ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 11
यो नो॑ अग्नेऽभि॒दास॒त्यन्ति॑ दू॒रे प॑दी॒ष्ट सः। अ॒स्माक॒मिद्वृ॒धे भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठयः । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒भि॒ऽदास॑ति । अन्ति॑ । दू॒रे । प॒दी॒ष्ट । सः । अ॒स्माक॑म् । इत् । वृ॒धे । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो अग्नेऽभिदासत्यन्ति दूरे पदीष्ट सः। अस्माकमिद्वृधे भव ॥
स्वर रहित पद पाठयः। नः। अग्ने। अभिऽदासति। अन्ति। दूरे। पदीष्ट। सः। अस्माकम्। इत्। वृधे। भव ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यः भवानन्ति दूरे नोऽस्मभ्यमभिदासति पदीष्ट सं त्वमस्माकं वृध इद्भव ॥ ११ ॥
पदार्थः
(यः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) विज्ञापक (अभिदासति) अभीष्टं ददाति (अन्ति) समीपे। अत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लुक्। छान्दसो वर्णलोपो वेति कलोपश्च। (दूरे) विप्रकृष्टे (पदीष्ट) पद्यते। अत्र लिङः सलोपो०। इति सकारलोपः। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सः) (अस्माकम्) (इत्) एव (वृधे) वृद्धये (भव) ॥ ११ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्योऽन्तर्बहिर्व्याप्तेश्वरो ज्ञानं विज्ञापयति यो विद्वान् दूरे समीपे वा स्थित्वा सत्योपदेशेन विद्याः प्रददाति स कथं न सम्यक् सेवनीयः ॥ ११ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विज्ञान देनेवाले (यः) जो विद्वान् ! आप (अन्ति) समीप और (दूरे) दूर (नः) हमारे लिये (अभिदासति) अभीष्ट वस्तुओं को देते और (पदीष्ट) प्राप्त होते हो (सः) सो आप (अस्माकम्) हमारी (इत्) ही (वृधे) वृद्धि करनेवाले (भव) हूजिये ॥ ११ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को उस ईश्वर की, जो बाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक होके ज्ञान देता है तथा जो विद्वान् दूर वा समीप स्थित होके सत्य उपदेश से विद्या देता है, उसकी सेवा क्यों न करनी चाहियेि अर्थात् अवश्य करनी चाहिये ॥ ११ ॥
विषय
विघ्नों का हटाना
पदार्थ
१. हे अपने - शत्रुओं का दहन करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो कोई (अन्ति) = समीप होता हुआ (नः) = हमें (अभिदासति) = भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण से नष्ट करना चाहता है, अर्थात् शरीर में व्याधियों और मन में आधियों का कारण बनता है, (सः) = वह शत्रु (दूरे पदीष्ट) = हमसे दूर जानेवाला हो, वह सुदूर विनष्ट हो जाए । २. काम - क्रोधादि शत्रु ऐसे हैं कि हमारे अत्यन्त समीप हैं, मन में पैदा हो जाते हैं । ये हमारे समीप होते हुए हमारे विनाश का कारण बनते हैं । इनके कारण शरीर में विविध रोग आ जाते हैं और मन में निरन्तर अशान्ति बनी रहती है । ३. हे प्रभो ! आप इन शत्रुओं को हमसे सुदूर नष्ट कर दीजिए और (इत्) = निश्चय से (अस्माकम्) = हमारे (वृधे) = वर्धन के लिए (भव) = होओ । इन शत्रुओं के नाश से ही उन्नति सम्भव होती है । ये सब शत्रु उन्नति के विघ्न हैं । विघ्न हटने पर ही हम आगे बढ़ते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से उन्नति के विघ्नभूत शत्रु दूर हों और हम उन्नति - पथ पर आगे बढ़ें ।
विषय
राजा, विद्वान्, परमेश्वर से प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! अग्रणी नायक ! ज्ञानवन् ! ( यः ) जो ( नः ) हमें ( दूरे अन्ति ) दूर और पास सर्वत्र ही ( अभिदासति ) सब प्रकार से देना चाहता है और (पदीष्ट ) हमें प्राप्त होना चाहता है ( सः ) वह आप ( अस्मान् ) हमारे ( वृधे भव ) वृद्धि के लिए हो । अथवा—हे (अग्ने ) ज्ञानवन् ! नायक ! ( यः ) जो (नः अन्ति) हमारे पास आकर हम पर ( अभिदासति ) सब प्रकार से नाश करना या हानि पहुंचाना चाहता है ( सः ) वह हमसे ( दूरे पदीष्ट ) दूर हो । और तू ( अस्माकं वृधे भव ) हमारी वृद्धि के लिए हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यः भवान् अन्ति दूरे नः अस्मभ्यम् अभिदासति पदीष्ट {सः} त्वम् अस्माकं वृध इत् भव ॥११॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) विज्ञापक=विशेष ज्ञान करानेवाले ! (यः) विद्वान्= जो विद्वान्, (भवान्)=आप, (अन्ति) समीपे= समीप और, (दूरे) विप्रकृष्टे=दूर से, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (अभिदासति) अभीष्टं ददाति= इच्छित वस्तुओं को प्रदान करता है, (पदीष्ट) पद्यते=स्थानान्तरित करता है, {सः}=वह, (त्वम्)=तुम, (अस्माकम्)= हमारी, (वृधे) वृद्धये=वृद्धि के लिये, (इत्) एव=ही, (भव)=होओ ॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- - मनुष्यों के लिये जो ईश्वर बाहर व अन्दर व्याप्त हो करके ज्ञान देता है, जो विद्वान् दूर और समीप स्थित हो करके सत्य के उपदेश से विद्या प्रदान करता है, उसकी क्यों न पूजा करनी चाहिये ? ॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विशेष ज्ञान करानेवाले! (यः) जो विद्वान् (भवान्) आप, (अन्ति) समीप और (दूरे) दूर से (नः) हमारे लिये (अभिदासति) इच्छित वस्तुओं को प्रदान करता है और उन्हें (पदीष्ट) स्थानान्तरित करता है, {सः} वह (त्वम्) तुम, (अस्माकम्) हमारी (वृधे) वृद्धि के लिये (इत्) ही (भव) होओ ॥११॥
संस्कृत भाग
यः । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒भि॒ऽदास॑ति । अन्ति॑ । दू॒रे । प॒दी॒ष्ट । सः । अ॒स्माक॑म् । इत् । वृ॒धे । भ॒व॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्योऽन्तर्बहिर्व्याप्तेश्वरो ज्ञानं विज्ञापयति यो विद्वान् दूरे समीपे वा स्थित्वा सत्योपदेशेन विद्याः प्रददाति स कथं न सम्यक् सेवनीयः ॥११॥
मराठी (1)
भावार्थ
अंतर्बाह्य व्याप्त असलेला ईश्वर ज्ञान देतो तसेच दूर किंवा जवळ असलेला विद्वान सत्याचा उपदेश करतो तेव्हा माणसांनी त्याचा स्वीकार का करू नये.
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and power, whosoever far or near hate us or enslave us, may he be destroyed. Lord of life and wealth, be kind and gracious for our growth and progress.$Also: Agni, lord of light and wealth, whatever you give us, or whenever and wherever you oblige us in person, that may be for our good and advancement.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni be giver of knowledge, may you who give ns desirable objects whether nigh or afar, be to us propitious for our advancement.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अन्ति) समीपे ! अत्र सुपांसुलुक् इति लुक् विभक्ते लुर्क् । छान्दसो वर्णलोपोवेति कलोपश्च || = Near.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Why should not men serve All-pervading God who gives good knowledge and a learned good person who whether nigh or afar imparts good knowledge with noble sermons ?
Subject of the mantra
Then what kind of scholar should he be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) =the one who imparts special knowledge, (yaḥ) =that scholar, (bhavān) =you, (anti) =near and, (dūre) =from far, (naḥ) =for us, (abhidāsati) =who provides the desired things and to them, (padīṣṭa)=transfers, {saḥ} =that, (tvam) =you, (asmākam) =our, (vṛdhe) =for progress, (it) =only, (bhava) =be.
English Translation (K.K.V.)
O the one who imparts special knowledge! May you be the scholar who provides and transfers the desired things for us from near and far, only for our progress.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Why should we not worship the God who imparts knowledge to human beings by being present inside and outside, the scholar who is located far away and nearby and imparts knowledge through the teachings of truth?
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal