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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ ते॑ सुप॒र्णा अ॑मिनन्तँ॒ एवैः॑ कृ॒ष्णो नो॑नाव वृष॒भो यदी॒दम्। शि॒वाभि॒र्न स्मय॑मानाभि॒रागा॒त्पत॑न्ति॒ मिहः॑ स्त॒नय॑न्त्य॒भ्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । सु॒ऽप॒र्णाः । अ॒मि॒न॒न्त॒ । एवैः॑ । कृ॒ष्णः । नो॒ना॒व॒ । वृ॒ष॒भः । यदि॑ । इ॒दम् । शि॒वाभिः॑ । न । स्मय॑मानाभिः । आ । अ॒गा॒त् । पत॑न्ति । मिहः॑ । स्त॒नय॑न्ति । अ॒भ्रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते सुपर्णा अमिनन्तँ एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्। शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात्पतन्ति मिहः स्तनयन्त्यभ्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। सुऽपर्णाः। अमिनन्त। एवैः। कृष्णः। नोनाव। वृषभः। यदि। इदम्। शिवाभिः। न। स्मयमानाभिः। आ। अगात्। पतन्ति। मिहः। स्तनयन्ति। अभ्रा ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यो सुपर्णाः आमिनन्तैवैः कृष्णो वृषभ इदमिव नोनाव यथा स्मयमानाभिः शिवाभिर्नेव यद्यगाद् यथाऽभ्रास्ते नयन्ति मिह आपतन्ति तथा विद्या वर्षेत् तर्हि तस्य ते तव किमप्राप्तं स्यात् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (ते) तव (सुपर्णाः) किरणाः। सुपर्ण इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अमिनन्त) प्रक्षिपन्ति (एवैः) प्रापकैर्गुणैः (कृष्णः) आकर्षणकर्त्ता (नोनाव) अत्यन्तप्रशंसितः (वृषभः) वृष्टिहेतुः सूर्य्यः (यदि) चेत् (इदम्) जलम्। इदमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (शिवाभिः) कल्याणकारिकाभिः कन्याभिः (न) इव (स्मयमानाभिः) किञ्चिद्धासकारिकाभिः (आ) अभितः (अगात्) प्राप्नोति (पतन्ति) उपरिष्टादधः (मिहः) वृष्टयः (स्तनयन्ति) शब्दयन्ति (अभ्रा) अभ्राणि ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येषां ब्रह्मचारिणां ब्रह्मचारिण्यः स्त्रियः स्युस्ते सुखं कथन्न लभेरन् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप जैसे (सुपर्णाः) किरणें (आमिनन्त) सब ओर से वर्षा की प्रेरणा करती हैं (एवैः) प्राप्त करनेवाले गुणों से सहित (कृष्णः) आकर्षण करता (वृषभः) वर्षानेवाला सूर्य (इदम्) जल को वर्षाता है, वैसे विद्या की (नोनाव) प्रशंसित वृष्टि करें तथा (स्मयमानाभिः) सदा प्रसन्नवदन (शिवाभिः) शुभ गुण, कर्म्मयुक्त कन्याओं के साथ तत्तुल्य ब्रह्मचारियों के विवाह के (न) समान सुख को (यदि) जो (अगात्) प्राप्त हो और जैसे (अभ्रा) मेघ (स्तनयन्ति) गर्जते तथा (मिहः) वर्षा के जल (आ पतन्ति) वर्षते हैं, वैसे विद्या को वर्षावे तो (ते) तुझको क्या अप्राप्त हो, अर्थात् सब सुख प्राप्त हों ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। जिन विद्वान् ब्रह्मचारियों की विदुषी ब्रह्मचारिणी स्त्री हों, वे पूर्ण सुख को क्यों न प्राप्त हों ॥ २ ॥

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    विषय

    वृष्टि व गर्जन

    पदार्थ

    १. (सुपर्णाः) = उत्तम पालन व पूरणादि कर्मोंवाले (ते) = वे प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (एवैः) = क्रियाशीलताओं के द्वारा (आ, अमिनन्त) = व्यापक ज्ञान को प्राप्त कराते हैं [मि - to measure, obsreve, perceive] । ज्ञानप्राप्ति के लिए वस्तुतः यह आवश्यक है कि [क] वासनाओं से अपने को बचाया जाए, मन में ईर्ष्या - द्वेषादि मलिनताओं को न आने दिया जाए [सुपर्णाः], [ख] दूसरी आवश्यक बात यह है कि जीवन क्रियामय हो, आलस्यशून्यता नितान्त आवश्यक है [एवैः] । वासनाशून्यता और क्रियाशीलता के बिना ज्ञानप्राप्ति सम्भव ही नहीं । २. (कृष्णः) = संसार के रंग में अपने को न रंगनेवाला, निर्लेप (वृषभः) = शक्तिशाली पुरुष ही (नोनाव) = प्रभु का स्तवन करता है । प्रभु की वास्तविक स्तुति यही है कि हम संसार में आसक्त न हो जाएँ और अपनी शक्ति को क्षीण न होने दें । ३. प्रभु कहते हैं कि (यदि इदम्) = यदि तेरे जीवन में यह बात आ जाए तो (शिवाभिः) = कल्याणकारी (न) = [न इति चार्थे] और (स्मयमानाभिः) = मुस्कुराहटवाली वाणियों से (आगात्) = तू हमारे समीप आ । प्रभु - प्राप्ति उसी को होती है जो शुभ व प्रसन्नतादायक वाणी का ही उच्चारण करता है । ४. इस प्रकार प्रभु का उपासन होने पर (मिहः पतन्ति) = धर्ममेघ समाधि में आनन्द की वृष्टियाँ होती है और (अभ्रा स्तनयन्ति) = हृदयान्तरिक्ष में प्रभु की वाणीरूप बादल की गर्जना होती हैं, प्रभु की प्रेरणा सुस्पष्ट सुनाई पड़ती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुप्राप्ति के लिए वासनाशून्यता, क्रियाशीलता, निर्लेपता व शक्तिशालिता की आवश्यकता है । प्रभु का उपासक शुभ वाणी ही बोलता है । उपासना की सिद्धि होने पर ही आनन्द की वृष्टि होती है और प्रभुप्रेरणा सुस्पष्ट रूप से सुन पड़ती है ।

