्राप्त होता है, सो अर्थ इस मन्त्र में प्रकाशित किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वंसगः वृषा यूथानि इव अप्रतिष्कुत ईशानः वृषा ईश्वरः सूर्य्यः च ओजसा बलेन कृष्टीः धर्मात्मनः मनुष्यान् आकर्षण  आदि व्यवहारान् वा इयर्ति प्राप्नोति॥८॥

    पदार्थ

    (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति= वंश के धर्म का सेवन करने के लिये अच्छी तरह से बंटा हुए, (वृषा)  शुभगुणवर्षणकर्त्ता=शुभ गुणों की वर्षा करने वाले, (यूथानि)=बैलों के समूह, (इव)=जैसा, (अप्रतिष्कुत) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीता स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा=सत्य भाव को निश्चित किये हुए याचक और प्रार्थना करने वाले या अपनी कक्षा को छोड़कर वहां से न हिलने वाले, (ईशानः) ऐश्वर्यवान्ं ऐश्वर्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा=ऐश्वर्यवान् जगत् की रचने या प्रकाशित करने वाले परमेश्वर, (वृषा) शुभगुणवर्षणकर्त्ता=शुभ गुणों की वर्षा करने वाले, (ईश्वरः)=ईश्वर (सूर्य्यः)=सूर्य्य, (च)=और, (ओजसा) बलेन=बल से, (कृष्टीः) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा=मनुष्यों के आकर्षण आदि व्यवहार से, (धर्मात्मनः)=धर्मात्मा, (मनुष्यान्)=मनुष्यों को, (आकर्षण)=आकर्षण, (आदि)=आदि, (व्यवहारान्)=व्यवहारों को, (वा)=या, (इयर्ति) प्राप्नोति=प्राप्त होता है।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा और श्लेषालङ्कार है। मनुष्य ही परमेश्वर को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे ज्ञान की वृद्धि करने के स्वभाववाले होते हैं। और धर्मात्मा ज्ञानवाले मनुष्यों का परमेश्वर को प्राप्त होने का स्वभाव है। तथा जो ईश्वर ने रचकर कक्षा में स्थापन किया हुआ सूर्य्य है, वह अपने सामने अर्थात् समीप के लोकों को चुम्बक पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ होता है॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वंसगः) वंश के धर्म का सेवन करने के लिये अच्छी तरह से बंटे हुए (वृषा)  शुभ गुणों की वर्षा करने वाले (यूथानि) बैलों के समूह (इव) जैसे (अप्रतिष्कुत) सत्य भाव को निश्चित किये हुए याचक और प्रार्थना करने वाले या अपनी कक्षा को छोड़कर वहां से न हिलने वाले (ईशानः) ऐश्वर्यवान् जगत् की रचने या प्रकाशित करने वाले परमेश्वर (वृषा)  शुभ गुणों की वर्षा करने वाले (ईश्वरः) ईश्वर (च) और (सूर्य्यः) सूर्य्य (ओजसा) बल से (कृष्टीः) मनुष्यों के आकर्षण आदि व्यवहार से (धर्मात्मनः) धर्मात्मा  (मनुष्यान्) मनुष्यों को (वा) या (आकर्षण) आकर्षण (आदि) आदि  (व्यवहारान्) व्यवहारों को (इयर्ति) प्राप्त होता है।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वृषा) शुभगुणवर्षणकर्त्ता (यूथेव) गोसमूहान् वृषभ इव। तिथपृष्ठ० (उणा०२.१२) (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति। (कृष्टीः) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा (इयर्ति) प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्य्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा (अप्रतिष्कुतः) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीता स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा॥८॥
    विषयः- ईश्वरो मनुष्यान् कथं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- वंसगो वृषा यूथानीवाप्रतिष्कुत ईशानो वृषेश्वरः सूर्य्यश्चौजसा बलेन कृष्टीर्धर्मात्मनो मनुष्यान् आकर्षणादिव्यवहारान् वेयर्ति प्राप्नोति॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या एवेश्वरं प्राप्तुं समर्थास्तेषां ज्ञानोन्नतिकरणस्वभाववत्त्वात्। धर्मात्मनो मनुष्यानेव प्राप्तुमीश्वरस्य स्वभाववत्त्वाद्यथैतं प्राप्नुवन्ति तथेश्वरेण नियोजितत्वादयं सूर्य्योऽपि स्वसंनिहितान् लोकानाकर्षितुं समर्थोऽस्तीति॥८॥

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    विषय

    गौवें व गोपाल

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (वृषा) - शक्तिशाली हैं  , सब प्रजाओं पर सुखों की वर्षा करनेवाले हैं । 

