Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । वृ॒ष॒न् अ॒मुम् । च॒रुम् । सत्रा॑ऽदावन् । अप॑ । वृ॒धि॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । अप्र॑तिऽस्कुतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपावृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। वृषन् अमुम्। चरुम्। सत्राऽदावन्। अप। वृधि। अस्मभ्यम्। अप्रतिऽस्कुतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः स ईश्वरः किमर्थः प्रार्थनीयः सूर्य्यश्च किंनिमित्त इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे वृषन् सत्रादावन् परमेश्वर ! स त्वमस्मभ्यमप्रतिष्कुतः सन्नोऽस्माकममुं चरुं मोक्षद्वारमपावृधि उद्घाटय इत्याद्यः। तथा भवद्रचितोऽयं सत्रादावा वृषाऽप्रतिष्कुतः सूर्य्योऽस्मभ्यममुं चरुं मेघमपावृणोत्युद्- घाटयतीत्यपरः ॥६॥

    पदार्थः

    (सः) ईश्वरः सूर्य्यो वा (नः) अस्माकम् (वृषन्) वर्षति सुखानि तत्सम्बुद्धौ, वर्षयति जलं वा स वा। कनिन्युवृषि० (उणा०१.१५४) अनेन ‘वृष’ धातोः कनिन्प्रत्ययः। (अमुम्) मोक्षद्वारमागाम्यानन्दं चान्तरिक्षस्थम् (चरुम्) ज्ञानलाभं मेघं वा। चरुरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (सत्रादावन्) सत्यं ददातीति तत्सम्बुद्धौ, सत्रं वृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताद्ददातीति स वा। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) अत्र आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। (अष्टा०३.२.७२) अनेन वनिप्प्रत्ययः। (अप) निवारणे। निपातस्य च। (अष्टा०६.३.१३६) इति दीर्घः। (वृधि) उद्घाटयोद्घाटयति वा। ‘वृञ्’ धातोः प्रयोगः। बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.४.७३) अनेन श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा०६.४.१०२) अनेन हेर्धिः। (अस्मभ्यम्) त्वदाज्ञायां पुरुषार्थे च वर्त्तमानेभ्यः (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितोऽविस्मृतो वा। यास्काचार्य्योऽस्यार्थमेवमाह-अप्रतिष्कुतोऽप्रतिष्कृतोऽप्रतिस्खलितो वेति। (निरु०६.१६) ॥६॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यो दृढतया सत्यं विद्यां चेश्वराज्ञामुपतिष्ठति तस्यात्मन्यन्तर्यामीश्वरोऽविद्यान्धकारं नाशयति। यतो नैव स पुरुषार्थाद्धर्माच्च कदाचिद्विचलति ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों को परमेश्वर की प्रार्थना किस प्रयोजन के लिये करनी चाहिये, वा सूर्य्य किसका निमित्त है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है-

    पदार्थ

    हे (वृषन्) सुखों के वर्षाने और (सत्रादावन्) सत्यज्ञान को देनेवाले परमेश्वर ! (सः) आप (अस्मभ्यम्) जो कि हम लोग आपकी आज्ञा वा अपने पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, उनके लिये (अप्रतिष्कुतः) निश्चय करानेहारे (नः) हमारे (अमुम्) उस आनन्द करनेहारे (चरुम्) प्रत्यक्ष मोक्ष के द्वार को ज्ञानलाभ को (अपावृधि) खोल दीजिये। हे परमेश्वर ! जो यह आपका बनाया हुआ (वृषन्) जल को वर्षाने और (सत्रादावन्) उत्तम-उत्तम पदार्थों को प्राप्त करनेवाला (अप्रतिष्कुतः) अपनी कक्षा ही में स्थिर रहता हुआ सूर्य्य (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (अमुम्) आकाश में रहनेवाले इस (चरुम्) मेघ को (अपावृधि) भूमि में गिरा देता है ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपनी दृढ़ता से सत्यविद्या का अनुष्ठान और नियम से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है, उसके आत्मा में से अविद्यारूपी अन्धकार का नाश अन्तर्य्यामी परमेश्वर कर देता है, जिससे वह पुरुष धर्म और पुरुषार्थ को कभी नहीं छोड़ता ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनुष्यों को परमेश्वर की प्रार्थना किस प्रयोजन के लिये करनी चाहिये, वा सूर्य्य किसका निमित्त है, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे वृषन् सत्रादावन् परमेश्वर ! स त्वम् अस्मभ्यम् प्रतिष्कुतः सन् नःअस्माकम् अमुं  चरुं  मोक्षद्वारम् अप वृधि उद्घाटय इत्याद्यः। तथा भवत् रचितो अयंसत्रादावा वृषा अप्रतिष्कुतः सूर्य्यः  अस्मभ्यम् अमुं  चरुं मेघम् अपावृणाति  उत्घाटयति इति अपरः ॥६॥

    पदार्थ

    पदार्थ- हे  (वृषन्) वर्षति सुखानि तत्सम्बुद्धौ, वर्षयति जलं वा स वा= सुखों बरसाने वाले  और (सत्रादावन्) सत्यं ददातीति तत्सम्बुद्धौ, सत्रं वृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताद्ददातीति स वा= सत्य ज्ञान को देने वाले अथवा हर ओर से वृष्टि नाम के यज्ञ को करने वाले (परमेश्वर) परमेश्वर (त्वम्) आप (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितोऽविस्मृतो वा= अपनी कक्षा में ही स्थिर सूर्य्य या विना विस्मृत किये, (सन्)= हुए हैं।  (नः) अस्माकम्=हमारे, (अमुम्) मोक्षद्वारमागाम्यानन्दं चान्तरिक्षस्थम्=आनन्द करने वाले प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार, (चरुम्) ज्ञानलाभं मेघं वा=ज्ञान लाभ को या मेघ को, (मोक्षद्वारम्)=मोक्ष का द्वार, (अप) निवारणे=निवारण करने में, (वृधि) उद्घाटयोद्घाटयति वा=खोलता है, (उद्घाटय)=खोलना, (इति)=ऐसा, (आद्यः)=आरम्भ का, (तथा)=वैसे ही, (भवत्)=होने वाला,  (रचितः)=रच कर, (अयम्)=यह, (सत्रादावा) सत्यं ददातीति तत्सम्बुद्धौ, सत्रं वृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताद्ददातीति स वा=सत्य ज्ञान को देने वाला या (उत्तम) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने वाला, (वृषा)=बादल, (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितोऽविस्मृतो वा= अपनी कक्षा ही में स्थिर रहता हुआ सूर्य्य या परमेश्वर, (सूर्य्यः)=सूर्य, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (अमुम्) मोक्षद्वारमागाम्यानन्दं चान्तरिक्षस्थम्=आनन्द करने वाले प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार, (चरुम्) ज्ञानलाभं मेघं वा=ज्ञान प्राप्त करने या बादल, (मेघम्)=बादल, (अपावृणाति) उत्घाटयति=खोलता है, (इति)=ऐसा ॥६॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य अपनी दृढ़ता से सत्यविद्या का अनुष्ठान और नियम से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है, उसके आत्मा में से अविद्यारूपी अन्धकार का नाश अन्तर्य्यामी परमेश्वर कर देता है, जिससे वह पुरुषधर्म और पुरुषार्थ को कभी नहीं छोड़ता ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- प्रथमः-परमेश्वर के पक्ष में- 
    हे  (वृषन्) सुखों बरसाने वाले  और (सत्रादावन्) सत्य ज्ञान को देने वाले अथवा हर ओर से वृष्टि नाम के यज्ञ को करने वाले (परमेश्वर) परमेश्वर! (त्वम्) आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अप्रतिष्कुतः+सन्) विना विस्मृत किये हुए हैं।  (नः) हमारे (अमुम्) आनन्द करने वाले प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार (चरुम्) ज्ञान लाभ को (मोक्षद्वारम्) मोक्ष का द्वार (अप) निवारण करने में (वृधि) खोलता है। (उद्घाटय)  खोलना (इति) ऐसा (आद्यः) आरम्भ का (तथा) वैसे ही (भवत्) होने वाला है।  (रचितः) रच कर (अयम्) यह (सत्रादावा) सत्य ज्ञान को देने वाला या (उत्तम) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने वाला है। (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अमुम्) आनन्द करने वाले प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार (चरुम्) ज्ञान प्राप्त करने का (अपावृणाति)  द्वार खोलता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराता है ॥६॥


