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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदी॑मृ॒तस्य॒ पय॑सा॒ पिया॑नो॒ नय॑न्नृ॒तस्य॑ प॒थिभी॒ रजि॑ष्ठैः। अ॒र्य॒मा मि॒त्रो वरु॑णः॒ परि॑ज्मा॒ त्वचं॑ पृञ्च॒न्त्युप॑रस्य॒ योनौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । पय॑सा । पिया॑नः । नय॑न् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । रजि॑ष्ठैः । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । वरु॑णः । परि॑ऽज्मा । त्वच॑म् । पृ॒ञ्च॒न्ति॒ । उप॑रस्य । योनौ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदीमृतस्य पयसा पियानो नयन्नृतस्य पथिभी रजिष्ठैः। अर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा त्वचं पृञ्चन्त्युपरस्य योनौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् ईम्। ऋतस्य। पयसा। पियानः। नयन्। ऋतस्य। पथिऽभिः। रजिष्ठैः। अर्यमा। मित्रः। वरुणः। परिऽज्मा। त्वचम्। पृञ्चन्ति। उपरस्य। योनौ ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यदृतस्य पयसा पियानो रजिष्ठैः पथिभिरुपरस्य योनावीं नयन्नर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा चर्त्तस्य त्वचं पृञ्चन्ति तदा सर्वेषां जीवनं संभवति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (यत्) यदा (ईम्) प्राप्तव्यं सुखम् (ऋतस्य) उदकस्य (पयसा) रसेन (पियानः) पिबन् (नयन्) प्राप्नुवन् (ऋतस्य) सत्यस्य (पथिभिः) मार्गैः (रजिष्ठैः) अतिशयेन रजस्वलैः (अर्यमा) नियन्ता सूर्य्यः (मित्रः) प्राणः (वरुणः) उदानः (परिज्मा) यः परितः सर्वतो गच्छति स जीवः (त्वचम्) त्वगिन्द्रियम् (पृञ्चन्ति) सम्बध्नन्ति (उपरस्य) मेघस्य (योनौ) निमित्ते मेघमण्डले ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    यदा कार्यकारणस्थैः प्राणजलादिभिः सह जीवाः सम्बन्धमाप्नुवन्ति तदा शरीराणि धर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (यत्) जब (ऋतस्य) उदक के (पयसा) रस को (पियानः) पीनेवाला (रजिष्ठैः) अत्यन्त धूलीयुक्त (पथिभिः) मार्गों से (उपरस्य) मेघ के (योनौ) कारणरूप मण्डल में (ईम्) जल को (नयन्) प्राप्त करता हुआ (अर्यमा) नियन्ता (सूर्यः) (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान और (परिज्मा) सब ओर से जाने-आनेवाला जीव (ऋतस्य) सत्य के (त्वचम्) त्वचा रूप उपरिभाग को (पृञ्चन्ति) सम्बन्ध करते हैं, तब सब का जीवन सम्भव होता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जब कार्य्य और कारण में रहनेवाले प्राण और जलादि पदार्थों के साथ जीव सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, तब शरीरों के धारण करने को समर्थ होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    मूल स्थान में पहुँचने का मार्ग

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब मनुष्य (ईम्) = निश्चय से (ऋतस्य) = सत्यविद्याओं की कोशभूत वेदवाणीरूप गौ के (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (पियानः) = अपना आप्यायन करता है और अपने को (ऋतस्य) = सत्य व यज्ञ के (रजिष्ठैः) = ऋजुतम, छल - छिद्र से शून्य (पथिभिः) = मार्गों से (नयन्) = ले - चलता है । २. तो (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] कामादि शत्रुओं का नियन्त्रण करनेवाला, (मित्रः) = सबके साथ स्नेह करनेवाला, (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाला (परिज्मा) = [परितः गन्ता] सब क्षेत्रों में अपने कर्तव्य का पालन करनेवाला - ये सब (उपरस्य योनौ) = धर्ममेघ के उत्पत्ति - स्थान में (त्वचं पृञ्चन्ति) = स्पर्श को प्राप्त करते हैं, अर्थात् मस्तिष्करूप द्युलोक में - ‘सहस्त्रारचक्र’ के स्थिति - स्थान में ये अपने प्राणों का निरोध करते हैं । यही समाधि की स्थिति है । इस स्थिति में ही प्रभुदर्शन होता है और उस आनन्द का अनुभव होता है जो वाणी के वर्णन का विषय नहीं बनता । ३. ‘त्वचं’ शब्द ही अंग्रेजी में Touch [टच] रूप में मिलता है, ‘पृच्’ धातु सम्पर्क अर्थवाली है । इस प्रकार धर्ममेघ समाधि की स्थिति में, इस मेघ के मूलस्थान में पहुँचने का मार्ग यही है कि [क] सत्यज्ञान प्राप्त किया जाए, [ख] सरल मार्ग से चला जाए, [ग] कामादि का वशीकरण हो, [घ] सबके प्रति स्नेह की भावना हो, [ङ] द्वेष न हो तथा [च] अपने कर्तव्यों के करने में प्रमाद व आलस्य न होकर जीवन स्फूर्तिमय हो । इन्हीं बातों को यम - नियमों में समाविष्ट किया गया है । इनपर चलते हुए और इनपर चलने के लिए प्राणयामादि के द्वारा इन्द्रियों व मनोनिरोध के द्वारा ही हम इस सर्वोच्च स्थिति में, ब्राह्मीस्थिति में पहुँच पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ब्राह्मीस्थिति में पहुँचने का मार्ग यह है - ‘ज्ञान, सरलता, संयम, स्नेह, अद्वेष व क्रियाशीलता’ । इन बातों को जीवन में लाने के लिए ही आसन - प्राणायामादि योगाङ्गों का अनुष्ठान हुआ करता है ।

