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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒पो म॒हीर॒भिश॑स्तेरमु॒ञ्चोऽजा॑गरा॒स्वधि॑ दे॒व एक॑: । इन्द्र॒ यास्त्वं वृ॑त्र॒तूर्ये॑ च॒कर्थ॒ ताभि॑र्वि॒श्वायु॑स्त॒न्वं॑ पुपुष्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पः । म॒हीः । अ॒भिऽश॑स्तेः । अ॒मु॒ञ्चः॒ । अजा॑गः । आ॒सु॒ । अधि॑ । दे॒वः । एकः॑ । इन्द्र॑ । याः । त्वम् । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ । च॒कर्थ॑ । ताभिः॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । त॒न्व॑म् । पु॒पु॒ष्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो महीरभिशस्तेरमुञ्चोऽजागरास्वधि देव एक: । इन्द्र यास्त्वं वृत्रतूर्ये चकर्थ ताभिर्विश्वायुस्तन्वं पुपुष्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपः । महीः । अभिऽशस्तेः । अमुञ्चः । अजागः । आसु । अधि । देवः । एकः । इन्द्र । याः । त्वम् । वृत्रऽतूर्ये । चकर्थ । ताभिः । विश्वऽआयुः । तन्वम् । पुपुष्याः ॥ १०.१०४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (महीः-अपः) महागुणवाली आप्त प्रजाओं-अर्थात् जीवन्मुक्त आप्त जनों को (अभिशस्तेः) हिंसित करनेवाली मृत्यु से (अमुञ्चः) चुराता है (आसु-अधि) इन आप्त प्रजाओं में-आप्त जनों में अधिष्ठित रक्षक (एकः-देवः) तू एक देव (अजागः) जगाता है (याः) जिन आप्त प्रजाओं-आप्त जनों को (त्वम्) तू (वृत्रतूर्ये) अज्ञाननाशार्थ (चकर्थ) समर्थ बनाता है (ताभिः) उनके लिए (विश्वम्-आयुः) सब जीवनपर्यन्त (तन्वं पुपुष्याः) शरीर को पुष्ट करता है, समृद्ध बनाता है ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा आप्त जनों-जीवन्मुक्त उपासक जनों को मृत्यु से बचाता है और उन्हें अज्ञान नष्ट करने को समर्थ करता है, उन्हें पदे पदे सावधान करता है-जगाता है, आयुपर्यन्त शरीर को समृद्ध करता है ॥९॥

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    विषय

    रेतः कणों के रक्षण में अप्रमाद

    पदार्थ

    [१] (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (महीः) = इन महत्त्वपूर्ण (अपः) = रेतः कणों को (अभिशस्ते:) = [अभिशंस्=to attack] वासनाओं के आक्रमण से (अमुञ्चः) = मुक्त कर । (आसु अधि अजाग:) = इनके विषय में तू खूब ही जाग, अप्रमत्त हो। तू इनके रक्षण से (देवः) = देव बनेगा, (एकः) = अद्वितीय होगा । गत मन्त्र के अनुसार सुरक्षित हुए हुए ये रेतःकण हमें देव व मनुष् बनाते हैं, हमारे दिव्यगुणों को बढ़ाते हैं और हमें विचारशील बनाते हैं । [२] हे इन्द्र ! (वृत्रतूर्ये) = वासना के संहार के होने पर (त्वम्) = तू (याः) = जिन रेतः कणों को (चकर्थ) = अपने अन्दर सुरक्षित करता है (ताभिः) = उनसे (विश्वायुः) = पूर्ण जीवनवाला होता हुआ तू (तन्वम्) = अपने शरीर को (पुपुष्याः) = पुष्ट करनेवाला हो, इन रेतः कणों से ही शरीर का अंग-प्रत्यंग सशक्त बना रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वासनाओं के आक्रमण से अपने को मुक्त करके जब हम रेतःकणों के विषय में अप्रमत्त होते हैं तो हम देवत्व को प्राप्त करके जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं, पूर्ण जीवनवाले बनकर शरीर को पुष्ट करते हैं ।

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    विषय

    मेघ से जलवर्षी अग्नि तत्त्ववत् मोक्षदाता, ज्ञानप्रकाशक, सर्वजीवनदाता प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे इस जगत् को अन्न जल देने वाले सूर्यवत् तेजस्विन् ! सूर्य जिस प्रकार (वृत्र-तूर्ये) मेघ के छेदन करते हुए (याः मही अपः चकर्थ) जिन उत्तम जीवनप्रद जलों को उत्पन्न करता है (ताभिः) उनसे ही (तन्वं पुष्णाति) सब जीवों के देहों को पुष्ट करता है। वह (आसु अधि अजागरः) उन सब के ऊपर अध्यक्षवत् प्रकाशित होता है, और उनको (अभि-शस्तेः अमुञ्चः) मेघ से मुक्त करता है (२) इसी प्रकार प्रभो ! (त्वम्) तू (याः) जिन (महीः अपः) सुखप्रद बड़े प्राणों वा विद्वान् आप्तजनों को (वृत्र-तूर्ये) आवरक अज्ञान के नाश करने में (चकर्थ) समर्थ करता है, उनको (अभिशस्तेः) हिंसक शत्रु और निन्दादि से (अमुञ्चः) मुक्त करता है। (आसु अधि) उनके ऊपर (एकः देवः) एक अद्वितीय देव, दाता, प्रकाशक होकर (अजागरः) तू ही जागता है। (ताभिः) उन द्वारा ही (विश्वायुः) सबका जीवन दाता होकर (तन्वं पुपुष्याः) सबके शरीरों को पुष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (महीः-अपः-अभिशस्तेः अमुञ्चः) महागुणवतीराप्ताः प्रजाः-जीवन्मुक्तान्-आप्तजनान्-अभिशासति-आभिमुख्येन हिनस्ति यः स मृत्युः “शंसु हिंसायाम्” [भ्वादि०] तस्मात् खलु मुञ्चसि (आसु-अधि-एकः-देवः-अजागः) आसु ह्याप्तप्रजासु ह्यधिष्ठितो-रक्षकस्त्वमेवैको जागरयसि (याः-त्वं वृत्रतूर्ये चकर्थ) याः-आप्तप्रजास्त्वमावरकाज्ञाननाशाय समर्थाः करोषि ( ताभिः) ताभ्यः “व्यत्ययेन चतुर्थीस्थाने तृतीया” (विश्वम्-आयुः-तन्वं पुष्याः) सर्वजीवनपर्यन्तं शरीरं पोषयसि, व्यत्ययेन श्लुः ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The great streams of water which you released from ignominious self-containment, i.e., from the hoarding clouds and the adamantine mountains, and over which you, the sole one divinity, keep relentless watch, ever awake, Indra, those which you brought into being by breaking the cloud and whatever else you did, by the same streams, O life of life, nourish and promote the body and health of all living beings of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आप्तजन-जीवनमुक्त उपासकांना मृत्यूपाासून वाचवितो व त्यांना अज्ञान नष्ट करण्यास समर्थ करतो. त्यांना प्रत्येक क्षणी सावधान करतो, जागृत करतो. जीवन असेपर्यंत शरीर पुष्ट करतो. ॥९॥

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