ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । वाजे॑षु । नः॒ । अ॒व॒ । स॒हस्र॑ऽप्रधनेषु । च॒ । उ॒ग्रः । उ॒ग्राभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। वाजेषु। नः। अव। सहस्रऽप्रधनेषु। च। उग्रः। उग्राभिः। ऊतिऽभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इन्द्रशब्देन व्यावहारिकमर्थमुक्त्वाऽथेश्वरार्थमुपदिश्यते।
अन्वयः
हे जगदीश्वर ! उग्रो भवान् सहस्रप्रधनेषु वाजेषूग्राभिरूतिभिर्नो रक्ष सततं विजयं च प्रापय॥४॥
पदार्थः
(इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर ! (वाजेषु) संग्रामेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (नः) अस्मान् (अव) रक्ष (सहस्रप्रधनेषु) सहस्राण्यसंख्यातानि प्रकृष्टानि धनानि प्राप्नुवन्ति येषु तेषु चक्रवर्त्तिराज्यसाधकेषु महायुद्धेषु। सहस्रमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (च) आवृत्त्यर्थे (उग्रः) सर्वोत्कृष्टः। ऋज्रेन्द्राग्र० (उणा०२.२९) निपातनम्। (उग्राभिः) अत्यन्तोत्कृष्टाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनैः॥४॥
भावार्थः
परमेश्वरो धार्मिकेषु योद्धृषु कृपां धत्ते नेतरेषु। ये मनुष्या जितेन्द्रिया विद्वांसः पक्षपातरहिताः शरीरात्मबलोत्कृष्टा अनलसाः सन्तो धर्मेण महायुद्धानि विजित्य राज्यं नित्यं रक्षन्ति त एव महाभाग्यशालिनो भूत्वा सुखिनो भवन्ति॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
इन्द्र शब्द से व्यवहार को दिखलाकर अब प्रार्थनारूप से अगले मन्त्र में परमेश्वरार्थ का प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देनेवाले जगदीश्वर ! (उग्रः) सब प्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात को छोड़नेवाले शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छो़ड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरन्तर पालन करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥४॥
विषय
इन्द्र शब्द से व्यवहार को दिखलाकर अब प्रार्थनारूप से इस मन्त्र में परमेश्वरार्थ का प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे जगदीश्वर ! उग्रः भवान् सहस्रप्रधनेषु वाजेषु उग्राभिः ऊतिभिः नः रक्ष सततं विजयं च प्रापय॥४॥
पदार्थ
हे (जगदीश्वर)=परमेश्वर! (उग्रः) सर्वोत्कृष्टः=सर्वोत्कृष्ट, (भवान्)=आप, (सहस्रप्रधनेषु) सहस्राण्यसंख्यातानि प्रकृष्टानि धनानि प्राप्नुवन्ति येषु तेषु चक्रवर्त्तिराज्यसाधकेषु महायुद्धेषु= असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) संग्रामेषु=युद्धों में, (उग्राभिः) अत्यन्तोत्कृष्टाभिः=अत्यन्त सुख देनेवाली अत्यन्त उत्कृष्ट से, (ऊतिभिः) रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनैः=रक्षा प्राप्ति के लिये पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान के लिये, (नः)=हमारी, (रक्ष)=रक्षा, (सततम्)=निरन्तर, (विजयम्)=विजय को, (च)=और, (प्रापय)=प्राप्त कराइये॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात से रहित शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छोड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत करके राज्य की नित्य रक्षा करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (उग्रः) सर्वोत्कृष्ट (जगदीश्वर) परमेश्वर! (भवान्) आप, (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करने वाले (वाजेषु) युद्धों में, (उग्राभिः) अत्यन्त उत्कृष्टता से (ऊतिभिः) रक्षा प्राप्ति के लिये और पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान के लिये (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा (च) और (सततम्) निरन्तर (विजयम्) विजय को (प्रापय) प्राप्त कराइये॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर ! (वाजेषु) संग्रामेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (नः) अस्मान् (अव) रक्ष (सहस्रप्रधनेषु) सहस्राण्यसंख्यातानि प्रकृष्टानि धनानि प्राप्नुवन्ति येषु तेषु चक्रवर्त्तिराज्यसाधकेषु महायुद्धेषु। सहस्रमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (च) आवृत्त्यर्थे (उग्रः) सर्वोत्कृष्टः। ऋज्रेन्द्राग्र० (उणा०२.