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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऊ॒ती श॑चीव॒स्तव॑ वी॒र्ये॑ण॒ वयो॒ दधा॑ना उ॒शिज॑ ऋत॒ज्ञाः । प्र॒जाव॑दिन्द्र॒ मनु॑षो दुरो॒णे त॒स्थुर्गृ॒णन्त॑: सध॒माद्या॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒ती । श॒ची॒ऽवः॒ । तव॑ । वी॒र्ये॑ण । वयः॑ । दधा॑नाः । उ॒शिजः॑ । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । प्र॒जाऽव॑त् । इ॒न्द्र॒ । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । त॒स्थुः । गृ॒णन्तः॑ । स॒ध॒ऽमाद्या॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञाः । प्रजावदिन्द्र मनुषो दुरोणे तस्थुर्गृणन्त: सधमाद्यासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊती । शचीऽवः । तव । वीर्येण । वयः । दधानाः । उशिजः । ऋतऽज्ञाः । प्रजाऽवत् । इन्द्र । मनुषः । दुरोणे । तस्थुः । गृणन्तः । सधऽमाद्यासः ॥ १०.१०४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शचीवः) हे कर्मवाले सर्वकर्म शक्तिवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (तव) तेरे (ऊती) रक्षण से (वीर्येण) प्रताप से (उशिजः) तुझे चाहनेवाले (ऋतज्ञाः) सत्य के ज्ञाता (मनुषः) स्तुति करनेवाले मनुष्य (वयः-दधानाः) जीवन धारण करते हुए (सधमाद्यासः) परस्पर हर्ष प्रदान करते हुए (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (प्रजावत्) पुत्र आदिवाले (दुरोणम्) घर को-में (तस्थुः) ठहरते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा की कर्मशक्ति का अनुभव कर तथा सत्य को समझकर जो स्तुति करनेवाले उस परमात्मा को अपनाते हैं, वे तेरी रक्षा और प्रताप को पाकर पुत्रादि से सम्पन्न घर में रहते हैं ॥४॥

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    विषय

    उशिक् व ऋतज्ञ

    पदार्थ

    [१] हे (शचीवः) = सर्वशक्तिमन् (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (उशिजः) = मेधावी (ऋतज्ञाः) = ऋत के जाननेवाले, अपने जीवन में ऋत के अनुसार कार्य करनेवाले (मनुषः) = विचारशील लोग (तव) = आपकी (ऊती) = रक्षा के द्वारा आप से रक्षण को प्राप्त करके तथा (वीर्येण) = आपकी शक्ति से, अर्थात् आपसे शक्ति को प्राप्त करके (प्रजावत्) = सब शक्तियों के विकासवाले [प्रजन् - प्रादुर्भाव ] (वयः) = जीवन को (दधानाः) = धारण करते हुए होते हैं । हम मेधावी बनने का प्रयत्न करें, ऋत के अनुसार कार्यों को करनेवाले हों। इससे हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त होगा, प्रभु हमारे जीवन को शक्तिशाली बनाएँगे। इस रक्षण व शक्ति से हमारे जीवन का उत्तम विकास होगा। [२] इस उत्तम विकास को प्राप्त करनेवाले उपासक (गृणन्तः) = प्रभु का स्तवन करते हुए (सधमाद्यासः) = प्रभु के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए (दुरोणे) = इस शरीर गृह में, जिसमें से कि सब बुराइयों का [दुर्] अपनयन [ओण्] हुआ है, (तस्थुः) = स्थित होते हैं। शरीर में स्थित होने का भाव यह है कि इनकी चित्तवृत्ति इधर-उधर भटकती नहीं, ये सदा औरों को ही नहीं देखते रहते । मनोनिरोध के द्वारा अन्दर ही स्थित होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के रक्षण व शक्तिदान से हमारा जीवन उत्कृष्ट बनता है। हम मेधावी व ऋत के पालन करनेवाले बनकर इस शरीर गृह में स्तवन करते हुए व प्रभु के साथ आनन्द को अनुभव करते हुए स्थित होते हैं ।

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    विषय

    भक्त प्रभु की सदा स्तुति करें।

    भावार्थ

    हे (शचीवः) वेदवाणी और प्रभु की शक्ति के स्वामिन् ! (तव ऊती) तेरी रक्षा, स्नेह और प्रेम तथा शत्रुनाशक बल और (वीर्येण) जगत् के सज्चालक और उत्पादक वीर्य, सामर्थ्य से (वयःदधानाः) बल और दीर्घ आयु को धारण करते हुए (ऋत-ज्ञाः) सत्यज्ञान, वेद, यज्ञ और प्रकाश को धारण करने वाले (उशिजः) तेरी कामना करने वाले विद्वान्गण, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् ! प्रभो ! (मनुषः) मनुष्य के (प्रजावत् दुरोणे) प्रजा, पुत्रादि से सम्पन्न गृह में (सध-माद्यासः) सब के साथ हर्ष, प्रसन्नता अनुभव करते हुए (गृणन्तः) उपदेश और तेरी स्तुति करते हुए (तस्थुः) विराजें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शचीवः-इन्द्र) हे कर्मवन् परमात्मन् ! (तव ऊती वीर्येण) तव रक्षणेन प्रतापेन च (उशिजः-ऋतज्ञाः-मनुषः) त्वां कामयमानाः सत्यज्ञाः स्तोतारो मनुष्याः (वयः-दधानाः) जीवनं धारयन्तः (सधमाद्यासः-गृणन्तः) परस्परं हर्षं प्रयच्छन्तः स्तुवन्तश्च (प्रजावत् दुरोणं तस्थुः) पुत्रादियुक्तं गृहम् “दुरोणं गृहनाम” [निघ० ३।४] तिष्ठन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of holy actions of creation, sustenance and finale, under your protection by your power and generosity, ardent devotees bearing food, good health and long age, knowing and pursuing the laws of truth and yajnic living, blest with good progeny and noble humanity, abide in their yajnic home, singing, rejoicing and celebrating your generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कर्मशक्तीचा अनुभव घेऊन व सत्य समजून जी स्तुती करणारी माणसे, त्या परमेश्वराला आपलेसे करतात. त्याच्याकडन रक्षण व पराक्रम प्राप्त करून घेऊन पुत्र इत्यादीने युक्त होऊन संपन्न घरात राहतात.

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