    २. वे प्रभु हमें इस प्रकार प्राप्त होते हैं (इव) - जैसे (यूथा) - [यूथानि] भेड़ों के झुण्डों को (वंसगः) - [वननीयगतिः] सुन्दर गतिवाला गडरिया प्राप्त होता है । प्रजाएँ बाइबिल के शब्दों में Sheep [भेड] हैं और प्रभु Shepherd [चरवाहा] । सम्भवतः यह भावना वेद के इन्हीं शब्दों से गई होगी ।

    ३. वे प्रभु (कृष्टीः) = श्रमशील  , कृषि इत्यादि कार्यों में व्याप्त जीवों को (ओजसा) - ओज के हेतु से (इयर्ति) - प्राप्त होते हैं  , अर्थात् जब हम प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त कर पाते हैं तब हम ओजस्विता का अनुभव करते हैं । 

    ४. (ईशानः) - वे प्रभु ईशान है  , सम्पूर्ण ऐश्वर्य के अधिष्ठाता हैं और साथ ही (अप्रतिष्कृतः) - प्रतिशब्द से रहित हैं  , कभी 'न' करनेवाले नहीं हैं । प्रभु के दरबार में हमारी प्रार्थना अस्वीकृत होगी  , ऐसी सम्भावना नहीं । 

    भावार्थ

    भावार्थ नहीं है । 

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    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    ( वृषा ) वीर्य सेचन में समर्थ सांढ जिस प्रकार (यूथा इव) गो-समूहों को ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम से ( इयर्ति ) प्राप्त होता है और वही जिस प्रकार ( ओजसा ) अपने पराक्रम से ( कृष्टी: इयर्ति ) क्षेत्र में हलादि के और मार्ग में रथ, शकट आदि के खींचने के कार्य करता है उसी प्रकार (वृषा) सुखों का वर्षक राजा और परमेश्वर ( वंसगः ) अति सेवनीय स्वरूप, मनोहर, एवं धर्मात्माओं को प्राप्त होने वाला होकर ( ओजसा ) अपने बल, पराक्रम से ( कृष्टीः ) मनुष्यों को ( इयर्ति ) प्राप्त होता, उनको संचालित करता है। और वही ( अप्रतिप्कुतः ) कभी प्रति-पक्षियों से विचलित न होने वाला, दृढ़ निश्चयी होकर ( ईशानः ) समस्त राष्ट्र का और जगत् का स्वामी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व श्लेषालंकार आहेत. माणसेच परमेश्वराला प्राप्त करू शकतात, कारण ज्ञानवृद्धी करण्याचा त्यांचा स्वभाव असतो. धर्मात्मा ज्ञानवान माणसांना परमेश्वर प्राप्त होतो. ईश्वराने निर्माण केलेल्या कक्षेत सूर्य आपल्या समोरच्या अर्थात समीप असणाऱ्या गोलांना चुंबक, लोखंडाप्रमाणे खेचण्यास समर्थ असतो. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    As the virile bull leads the herd it rules, so does Indra, generous lord indomitable and ruler of the world, inspire and lead His children to joy and freedom.

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    Subject of the mantra

    How is God obtained by men, has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vaṃsagaḥ)=properly divided for serving duty of the clan, (vṛṣā)=raining good virtues, (yūthāni)=group of bullocks, (vṛṣā)=showering good virtues, (iva)=as, (apratiṣkuta)=praying with true spirits and not moving from their path, (īśānaḥ)=creating or elucidating majestic universe, (īśvaraḥ)=God, (sūryyaḥ)=sun, (ca)=and, (ojasā)=by power, (kṛṣṭīḥ)=by behavior of men as attraction et cetera, (dharmātmanaḥ)=religious, (manuṣyān)=to men, (iyarti)=gets obtained, (vā)=or, (ākarṣaṇa)=attraction, (ādi)=et cetera, (vyavahārān) =to behaviour.

    English Translation (K.K.V.)

    Properly divided for serving the duty of clan, showering good virtues, group of the bullocks raining good virtues, as beggars and prayers with true spirits and not moving out from their path, by creators and elucidators of the majestic universe, raining good virtues God, Sun and power or by attraction et cetera activities of men; or gets obtained to Sun, attraction et cetera activities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile and paronomasia as figurative in this mantra. Only human beings can attain God, because they are in the nature of increasing knowledge. And righteousness is the nature of men of knowledge to attain God. And the Sun which God has created and established in the orbit. That is able to pull in front of that i.e. the near ones like a magnet, stone and iron.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God attained by a man is taught in this 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the strong bull leads on the herds, He the Rainer of happiness stirs the people with His might. He is irresistible Ruler who fulfils all noble desires.. He can be attained only by righteous people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वंसगः ) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान गच्छतीति सः (अप्रतिष्कुतः ) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीता स्वकक्षां विहाय इतस्ततो ह्यविचलितोवा ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only righteous people that can attain God, because it is their nature to make progress in Knowledge. God comes to righteous people only (is realized by them) as they come to Him they are in communion with Him. The sun also is able to attract the worlds near by as directed by the Lord. He revolves on his own axis.

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