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    विषय

    विद्वान की गृहपति से तुलना । गृहस्थ के कर्तव्य । मेघादि की उत्पत्ति

    भावार्थ

    ( सुपर्णाः ) किरण गण जिस प्रकार ( एवैः ) गति देने वाले वायुगण से मिलकर ( यदि इदम् ) जब इस प्रकार मेघ पर ( आ अभिनन्त ) सब तरफ से आघात करते हैं तब ( कृष्णः ) श्याम रंग का ( बृषभः ) बरसने वाला बादल ( नोनाव ) गर्जन करता है । और वह ( शिवाभिः ) अति शान्तिदायक ( स्मयमानाभिः ) मानो मुस्कराती हुई विद्युतों से ( आगात् ) युक्त हो जाता है । तब ( मिहः ) जल वृष्टियां ( पतन्ति ) गिरती हैं और (अभ्रा स्तनयन्ति) मेव गरजते हैं । (न) इसी प्रकार ( ते ) वे ( सुपर्णाः ) उत्तम पालन और ज्ञान सामर्थ्य वाले विद्वान् पुरुष ( एवैः ) अपने प्रकाशक ज्ञानों से ( आ अमिनन्त ) सब तरफ व्यापते हैं । ( कृष्णः ) अज्ञान अंधकार को काटने वाला, सब के चित्तों को आकर्षण करने वाला विद्वान् पुरुष मेघ के समान ( वृषभः ) ज्ञानों और सुखों को वर्षा करने वाला होकर ( यदि इदम् ) जिस प्रकार यह वृष्टि का कार्य होता है उसी प्रकार ( नोनाव ) उत्तम उपदेश करे। और ( शिवाभिः ) कल्याण करने वाली ( समयमानाभिः ) किंञ्चित हास से खिले मुख वाली सुन्दरियों के समान सबके उपकार करने वाली, विकसित भावों वाली वाणियों से वह ( आ अगात् ) सबको प्राप्त हो । और ( मिहः ) जल वृष्टियों के समान ज्ञानवर्षाएं ( पतन्ति ) हों । और ( अभ्राः ) ज्ञानों के देने वाले गुरुजन मेघों के समान गंभीरता से ( स्तनयन्ति ) उपदेश करें । गृहस्थ पक्ष में—(कृष्णो वृषभः शिवाभिः स्मयमानाभिः आ अगात् न) जब चित्ताकर्षक बलवान् पति कल्याणी, प्रसन्नवदना ब्रह्मचारिणी कन्याओं के साथ उनकी इच्छानुसार उन्हें प्राप्त होता है तब (मिहः पतन्तिः) सुखों की वर्षा होती है। या तभी उत्तम रीति से निषेक आदि कर्म होते हैं और उत्तम प्रजाएं उत्पन्न होती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! यः{आ} सुपर्णाः अमिनन्त एवैः कृष्णः वृषभः इदम् इव नोनाव यथा स्मयमानाभिः शिवाभिः न इव यत् यदि अगाद् यथा अभ्राः ते नयन्ति मिहः{स्तनयन्ति} आ पतन्ति तथा विद्या वर्षेत् तर्हि तस्य ते तव किम् अप्राप्तं स्यात् ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (यः)=जो, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (सुपर्णाः) किरणाः= सूर्य की किरणें, (अमिनन्त) प्रक्षिपन्ति= फेकी जाती हैं, (एवैः) प्रापकैर्गुणैः=प्राप्ति के गुणों से और, (कृष्णः) आकर्षणकर्त्ता=आकर्षण करनेवाले गुणों से, (वृषभः) वृष्टिहेतुः सूर्य्यः=जल के निर्माण के सूर्य के, (इदम्) जलम्=जल के, (इव)=समान, (नोनाव) अत्यन्तप्रशंसितः= अत्यन्त प्रशंसित होता है, (यथा)=जैसे, (स्मयमानाभिः) किञ्चिद्धासकारिकाभिः= मुस्कराहट करनेवाली से, (शिवाभिः) कल्याणकारिकाभिः कन्याभिः=कल्याण करनेवाली कन्याओं के, (न) इव=समान, (यत्)=जो, (यदि) चेत्=यदि, (अगात्) प्राप्नोति=प्राप्त करता है, (यथा)=जैसे, (अभ्रा) अभ्राणि=मेघ की गतियां, (ते)=वे, (नयन्ति)=ले जाती हैं, (मिहः) वृष्टयः=वर्षा के जल, {स्तनयन्ति} शब्दयन्ति=शब्द करते हैं, {आ} अभितः=हर ओर से, (पतन्ति) उपरिष्टादधः=ऊपर से नीचे की ओर गिरते हैं, (तथा)=वैसे ही, (विद्या)= विद्या की, (वर्षेत्)=वर्षा करे, (तर्हि)=इसलिये, (तस्य)=उसका, (ते) तव= तुम्हारा, (किम्)=क्या, (अप्राप्तम्)= अप्रात, (स्यात्)=होवे ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। [विवाह से पूर्व] जिन ब्रह्मचारियों की ब्रह्मचारिणी पत्नियां हों, वे क्यों न सुख को प्राप्त करें ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (यः) जो {आ} हर ओर से (सुपर्णाः) सूर्य की किरणें (अमिनन्त) बिखेरी जाती हैं वे (एवैः) प्राप्ति और (कृष्णः) आकर्षण करनेवाले गुणों से (वृषभः) जल के निर्माण के हेतु सूर्य के (इदम्) इस जल के (इव) समान (नोनाव) अत्यन्त प्रशंसित होती हैं। (यथा) जैसे (स्मयमानाभिः) मुस्करानेवाली और (शिवाभिः) कल्याण करनेवाली कन्याओं के (न) समान, (यत्) जो (यदि) यदि (अगात्) प्राप्त करता है और (यथा) जैसे (अभ्रा) मेघ की गतियां हैं और (ते) वे (नयन्ति) ले जाती हैं और (मिहः) वर्षा के जल {स्तनयन्ति} शब्द करते हैं। {आ} हर ओर से, (पतन्ति) ऊपर से नीचे की ओर गिरते हैं, (तथा) वैसे ही (विद्या) विद्या की (वर्षेत्) वर्षा करे। (तर्हि) इसलिये (तस्य) उसको और (ते) तुम्हें (किम्) क्या (अप्राप्तम्) अप्रात (स्यात्) होवे ॥२॥