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    विषय

    वृष्टि के समान गर्भ निषेक तथा वीर्य की उत्पत्ति तथा उसके निषेक और पुरुषोत्पत्ति का विज्ञान । पक्षान्तर में गुरू करण और ब्रह्मचर्य पालन ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार ( ऋतस्य पयसा पियानः ) आकाश को पूर देने वाले जल के वाष्पमय रूप से खूब भर पूर, तृप्त होकर वायु ( इम् ) इस मेघ को या जल को ( ऋतस्य ) अन्तरिक्ष के ( रजिष्ठैः ) धूलिकणों से युक्त मार्गों से (नयन्) लेजाता है तब ( अर्यमा ) सूर्य ( मित्रः ) वायु, ( वरुणः ) जल ( परिज्मा ) सर्वत्र व्यापक भूमि के अंश धूलि आदि ये सब पदार्थ ( उपरस्य योनौ ) मेघ के उत्पन्न होने के स्थान में ( त्वचं ) जल की त्वचा को अर्थात् जल के बाह्यांश को ( पृञ्चन्ति ) संयुक्त करते हैं । और तब वह मिलकर जल का बून्द तैयार हो जाता है । उसी प्रकार ( ऋतस्य ) अन्न के ( पयसा ) परिपोषक सूक्ष्म अंश शुक्र से ( पियानः ) परि पुष्ट होकर पुरुष ( ऋतस्य ) मूल सत्कारण के ( ईम् ) उस वीर्यांश को ( रजिष्ठैः पथिभिः ) रजो युक्त मार्गों से ( नयन् ) प्राप्त कराता है और ( अर्यमा ) सूर्य का तेज, ( मित्रः ) प्राण, ( वरुणः ) उदान और ( परिजमा ) सर्वत्रगामी जीव ये सब ( योनौ ) गर्भाशय के उत्पत्ति कमल में ( त्वचं ) त्वग् को ( पृञ्चन्ति ) सम्पर्क करते हैं तब उस स्थान में जीव की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार ( अर्यमा ) सूर्य ( मित्रः ) वायु और ( वरुणः ) जल और भूमि ये जब ( त्वचं पृञ्चन्ति) भूमि की त्वचा पृष्ठ पर संयुक्त होते हैं जल से भरा मेघ जल को धूलि मार्गों से पहुंचाता है तब भूमि पर अन्न, ओषधि तथा जीवों की उत्पत्ति होती है । आचार्य के पक्ष में—( ऋतस्य ) सत्य शान के सारभाग से परिपुष्ट आचार्य शिष्य को ( ऋतस्य रजिष्ठैः पथिभिः ) वेद के ऋजु, धार्मिक मार्गों से ले जाता है और न्यायकारी शासक, स्नेही बन्धुवर्ग दुष्ट वारक सैनिक गण ( परिज्मा ) भ्रमणशील परि व्राजक गण ये सब ( उपरस्य योनौ ) उपनयन द्वारा ज्ञान प्रदान करने वाले आचार्य के आश्रय में ( त्वचं पृञ्चन्ति ) ब्रह्मचर्य के रक्षा साधन को प्रस्तुत करें। तभी उत्तम शिष्य उत्पन्न होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह जीव कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यत् ऋतस्य पयसा पियानः रजिष्ठैः पथिभिः उपरस्य यौनौ ईं नयन् अर्यमा मित्रः वरुणः परिज्मा च ऋतस्य त्वचं पृञ्चन्ति तदा सर्वेषां जीवनं संभवति ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यत्) यदा=जब, (ऋतस्य) उदकस्य=जल का, (पयसा) रसेन=रस से, (पियानः) पिबन्=पीते हुए, (रजिष्ठैः) अतिशयेन रजस्वलैः=अत्यन्त धूल के कणों से युक्त, (पथिभिः) मार्गैः=मार्गों से, (उपरस्य) मेघस्य=बादल के, (योनौ) निमित्ते मेघमण्डले= मेघ मण्डल के उत्पन्न होने के कारण में, (ईम्) प्राप्तव्यं सुखम्=प्राप्त किये जानेवाले सुख को, (नयन्) प्राप्नुवन्=प्राप्त करते हुए, (अर्यमा) नियन्ता सूर्य्यः= नियंत्रक सूर्य, (मित्रः) प्राणः= प्राण, (वरुणः) उदानः= उदान, (परिज्मा) यः परितः सर्वतो गच्छति स जीवः=हर ओर जानेवाला जीव, (च)=और, (ऋतस्य) सत्यस्य= सत्य के, (त्वचम्) त्वगिन्द्रियम्= स्पर्श इन्दियों, अर्थात् बाहर की पर्त को (पृञ्चन्ति) सम्बध्नन्ति=छू देते हैं, (तदा)=तब, (सर्वेषाम्)=सबका, (जीवनम्)=जीवन, (संभवति) =संभव होता है ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जब कार्य और कारण में रहनेवाले, प्राण और जल आदि पदार्थों के साथ जीव के सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, तब वे शरीरों के धारण करने में समर्थ होते हैं ॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ- 1-प्राण- इसका स्थान नासिका से हृदय तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते हैं। 2-उदान-यह कण्ठ से शिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन आदि क्रियायें इससे होती हैं। यह कण्ठ के केन्द्र में स्थित है। शरीर को उठाये रखना इसका कार्य है। मृत्यु के समय उदान ही सूक्ष्म शरीर को बाहर निकाल कर ले जाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यत्) जब (ऋतस्य) जल का (पयसा) रस (पियानः) पीते हुए, (रजिष्ठैः) अत्यन्त धूल के कणों से युक्त (पथिभिः) मार्गों से (उपरस्य) बादल के (योनौ) मेघमण्डल के उत्पन्न होने के कारण में, (ईम्) प्राप्त किये जानेवाले सुख को (नयन्) प्राप्त करते हुए, (अर्यमा) नियंत्रक सूर्य के द्वारा (मित्रः) प्राण वायु और (वरुणः) उदान वायु को (परिज्मा) हर ओर जानेवाले जीव (च) और (ऋतस्य) सत्य के, (त्वचम्) स्पर्श इन्दियों, अर्थात् बाहर की पर्त को (पृञ्चन्ति) स्पर्श कर देते हैं, (तदा) तब (सर्वेषाम्) सबका (जीवनम्) जीवन (संभवति) संभव होता है ॥३॥

