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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र पू॒तास्ति॒ग्मशो॑चिषे॒ वाचो॑ गोतमा॒ग्नये॑। भर॑स्व सुम्न॒युर्गिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । पू॒ताः । ति॒ग्मऽशो॑चिषे । वाचः॑ । गोतम । अ॒ग्नये॑ । भर॑स्व । सु॒म्न॒ऽयुः । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र पूतास्तिग्मशोचिषे वाचो गोतमाग्नये। भरस्व सुम्नयुर्गिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। पूताः। तिग्मऽशोचिषे। वाचः। गोतम। अग्नये। भरस्व। सुम्नऽयुः। गिरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे गोतम ! सुम्नयुस्त्वं विद्वांसः तिग्मशोचिषेऽग्नये याः पूतागिरो धरन्ति ता वाचः प्रभरस्व ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (पूताः) पवित्रकारिकाः (तिग्मशोचिषे) तीव्रबुद्धिप्रकाशाय (वाचः) विद्यावाणीः (गोतम) अतिशयेन स्तोतः (अग्नये) विज्ञानवते (भरस्व) धर (सुम्नयुः) य आत्मनः सुम्नं सुखमिच्छति तच्छीलः (गिरः) विद्याशिक्षोपदेशयुक्ताः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    यस्मान्नहि कश्चिदन्यः परमेश्वरेण परमविदुषा वा विना सत्यविद्याः प्रकाशितुं शक्नोति, तस्मादेतौ सदा संसेवनीयौ स्तः ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (गोतम) अत्यन्त स्तुति और (सुम्नयुः) सुख की इच्छा करनेवाले विद्वान् ! तू (तिग्मशोचिषे) तीक्ष्ण बुद्धि प्रकाशवाले (अग्नये) विज्ञानरूप और विज्ञानवाले विद्वान् के लिये (पूताः) पवित्र करनेवाली (गिरः) विद्या की शिक्षा और उपदेश से युक्त वाणियों को धारण करते हैं, उन (वाचः) वाणियों को (प्र भरस्व) सब प्रकार धारण कर ॥ १० ॥

    भावार्थ

    जिस कारण परमेश्वर और परम विद्वान् के विना कोई दूसरा सत्यविद्या के प्रकाश करने को समर्थ नहीं होता, इसलिए ईश्वर और विद्वान् की सदा सेवा करनी चाहिये ॥ १० ॥

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    विषय

    सुम्नयुः

    पदार्थ

    १. हे (गोतम) = प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष ! (सुम्नयुः) =[क] प्रभुस्तवन [Hymn] को चाहता हुआ, [ख] जीवन में आनन्द [Joy, happiness] की कामना करता हुआ, [ग] प्रभुकृपा [Favour, protection] का अभिलाषी होता हुआ, [घ] त्याग [Sacrifice] की वृत्ति को अपनाना चाहता हुआ तू (तिग्मशोचिषे) = अत्यन्त तीव्र ज्ञान की ज्योतिवाले (अग्नये) = उस अग्रणी प्रभु के लिए (पूताः वाचः) = पवित्र वचनों तथा (गिरः) = स्तुति - वाणियों को (प्रभरस्व) = प्रकर्षेण धारण करनेवाला बन । २. प्रभुप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम पवित्र वचनों का उच्चारण करें और प्रभुस्तुति - प्रतिपादक वाणियों को अपनाएँ । वे प्रभु हमें अपनी ज्ञान - ज्योति से दीप्त करेंगे और हमें उन्नति - पथ पर ले - चलेंगे । ३. पवित्र वचनों को अपनाने से हम [क] प्रभुस्तवन कर रहे होंगे, [ख] आनन्द को प्राप्त करेंगे, [ग] प्रभुकृपा के पात्र होंगे और [घ] हममें त्यागवृत्ति पनपेगी ।

