ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 6
ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवो॒ हरि॑भ्यां॒ सोम॑स्य याहि पी॒तये॑ सु॒तस्य॑ । इन्द्र॑ त्वा य॒ज्ञः क्षम॑माणमानड्दा॒श्वाँ अ॑स्यध्व॒रस्य॑ प्रके॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । ब्रह्मा॑णि । ह॒रि॒ऽवः॒ । हरि॑ऽभ्याम् । सोम॑स्य । या॒हि॒ । पी॒तये॑ । सु॒तस्य॑ । इन्द्र॑ । त्वा॒ । य॒ज्ञः । क्षम॑माणम् । आ॒न॒ट् । दा॒श्वान् । अ॒सि॒ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्र॒ऽके॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप ब्रह्माणि हरिवो हरिभ्यां सोमस्य याहि पीतये सुतस्य । इन्द्र त्वा यज्ञः क्षममाणमानड्दाश्वाँ अस्यध्वरस्य प्रकेतः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । ब्रह्माणि । हरिऽवः । हरिऽभ्याम् । सोमस्य । याहि । पीतये । सुतस्य । इन्द्र । त्वा । यज्ञः । क्षममाणम् । आनट् । दाश्वान् । असि । अध्वरस्य । प्रऽकेतः ॥ १०.१०४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हरिवः) हे दुःखहरणशील गुणवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! तू (सुतस्य) निष्पादित (सोमस्य) उपासनारस के (पीतये) पान के लिए (ब्रह्माणि) वैदिक प्रार्थना और वचनों को (हरिभ्याम्) दुःख हरनेवाले अपने कृपाप्रसाद में से (उप याहि) उपयुक्त कर-उन्हें सफल बना (त्वा क्षममाणम्) तुझ समर्थ होते हुए को (यज्ञः) अध्यात्मयज्ञ (आनट्) व्याप्त होता है (प्रकेतः) हे प्रेरक ! (अध्वरस्य) अहिंसनीय अध्यात्मयज्ञ के फलरूप अपने आनन्द को (दाश्वान्-असि) देनेवाला है ॥६॥
भावार्थ
वैदिक वचनों द्वारा परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए। वह अपने कृपाप्रसाद से स्वीकार करके हररूप में अपना आनन्द प्रदान करता है ॥६॥
विषय
ज्ञान प्राप्ति व यज्ञों में लगे रहना
पदार्थ
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले ! तू (सुतस्य सोमस्य पीतये) = शरीर में उत्पन्न सोमशक्ति के रक्षण के लिए, अपने अन्दर ही इसके पान के लिए (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों से (ब्रह्माणि) = ज्ञान की वाणियों के (उपयाहि) = समीप आनेवाला हो । ज्ञान प्राप्ति के लिए उपयुक्त कर्मों में लगने पर ही सोम के रक्षण का सम्भव होता है । अन्यथा मन विलास की ओर जाता है और सोम का विनाश होता है। [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (क्षममाणं त्वा) = [ क्षमूष् सहने, सह मर्षणे] काम-क्रोधादि शत्रुओं को कुचल देनेवाले तुझको (यज्ञः आनट्) = यज्ञ व्याप्त करनेवाला हो। वासनाओं को जीतकर तू यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्यापृत रहे । (दाश्वान् असि) = तू खूब देनेवाला, त्याग की वृत्तिवाला है । (अध्वरस्य) = हिंसारहित कर्मों का तू (प्रकेतः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला है । इन अध्वरों में सदा प्रवृत्त होनेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिए ज्ञान प्राप्ति के कर्मों में व्यापृत रहना आवश्यक है। उत्तम कर्मों में लगे रहने से ही हम वासनाओं को कुचल पाते हैं।
विषय
सब ज्ञानों और यज्ञादि फलों का दाता प्रभु।
भावार्थ
हे (हरिवः) मनुष्यों वा समस्त जीवों और लोकों के स्वामिन् ! तू (सुतस्य सोमस्य) उत्पन्न हुए इस जगत् के (पीतये) पालन करने के लिये (हरिभ्यां) अपने ज्ञान और कर्म रूप दोनों सञ्चालक बलों से (ब्रह्माणि उप याहि) समस्त लोकों वा ज्ञानों को प्राप्त है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (क्षममाणम् त्वा) शक्तिमान्, सामर्थ्यवान् तुझे (यज्ञः आनट्) यज्ञ प्राप्त होता है। हे (प्र-केतः) सर्वोत्तम ज्ञान वाले ! तू (अध्वरस्य दाश्वान् असि) नाश न होने वाले कर्मफल का दाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(हरिवः-इन्द्र) हे दुःखहरणशील ! गुणवन् ! परमात्मन् ! त्वं (सुतस्य सोमस्य पीतये) निष्पादितस्योपासनारसस्य पानाय (ब्रह्माणि हरिभ्याम्-उप याहि) वैदिकप्रार्थनावचनानि “ब्रह्माणि वेदस्थानि स्तोत्राणि” [ऋ० १।३।६ दयानन्दः] दुःखहरणाभ्यां स्वकीयकृपाप्रसादाभ्यामुपयुङ्क्ष्व सफलानि कुरु (त्वा क्षममाणं यज्ञः-आनट्) त्वां समर्थं सन्तमध्यात्मयज्ञो व्याप्नोति (प्रकेतः) हे प्रेरक ! (अध्वरस्य दाश्वान्-असि) अहिंसनीयस्याध्यात्मयज्ञस्य फलस्य स्वानन्दस्य दाताऽसि ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of radiant powers, come by the radiations of your divine presence to our songs and acts of adoration to listen and to drink the soma of our love and homage distilled from the heart. May our yajna reach you, lord omnipotent, gracious and forgiving. You are the generous giver, you know the yajna, and you award the fruits of yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
वैदिक वचनांद्वारे परमात्म्याची स्तुती, प्रार्थना केली पाहिजे. ती तो आपल्या कृपाप्रसादाने स्वीकार करून प्रत्येक गोष्टीत आनंद प्रदान करतो. ॥ ६॥
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