    संस्कृत भाग

    यत् ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । पय॑सा । पिया॑नः । नय॑न् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । रजि॑ष्ठैः । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । वरु॑णः । परि॑ऽज्मा । त्वच॑म् । पृ॒ञ्च॒न्ति॒ । उप॑रस्य । योनौ॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा कार्यकारणस्थैः प्राणजलादिभिः सह जीवाः सम्बन्धमाप्नुवन्ति तदा शरीराणि धर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा कार्य कारणात असणाऱ्या प्राण व जल इत्यादी पदार्थांचा जीवांशी संबंध येतो तेव्हा ते शरीरांना धारण करण्यास समर्थ होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    When the sun drinking and waxing with the vapours of water takes these up by the straightest and speediest paths, then Aryama, the sunlight, Mitra and Varuna, complementary energies of the sun holding the earth and skies together, and Parijman, winds and electric energies in the higher space, create the body of the cloud.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When the sun, Prana, Udana and the soul, touch the external part with the Sap of the water and with the shining paths of truth, then all get life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ईम्) प्राप्तव्यं सुखम् = Happiness that is to be attained. (ऋतस्य) उदकस्य, सत्यस्य ऋतम् इति उदकनाम (निघ० १. १२ ) ऋतम् इति सत्यनाम (निघ० ३.१० ) (उपरस्य ) मेघस्य (उपर इति मेघनाम निघ० १.१०)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When souls get contact with the Prana and water etc. as cause and effect, they can assume bodies.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that living being be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yat) =When, (ṛtasya) =of water, (payasā) =sap, (piyānaḥ) =drinking, (rajiṣṭhaiḥ)=highly dusty, (pathibhiḥ) =through paths, (uparasya) =of cloud, (yonau)=due to the formation of clouds, (īm)=the happiness to be achieved, (nayan) =receiving, (aryamā) =by controller Sun, (mitraḥ)=vital breath and, (varuṇaḥ)=udāna air, (parijmā) =the living being going everywhere, (ca) =and, (ṛtasya) =of truth, (tvacam)=sense of touch, i.e. the outer layer, (pṛñcanti) =touch, (tadā) =then, (sarveṣām) =of all, (jīvanam) =life, (saṃbhavati)= becomes possible.

    English Translation (K.K.V.)

    When, drinking the sap of water, and enjoying the pleasures that are to be attained due to the formation of clouds through paths filled with extremely dusty particles, through the controlling Sun, the prāṇa air (vital breath) and udāna air reach the living beings everywhere and when the touch of truth touches the senses, i.e. the outer layer, then everyone's life becomes possible.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    When those living in cause and effect, living beings attain connection with substances like prāṇa and water, they become capable of sustaining bodies.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    1-Prᾱņa- Its location is from the nostrils to the heart. Organs like eyes, ears, mouth etc. work with the help of this. 2-Udᾱna- Its location is in the organs from the gut to the head (brain). Actions like utterance of words, vomit etc. take place from it. It is located in the center of the gorge. Its function is to keep the body up. At the time of death, it is Udᾱna that takes the subtle body out.

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