    संस्कृत भाग

    आ । ते॒ । सु॒ऽप॒र्णाः । अ॒मि॒न॒न्त॒ । एवैः॑ । कृ॒ष्णः । नो॒ना॒व॒ । वृ॒ष॒भः । यदि॑ । इ॒दम् । शि॒वाभिः॑ । न । स्मय॑मानाभिः । आ । अ॒गा॒त् । पत॑न्ति । मिहः॑ । स्त॒नय॑न्ति । अ॒भ्रा ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येषां ब्रह्मचारिणां ब्रह्मचारिण्यः स्त्रियः स्युस्ते सुखं कथन्न लभेरन् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. विद्वान ब्रह्मचाऱ्याला विदुषी ब्रह्मचारिणी पत्नी मिळाल्यास त्याला पूर्ण सुख का प्राप्त होणार नाही? ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, if your golden sunbeams were to expand with their forces across the spaces, and if the sun holding the skies and the earth were to break the cloud pregnant with vapours, the cloud would roar and showers would fall, coming to the earth as if with smiling blissful breezes of joy.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, as the rays of the sun with winds induce the rain and the sun which has attractive power and is the cause of rain, showers the waters, in the same manner, young men who are attractive and virile, shower knowledge and happiness and when they approach auspicious smiling maidens, why should not be there the rain of knowledge and happiness as when the clouds thunder and the rain descends?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुपरर्णा:) किरणा: सुपर्णा इति रश्मिनाम (निघ० १.५) = The rays of the sun. (एव:) प्रापकैर्गुणैः = With attributes that cause happiness. इदम् इत्युदकनाम (निघ० १.२ ) = Water. (कृष्ण:) आकर्षणकर्ता सूर्य:- = The sun with power of attraction.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Why should not those Brahamacharis enjoy happiness who get in marriage Brahamacharinis who have observed perfect continence and are chaste ?

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    Subject of the mantra

    Then, how should that scholar be?This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (yaḥ) =that, {ā} =from every side, (suparṇāḥ) =Sun rays, (aminanta) =are scattered they, (evaiḥ) =attainment and, (kṛṣṇaḥ) =by qualities of attraction, (vṛṣabhaḥ) =for producing water by Sun, (idam) =of this water, (iva) =like, (nonāva)= is highly praised, (yathā) =like, (smayamānābhiḥ) =the one smiling, (śivābhiḥ) of doing welfare girls, (na) =like, (yat) =that, (yadi) =if, (agāt) =attains and, (yathā) =like, (abhrā) =the movements of the clouds and, (te) =they, (nayanti) =carry away and, (mihaḥ) =waters of the rain, {stanayanti} =make sound, {ā} =from every side, (patanti)=fall from up to down, (tathā) =similarly, (vidyā) =of vidya, (varṣet) =having rained, (tarhi) =therefore, (tasya) =of that and, (te) =your, (kim) =what, (aprāptam) =unattained, (syāt) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! The rays of the Sun which are scattered from all sides are highly praised like this water of the Sun for creating water with attainment and attracting properties. Like smiling and well-wishing girls, who receive if, and like the movements of the clouds and they take away and the rainwaters which make sound. May the rain of knowledge fall from every side and from up to down. Therefore, what should remain unattained to that and you?

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are silent vocal simile and simile as figurative in two places in this mantra. Why should those male celibates who have female celibates wives before marriage not achieve happiness?

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