    भावार्थ

    भावार्थ - पवित्र वचन व स्तुति - वाणियाँ प्रभु को प्रीणित करनेवाली होती हैं ।

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    विषय

    राजा, विद्वान्, परमेश्वर से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( गोतम ) ज्ञानवाणियों के उत्तम विद्वन् ! तू ( तिग्मशोचिषे ) तीक्ष्ण ज्वाला या दीप्तिवाले ( अग्नये ) अग्नि के समान तेजस्वी, परमेश्वर विद्वान् और राजा के वर्णन करने के लिए स्वयं ( सुम्नयुः ) सुख की इच्छा करता हुआ ( पूताः ) आचारादि में पवित्र प्रभावजनक ( वाचः ) वाणियों को और ( गिरः ) ज्ञानोपदेशयुक्त वेदवाणियों को और (प्र भरस्व) अच्छी प्रकार कहा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी इस मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे गोतम ! सुम्नयुः त्वं विद्वांसः तिग्मशोचिषे अग्नये याः पूताः गिरः धरन्ति ता वाचः प्र भरस्व ॥१०॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (गोतम) अतिशयेन स्तोतः= अतिशय रूप से स्तुति करनेवाले ! (सुम्नयुः) य आत्मनः सुम्नं सुखमिच्छति तच्छीलः=अपने उत्तम मन से सुख की इच्छा करनेवाले स्वभाव के, (त्वम्)तुम, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (तिग्मशोचिषे) तीव्रबुद्धिप्रकाशाय= तीव्र बुद्धि के प्रकाश के लिये, (अग्नये) विज्ञानवते= बुद्धि से संपन्न, (याः)=जो, (पूताः) पवित्रकारिकाः=पवित्र करनेवाली, (गिरः) विद्याशिक्षोपदेशयुक्ताः= विद्या और शिक्षा के उपदेशों से युक्त वाणी है, उसको, (धरन्ति)=धारण करते हैं, (ता)=वह, (वाचः) विद्यावाणीः= विद्या से युक्त वाणी, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (भरस्व) धर= धारण कीजिये ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- क्योंकि परमेश्वर और किसी अन्य परम विद्वान् के विना कोई सत्यविद्या के प्रकाश करने में समर्थ नहीं हो सकता है, इसलिए ईश्वर और विद्वान् इन दोनों की सदा सेवा करनी चाहिये ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (गोतम) अतिशय रूप से स्तुति करनेवाले ! (सुम्नयुः) अपने उत्तम मन से सुख की इच्छा करनेवाले स्वभाव के (त्वम्) तुम (विद्वांसः) विद्वान् लोग (तिग्मशोचिषे) तीव्र बुद्धि के प्रकाश के लिये, (अग्नये) बुद्धि से संपन्न (याः) जो (पूताः) पवित्र करनेवाली, (गिरः) विद्या और शिक्षा के उपदेशों से युक्त वाणी है, उसको (धरन्ति) धारण करते हो, (ता) वह (वाचः) विद्या से युक्त वाणी (प्र) प्रकृष्ट रूप से (भरस्व) धारण कीजिये ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    प्र । पू॒ताः । ति॒ग्मऽशो॑चिषे । वाचः॑ । गोतम । अ॒ग्नये॑ । भर॑स्व । सु॒म्न॒ऽयुः । गिरः॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यस्मान्नहि कश्चिदन्यः परमेश्वरेण परमविदुषा वा विना सत्यविद्याः प्रकाशितुं शक्नोति, तस्मादेतौ सदा संसेवनीयौ स्तः ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर व अत्यंत विद्वान यांच्याशिवाय दुसरा कोणी सत्यविद्या प्रकट करण्यास समर्थ असू शकत नाही. त्यासाठी ईश्वर व विद्वानाची सेवा सदैव करावी. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Most dedicated celebrant in search of peace and well-being of the soul, raise your voice and say holy words and sing pure songs of knowledge, wisdom and prayer in honour of Agni, blazing lord of splendour and vision of omniscience who would purify your mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni, is further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Praiser of Truth, thou who desirest thy happiness, utter those pure words full of wisdom, education and sermon which learned persons use for highly intelligent men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तिग्मशोचिषे ) तीव्र बुद्धिप्रकाशाय = For a highly intelligent person.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can manifest true knowledge without God and a highly learned person. Therefore God and a scholar should always be served well.

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    Subject of the mantra

    Even then, in this mantra it has been preached about how a scholar should be.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    O one who praises excessively! You learned people of nature who desire happiness from your noble heart, for the manifestation of sharp intelligence, you imbibe the speech that purifies, is endowed with intelligence, is full of teachings of vidya and education, that speech full of knowledge should be possessed eminently.

    English Translation (K.K.V.)

    O one who praises excessively! You learned people of nature who desire happiness from your noble heart, for the manifestation of sharp intelligence, you imbibe the speech that purifies, is endowed with intelligence, is full of teachings of vidya and education, that speech full of knowledge should be possessed eminently.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Because no one can reveal the true knowledge without God and any other supreme scholar, therefore we should always serve both of them.

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