२९) निपातनम्। (उग्राभिः) अत्यन्तोत्कृष्टाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनैः॥४॥
विषयः- इन्द्रशब्देन व्यावहारिकमर्थमुक्त्वाऽथेश्वरार्थमुपदिश्यते।
अन्वयः- हे जगदीश्वर ! उग्रो भवान् सहस्रप्रधनेषु वाजेषूग्राभिरूतिभिर्नो रक्ष सततं विजयं च प्रापय॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरो धार्मिकेषु योद्धृषु कृपां धत्ते नेतरेषु। ये मनुष्या जितेन्द्रिया विद्वांसः पक्षपातरहिताः शरीरात्मबलोत्कृष्टा अनलसाः सन्तो धर्मेण महायुद्धानि विजित्य राज्यं नित्यं रक्षन्ति त एव महाभाग्यशालिनो भूत्वा सुखिनो भवन्ति॥४॥
विषय
वाज व सहस्त्रप्रधन
पदार्थ
१. वैदिक साहित्य में छोटे युद्ध 'वाज' कहलाते हैं तथा बड़े 'सहस्रप्रधन' कहे जाते हैं । संसार में शक्ति की प्राप्ति के लिए जो संग्राम होता है वह 'वाज' है और अध्यात्म - जीवन को सुन्दर बनाने के लिए काम , क्रोध , लोभादि के साथ होनेवाला युद्ध 'सहस्रप्रधन' है । प्रभु से भक्त प्रार्थना करते हैं कि हे (इन्द्र) - शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! आप (नः) - हमें (वाजेषु) - धनादि की प्राप्ति के निमित्त होनेवाले इन संग्रामों में (अव) - सुरक्षित करिए । आपकी कृपा से हम धनों का विजय करके अभ्युदयशाली बनें ।
२. आप हमें अध्यात्म - संग्रामों में (च) - भी जो कि (सहस्त्रप्रधनेषु) - [स+हस्+प्र+धन] आनन्दयुक्त प्रकृष्ट धनों की प्राप्ति के कारणभूत हैं , जिनमें विजयी बनकर हम मन को वशीभूत [दमन] करके काम के स्थान में प्रेम को प्राप्त करते हैं , क्रोध का स्थान 'दया' को देते हैं और लोभ का स्थान 'दान' ले लेता है , उन सहस्रप्रधनों में भी आप हमारी रक्षा करिए ।
३. हे (उग्र) तेजस्वी प्रभो ! आप (उग्राभिः ऊतिभिः) - अपने तेजपूर्ण , प्रबल रक्षणों से इन युद्धों में हमें विजयी बनाइए । विजय तो आपको ही करनी है , हम अकेले इन कामादि को क्या जीतेंगे?
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - कृपा से वाजों में विजयी बनकर हम अभ्युदय को प्राप्त करें और सहस्रनधनों में भी विजयी होकर निःश्रेयस की साधना करें ।
विषय
परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! राजन् ! तू ( नः ) हमें ( सहस्रप्रधनेषु ) सहस्रों, अनेक उत्तम धनों के देनेवाले ( वाजेषु ) संग्रामों में, हे ( उग्र ) सदा बलवान्, प्रचण्ड शक्तिमन् ! तू ( उग्राभिः ) शत्रुओं को उद्वेग उत्पन्न करने वाले (ऊतिभिः) रक्षाकारी साधनों और रक्षाकारिणी सेनाओं से (नः अव ) हमारी रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा हा स्वभाव आहे की युद्ध करणाऱ्या धार्मिक पुरुषांवर आपली कृपा करतो, आळशी लोकांवर नाही. त्यामुळे जी माणसे जितेन्द्रिय, विद्वान, शरीर व आत्म्याच्या बलाने युक्त होतात व पक्षपात न करता अत्यंत पुरुषार्थी बनून आळस सोडून धर्माने मोठमोठी युद्धे जिंकतात व सतत प्रजेचे पालन करतात तीच सौभाग्यशाली व सुखी होतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of light and omnipotence, in a thousand battles of life and prize contests, protect us with bright blazing ways of protection and advancement.
