ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 12
स॒ह॒स्रा॒क्षो विच॑र्षणिर॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति। होता॑ गृणीत उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षः । विऽच॑र्षणिः । अ॒ग्निः । रक्षां॑सि । से॒ध॒ति॒ । होता॑ । गृ॒णी॒ते॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राक्षो विचर्षणिरग्नी रक्षांसि सेधति। होता गृणीत उक्थ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअक्षः। विऽचर्षणिः। अग्निः। रक्षांसि। सेधति। होता। गृणीते। उक्थ्यः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथोक्थ्यः सहस्राक्षो विचर्षणिर्होताग्नी रक्षांसि सेधति निषेधति वेदान् गृणीते तथा त्वं भव ॥ १२ ॥
पदार्थः
(सहस्राक्षः) सहस्राण्यक्षीणि यस्मिन् सः (विचर्षणिः) साक्षाद् द्रष्टा (अग्निः) यथा परमेश्वरस्तथा विद्वान् (रक्षांसि) दुष्टानि कर्माणि दुष्टस्वभावान् प्राणिनः (सेधति) दूरीकरोति (होता) दाता (गृणीते) उपदिशति (उक्थ्यः) स्तोतुमर्हः ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं परमेश्वरो विद्वान् वा यानि कर्माणि कर्त्तुमुपदिशति तानि कर्त्तव्यानि यानि निषेधति तानि त्यक्तव्यानि इति विजानीत ॥ १२ ॥ अत्राऽग्निविद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे (उक्थ्यः) स्तुति करने योग्य (सहस्राक्षः) असंख्य नेत्रों की सामर्थ्य से युक्त (विचर्षणिः) साक्षात् देखनेवाला (होता) अच्छे-अच्छे विद्या आदि पदार्थों को देनेवाला (अग्निः) परमेश्वर (रक्षांसि) दुष्ट कर्म वा दुष्ट कर्मवाले प्राणियों को (सेधति) दूर करता है और वेदों का (गृणीते) उपदेश करता है, वैसे तू हो ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर वा विद्वान् जिन कर्मों के करने की आज्ञा देवे उनको करो और जिनका निषेध करे उनको छोड़ दो ॥ १२ ॥ इस सूक्त में अग्नि ईश्वर और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इसके अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वर व विद्वान जे कर्म करण्याची आज्ञा देतात ते करा व ज्याचा निषेध असेल त्याचा त्याग करा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of a thousand eyes (such as the sun), lord of universal vision, dispels and destroys the evil, the demons, darkness and suffering and poverty. High- priest of cosmic yajna, he is adorable and reveals the voice of omniscience in the soul.
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