    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- द्वितीय अर्थ सूर्य के पक्ष में-
    हे  (वृषन्) सुखों बरसाने वाले  और (सत्रादावन्) हर ओर से वृष्टि नाम के यज्ञ को करने वाले (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अप्रतिष्कुतः+सन्) अपनी कक्षा में ही स्थिर होते हुए सूर्य!  (नः) वह हमारे (चरुम्) मेघ को   (वृधि) खोलता है अर्थात् वृष्टि करता है। (इति) ऐसा (उद्घाटय) खोलना अर्थात् वृष्टि करना (आद्यः) आरम्भ से (तथा) वैसे ही (भवत्) होने वाला है।  (रचितः) रच कर (अयम्) यह (उत्तम) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने वाला होता है और (वृषा) बादल (अप्रतिष्कुतः) अपनी कक्षा ही में स्थिर रहता हुआ सूर्य (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (इति) ऐसा (मेघम्) बादल (अपावृणाति) खोलता है अर्थात् वर्षा करा देता है॥६॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) ईश्वरः सूर्य्यो वा (नः) अस्माकम् (वृषन्) वर्षति सुखानि तत्सम्बुद्धौ, वर्षयति जलं वा स वा। कनिन्युवृषि० (उणा०१.१५४) अनेन 'वृष' धातोः कनिन्प्रत्ययः। (अमुम्) मोक्षद्वारमागाम्यानन्दं चान्तरिक्षस्थम् (चरुम्) ज्ञानलाभं मेघं वा। चरुरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (सत्रादावन्) सत्यं ददातीति तत्सम्बुद्धौ, सत्रं वृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताद्ददातीति स वा। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) अत्र आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। (अष्टा०३.२.७२) अनेन वनिप्प्रत्ययः। (अप) निवारणे। निपातस्य च। (अष्टा०६.३.१३६) इति दीर्घः। (वृधि) उद्घाटयोद्घाटयति वा। 'वृञ्' धातोः प्रयोगः। बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.४.७३) अनेन श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा०६.४.१०२) अनेन हेर्धिः। (अस्मभ्यम्) त्वदाज्ञायां पुरुषार्थे च वर्त्तमानेभ्यः (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितोऽविस्मृतो वा। यास्काचार्य्योऽस्यार्थमेवमाह-अप्रतिष्कुतोऽप्रतिष्कृतोऽप्रतिस्खलितो वेति। (निरु०६.१६) ॥६॥
    विषयः- मनुष्यैः स ईश्वरः किमर्थः प्रार्थनीयः सूर्य्यश्च किंनिमित्त इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे वृषन् सत्रादावन् परमेश्वर ! स त्वमस्मभ्यमप्रतिष्कुतः सन्नोऽस्माकममुं चरुं मोक्षद्वारमपावृधि उद्घाटय इत्याद्यः। तथा भवद्रचितोऽयं सत्रादावा वृषाऽप्रतिष्कुतः सूर्य्योऽस्मभ्यममुं चरुं मेघमपावृणोत्युद्- घाटयतीत्यपरः ॥६॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो मनुष्यो दृढतया सत्यं विद्यां चेश्वराज्ञामुपतिष्ठति तस्यात्मन्यन्तर्यामीश्वरोऽविद्यान्धकारं नाशयति। यतो नैव स पुरुषार्थाद्धर्माच्च कदाचिद्विचलति ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    चरु का अपावरण 

    पदार्थ

    १. (सः) - वे आप  , जोकि 'वाज व सहस्रप्रधनों' में हमें विजय प्राप्त कराते हैं [४]  , जो "महाधन व अल्पधनों" - सम्पति व समृद्धि के देनेवाले हैं [५]  , (नः) - हमारे लिए हे (वृषन्) - सब सुखों की वर्षा करनेवाले प्रभो ! हे (सत्रादावन्) - सदा  , सब इष्ट - फलों को साथ ही देनेवाले प्रभो ! (अमुं चरुम्) - उस अपने ज्ञान के कोश को (अपावृधि) - खोलिए । 'ब्रह्मचर्य' शब्द में ब्रह्म - ज्ञान के चर - भक्षण का संकेत है । आचार्य विविध विषयों के ज्ञान का चरण - भक्षण कराते हैं । जिसका चरण - भक्षण किया जाए वह ज्ञान 'चरु' है । इसका अपावरण  , इसका प्रकट करना है [Exposition] । 'यस्मात् कोशादुदभराम वेदम्' - इन शब्दों में वेद ज्ञान का कोश है  , उस कोश को प्रभु - कृपा से हम खोल पाएँगे तभी अपने ज्ञान का विस्तार कर पाएंगे । 

    २. हे प्रभो ! (अस्मभ्यम्) - हमारे लिए आप (अप्रतिष्कुतः) प्रतिशब्द से रहित हों  , आप हमारे लिए 'न' इस शब्द का तो उच्चारण कीजिए ही नहीं  , अर्थात् हमारी प्रार्थना सदा आपसे सुनी जाए । प्रभो ! आप तो 'सत्रा - दावन्' सदा देनेवाले हैं । हम सदा आपके दान के पात्र बनें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से हमारे लिए ज्ञान का कोष खुला तो हमारे सब मनोरथ पूर्ण हो ही जाएँगे । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    हे ( वृषन् ) मेघ के समान सुखों के वर्षण करने हारे ! हे (सत्रादावन् ) हमारे अभीष्ट फलों को एक साथ ही देने वाले, अथवा मेघ के समान ही समस्त उत्तम फलों के दातः ! तू सूर्य के समान ( नः ) हमारे लिए (अपावृधि) द्वार खोल दे, जिससे हमें ज्ञान प्रकाश प्राप्त हो । (सः) वह तू ही ( अस्मभ्यम् ) हमारे लिए (अप्रतिष्कुतः) कभी पराजित न होने वाला, वीर विजेता के समान अप्रकम्प रहने वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस आपल्या दृढतेमुळे सत्यविद्येचे अनुष्ठान करतो व नियमाने ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतो, त्याच्या आत्म्यातील अविद्यारूपी अंधकाराचा नाश अंतर्यामी परमेश्वर करतो, त्यामुळे तो पुरुष धर्म व पुरुषार्थ कधी सोडत नाही. ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of the universe, light of the world, generous lord of wealth, irresistible wielder of power, generous giver of showers, grant us the yajnic prosperity of life and open the doors of freedom and salvation at the end.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    For what purpose should men pray God or Sun is instrumental cause of whom, has been described in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- He=O! (vṛṣan)=those who shower happiness and, (satrādāvan)= The giver of true knowledge or the one who performs the yagya named rain from all sides, (parameśvara)=God, (tvam)=You, (asmabhyam)=for us, (apratiṣkutaḥ+san)=The Sun while still in its orbit! (naḥ)=our, (amum)= the door of blissful direct salvation, (carum)= to gain benefit of knowledge, (mokṣadvāram)= door of salvation, (apa)=for redressal, (vṛdhi)= opens, (udghāṭaya)=opening, (iti)=such, (ādyaḥ)=of beginning, (tathā)=in the same way, (bhavat)=It is going to happen, (racitaḥ)= by creating, (ayam)=this, (satrādāvā)= the giver of true knowledge or, (uttama)= One who gets obtained good things, (asmabhyam)=for us, (amum)=this, (carum)= the door of blissful direct salvation, (apāvṛṇāti)= Opens the door i.e. gives salvation. Second-in favour of sun- He=O! (vṛṣan)= those who shower happiness and, (satrādāvan)= One who performs the Yajna named rain from all sides, (asmabhyam)=for us, (apratiṣkutaḥ)= Sun still in its orbit, (san)=is, [vaha]=that, (naḥ)=our, (carum)=cloud, (vṛdhi)= Opens means i.e. it rains, (iti)=such, (udghāṭaya)= Opening means i.e. it raining, (ādyaḥ)=from beginning, (tathā)=in the same way, (bhavat)= It is going to happen, (racitaḥ)=by creating, (ayam)=this, (uttama)= bestower of good things and, (vṛṣā)=cloud, (apratiṣkutaḥ)= the sun remaining stationary in its orbit, (asmabhyam)=for us, (iti)=such, (megham)=cloud, (apāvṛṇāti)= Opens it means it makes rain.

    English Translation (K.K.V.)

    Firest-in favour of God- O God who showers happiness and bestows true knowledge or performs the sacrificial fire called rain from all sides! You have been as forgotten for us. Opens door of blissful direct salvation to gain benefit of knowledge. Such an opening is going to be the same as the beginning. By creating this truth, He is the provider of knowledge or the one who gets obtained good things. This is the door of blissful direct salvation for us. Opens the door i.e. gets the salvation obtained. Second-in favour of Sun- O the one who showers happiness and performs the sacrificial fire of rain from all sides, the Sun being fixed in its orbit for us! That opens our cloud i.e. brings rain. Such opening means that it is going to rain in the same way is going to happen from the beginning. By creating it, it is the one who receives the best materials and the cloud remains stable in its orbit, the Sun opens such a cloud for us, that is, it makes rain

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The man who follows God's command with his firmness, rituals and rules of truthfulness, the darkness of ignorance in his soul is destroyed by the inner dweller God, so that he never leaves personal rule or precept and efforts.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What for should God be prayed to and what for the sun is to be thought of is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O Giver of all gifts, Rainer of happiness and peace ! Open the door of emancipation to us who are obedient to Thee and engaged in doing noble deeds. Thou art Irresistible O Lord. (2) O God, this sun created by Thee in irresistible, cause of rain and it removes the clouds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The man who firmly sticks to truth, knowledge and the command of God, that Inner Most Spirit dispels all the darkness of his ignorance, so that he never goes astray from the path of righteousness and exertion. (चरुम् ) ज्ञानलाभं मेघं वा चरुरिति मेघनामसु ( निघ० १.१० ) (सवादावन् ) सत्यं ददातीति तत् सम्बुद्धौ दृष्ट्याख्यं यज्ञं समन्ताददातीतिसः सत्रेति सत्यनामसु पठितम् ।( निघ० १.१० )

    Translator's Notes

    As the word चरु (Charu) stands for cloud also, the 2nd line may also mean quieten this cloud-like restless mind. In the seventh Mantra, Indra stands for God-

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top