Subject of the mantra
Showing the behavior by the word “Indra” now, the word “God’s” meaning has been elucidated in the form of prayer.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (jagadīśvara) =God, (ugraḥ)= best of all, (bhavān)=You, (sahasrapradhaneṣu) =provider of enumerable wealth and accomplisher of cakravartti rājya (kingdom), (vājeṣu)=in wars, (ugrābhiḥ)=by extreme excellent, (ugrābhiḥ)=for securing defence having specific knowledge of substances, (naḥ) =our, (rakṣa)=protection, (satatam) =continuous, (vijayam)=Victory, (ca)=and, (prāpaya)=get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O best of all God! You are provider of the enumerable wealth and accomplisher of cakravartti rājya (kngdom). For extreme excellence in wars, getting protection and having specific knowledge of substances, kindly provide us protection and continuous victory.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It is the nature of God to bestow His favour on the godly men and not on the lazy ones. Therefore, those men who protect the kingdom by winning great wars with the help of virtuous bodies and souls, free from partiality and sacrificing laziness, they are happy having attained great fortune.
TRANSLATOR’S NOTES-
cakravartti rājya- One who has in hand lotus-shaped symbol in the form of a wheel, the owner of all the land that surrounds such an ocean is called Chakravarti. Such a state is called a Chakravarti state.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Almighty Lord, protect us always in all battles where abundant wealth of various kinds is gained. Protect us and enable us to attain knowledge and happiness by Thy insuperable protective powers O Omnipotent God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ऊतिभिः) रक्षाप्राप्ति विज्ञान सुखप्रवेशनैः (वाजेषु ) संग्रामेषु वाज इति संग्रामनामसु ( निघ० २.१० )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God shows kindness to righteous soldiers and to none else. Only those persons are lucky who control their senses, are impartial learned people possessing good strength of the body and the soul and are alert. They having conquered righteously in great battles, protect their country and get true happiness.
Translator's Notes
It is noteworthy and significant that while as Skanda Swami, Venkata Madhava and Sayanancharya, all these commentators have translated अव as simply रक्ष and to our great surprise, Sayanacharya who is considered to be a great grammarian and author of a धांतुपाठवृप्ति quotes अवरक्षणे ignoring other 18 meanings of the verb root अव, It is Rishi Dayananda alone that translates ऊतिभि: derived from अव as रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनै: thus taking into consideration four meanings of the verb root अव How deep and comprehensive is the Rishi's interpretation ! ऊति यूति जूति हेति साति कीर्तयश्च । (अष्टाध्याय्याम् ३.३.९७ ) Thus the word ऊति is derived from अव This is where all agree and yet they (with the exception of Rishi Dayananda) have given only one narrow meaning.
बंगाली (1)
পদার্থ
ইন্দ্র বাজেষু নোঽব সহস্রপ্রধনেষু চ।
উগ্র উগ্রাভিরূতিভিঃ।।৭৩।।
(ঋগ্বেদ ১।৭।৪)
পদার্থঃ হে (উগ্র) অসৎ শক্তির প্রতি ভয়ংকর (ইন্দ্র) শত্রুবিদারক জগদীশ্বর! তুমি (বাজেষু) সংকটময় মুহূর্তে (সহস্রপ্রধনেষু চ) এবং সহস্র ব্যক্তির প্রাণনাশক ঘোর সংগ্রামকালে (উগ্রাভিঃ) দুর্দমনীয় (ঊতিভিঃ) রক্ষা-শক্তি দ্বারা (নঃ) ধার্মিক সজ্জন ব্যক্তিদের [আমাদের] (অব) রক্ষা করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ জীবনের পদে পদে আসা সকল সংকটে, বাহ্য তথা অভ্যন্তরীণ ভীষণ সংগ্রামে, যোগমার্গে উপস্থিত ব্যাধি-সংশয় সকল বিঘ্ন, শত্রুর আকস্মিক আক্রমণ হতে পরমেশ্বরই আমাদেরকে নিরন্তর রক্ষা করে থাকেন ।।৭৩।।
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