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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रणी॑तिभिष्टे हर्यश्व सु॒ष्टोः सु॑षु॒म्नस्य॑ पुरु॒रुचो॒ जना॑सः । मंहि॑ष्ठामू॒तिं वि॒तिरे॒ दधा॑ना स्तो॒तार॑ इन्द्र॒ तव॑ सू॒नृता॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रनी॑तिऽभिः । ते॒ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । सु॒ऽस्तोः । सु॒सु॒म्नस्य॑ । पु॒रु॒ऽरुचः॑ । जना॑सः । मंहि॑ष्ठाम् । ऊ॒तिम् । वि॒ऽतिरे॑ । दधा॑नाः । स्तो॒तारः॑ । इ॒न्द्र॒ । तव॑ । सू॒नृता॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रणीतिभिष्टे हर्यश्व सुष्टोः सुषुम्नस्य पुरुरुचो जनासः । मंहिष्ठामूतिं वितिरे दधाना स्तोतार इन्द्र तव सूनृताभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रनीतिऽभिः । ते । हरिऽअश्व । सुऽस्तोः । सुसुम्नस्य । पुरुऽरुचः । जनासः । मंहिष्ठाम् । ऊतिम् । विऽतिरे । दधानाः । स्तोतारः । इन्द्र । तव । सूनृताभिः ॥ १०.१०४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हर्यश्व) हे सब पदार्थों के ग्रहण करनेवाले व्यापक गुणों से युक्त (इन्द्र) परमात्मन् ! (ते सुष्टोः) तुझ सुष्ठु स्तुति करनेयोग्य (सुषुम्नस्य) शोभन सुखप्रद (पुरुरुचः) बहुत प्रकाशमान की (मंहिष्ठाम्) प्रशंसनीया (ऊतिम्) रक्षा को (दधानाः) धारण करते हुए (स्तोतारः-जनासः) स्तुति करनेवाले जन (तव) तेरी (सूनृताभिः) शोभनवाणियों (प्रणीताभिः) और स्तुतियों द्वारा (वितिरे) संसारसागर को पार करने में समर्थ होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सब सुखों के भण्डार ज्ञानप्रकाशक स्तुति करने योग्य की रक्षा-दया के पात्र होकर उसके लिए मधुर वाणियों से गुणगान और स्तुतियों से मान करते हैं, वे संसारसागर को पार करने में समर्थ होते हैं ॥५॥

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    विषय

    प्रणीतिभिः- सूनृताभिः

    पदार्थ

    [१] (हर्यश्व) = प्रकाशमय इन्द्रियाश्वोंवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सुष्टोः) = सुष्ठ, स्तूयमान (सुषुम्नस्य) = उत्तम आनन्द व उत्तम धनवाले (पुरुरुचः) = अतिशयित [ बहुत अधिक] ज्ञानदीप्तिवाले ते आपके (प्रणीतिभिः) = प्रणयनों से, हृदयस्थ आपकी प्रेरणा के अनुसार चलने से तब (सूनृताभि:) = आपकी इन वेद प्रतिपादित सूनृत वाणियों से (स्तोतारः जनासः) = स्तुति करनेवाले लोग (मंहिष्ठाम्) = [दातृतमा] अधिक से अधिक धनों के देनेवाली (ऊतिम्) = [Aid, assistamce, help ] धनादि की सहायता को (वितिरे) = अर्थियों में, याचकों में वितरण के लिए (दधानाः) = धारण करते हुए होते हैं । [२] प्रभु का स्तवन दो प्रकार से होता है । एक तो प्रभु प्रेरणाओं के अनुसार चलने से [प्रणीतिभिः], दूसरे वेद की सूनृत वाणियों को अपनाने से । प्रभु सुषुम्न हैं, पुरुरुच् हैं । उपासक को भी आनन्दमयी मनोवृत्तिवाला बनने का प्रयत्न करना चाहिए तथा अधिक से अधिक ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। [३] प्रभु जो भी धन हमें प्राप्त कराएँ, हम उस धन को वितरण व दान में विनियुक्त करें। धन का उद्देश्य अपने भोग-विलास के साधनों का बढ़ाना नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-उस आनन्दमय ज्ञानदीत प्रभु की प्रेरणाओं के अनुसार चलें तथा सूनृत वाणियों का प्रयोग करें। प्रभु से प्राप्त कराये गये धन का दान में विनियोग करें।

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    विषय

    विद्वानों और स्तोताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (हर्यश्व) समस्त मनुष्यों और लोकों में व्यापक ! समस्त लोकों के सञ्चालक ! (सुस्तोः सु-सुम्नस्य) उत्तम स्तुति योग्य, शुभ ज्ञान, सुख, धन के स्वामी (ते) तेरे (प्र-नीतिभिः) उत्तम नीतियों से, उत्तम कार्यों से (जनासः) जन, जीवगण (पुरु-रुचः) बहुतसी कान्तियों वा नाना रुचियों वाले होते हैं ! और हे (इन्द्र) ऐश्वर्य, अन्न जल, ज्ञान के देने वाले प्रभो ! वे (सूनृताभिः) उत्तम सत्य ज्ञानमय वाणियों से (तव स्तोतारः) तेरी स्तुति करने वाले होकर (वि-तिरे) अन्यों को भी दान करने और स्वयं भी पार होने के लिये (मंहिष्ठाम् ऊतिम् दधानाः) तेरी बड़ी पूज्य, श्रेष्ठ रक्षा को धारण करते हैं। इति चतुर्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हर्यश्वः इन्द्र) हे सर्वपदार्थहारिव्यापनगुणवन् परमात्मन् ! (ते सुष्टोः सुषुम्नस्य पुरुरुचः) तव स्तुतियोग्यस्य सुष्ठु सुम्नं सुखं यस्मात् तथाभूतस्य बहुप्रकाशमानस्य (मंहिष्ठाम्-ऊतिम्) प्रशंसनीयां रक्षां (दधानाः) स्तोतारः-जनासः धारयन्तः स्तोतारो जनाः (तव सूनृताभिः-प्रणीताभिः) तव शोभनाभिः स्तुतिभिश्च (वितिरे) संसारसागरं वितरितुं समर्था भवन्तीति शेषः “तॄ प्लवनसन्तरणयोः” [भ्वादि०] ततो विपूर्वात् क्विपि वितिर् “ॠत इद्धातोः” [अष्टा० ७।१।१००] इकारो रपरः, चतुर्थ्यां वितिरे प्रयोगः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of radiant powers, adorable, gracious and self-refulgent, noble people, your celebrants, bearing the advantage of your generous protection, cross the seas of existence by virtue of your divine directions and the wisdom of your words of eternal truth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सर्व सुखाचे भांडार, ज्ञानप्रकाशक, स्तुती करणाऱ्यांचा रक्षक, अशा परमात्म्याच्या दयेचे पात्र बनून त्याच्यासाठी मधुर वाणीने गुणगान करतात व स्तुती करून मान देतात. ते संसार सागरातून पार पडण्यास समर्थ असतात. ॥५॥

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