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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒प्तापो॑ दे॒वीः सु॒रणा॒ अमृ॑क्ता॒ याभि॒: सिन्धु॒मत॑र इन्द्र पू॒र्भित् । न॒व॒तिं स्रो॒त्या नव॑ च॒ स्रव॑न्तीर्दे॒वेभ्यो॑ गा॒तुं मनु॑षे च विन्दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । आपः॑ । दे॒वीः । सु॒ऽरणाः॑ । अमृ॑क्ताः । याभिः॑ । सिन्धु॑म् । अत॑रः । इ॒न्द्र॒ । पूः॒ऽभित् । न॒व॒तिम् । स्रो॒त्याः । नव॑ । च॒ । स्रव॑न्तीः । दे॒वेभ्यः॑ । गा॒तुम् । मनु॑षे । च॒ । वि॒न्दः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तापो देवीः सुरणा अमृक्ता याभि: सिन्धुमतर इन्द्र पूर्भित् । नवतिं स्रोत्या नव च स्रवन्तीर्देवेभ्यो गातुं मनुषे च विन्दः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । आपः । देवीः । सुऽरणाः । अमृक्ताः । याभिः । सिन्धुम् । अतरः । इन्द्र । पूःऽभित् । नवतिम् । स्रोत्याः । नव । च । स्रवन्तीः । देवेभ्यः । गातुम् । मनुषे । च । विन्दः ॥ १०.१०४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पूर्भित्) देहपुरों-मन बुद्धि चित्ताहङ्कार को भेदन करनेवाला तू (सप्त देवीः) सप्त-सर्पणशील दिव्य गुणवाली (सुरणाः) सुरमणीय (अमृक्ताः), अहिंसनीय-अमर (आपः) आप्त प्रजाएँ-जीवन्मुक्त जन (याभिः) जिन जीवन्मुक्त प्रजाओं-जीवन्मुक्त आत्माओं को (सिन्धुम्-अतरः) संसारसागर से तराता है (नव-च नवतिं च) नौ संख्यावाली गति प्रवृत्तियाँ-पाँच ज्ञानेन्द्रियों की चार अन्तःकरण मन बुद्धि चित्त अहङ्कार की (स्रवन्तीः) आत्मशक्ति को रिसाती हुई-झिराती हुई (स्रोत्याः-च) और बहती हुइयों से तराता है (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए और मननशील मनुष्य के लिए (गातुं-विन्द) जीवनमार्ग को प्राप्त कराता है ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा आप्त मनुष्यों के मन आदि को वृत्तिरहित करके छिन्न-भिन्न कर देता है, जीवन्मुक्तों को संसारसागर से पार करता है और आत्मशक्ति को झिरानेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों की वृत्ति और चार मन बुद्धि चित्त अहङ्कार बहती नदी के समान इन नौ वृत्तियों से भी पार कराता है तथा जीवन्मार्ग को प्राप्त कराता है ॥८॥

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    विषय

    देवत्व मनुष्यत्व

    पदार्थ

    [१] (सप्त) = [सर्पणस्वभावाः सा० ] गतिशील सर्पण के स्वभाववाले, (आपः) = रेतः कण (देवी:) = शरीर में रोगों के जीतने की कामनावाले हैं [विजिगीषा]। वीर्यकण रोगकृमियों को आक्रान्त करके नष्ट करते हैं। (सुरणा:) = ये शरीर में सुष्ठ रममाण होते हैं, शरीर की शोभा के कारण बनते हैं अथवा [रणशब्दे] उत्तम शब्द शक्ति का कारण होते हैं। इन सोमकणों के रक्षण से वाणी की शक्ति बड़ी ठीक बनी रहती है। (अमृक्ताः) = ये अहिंसित हैं, रोगकृमि इन्हें आक्रान्त नहीं कर पाते। [२] (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! ये सोमकण वे हैं, (याभिः) = जिनसे (सिन्धं अतरः) = भवसागर को तू तैरनेवाला होता है। (पूर्भित्) = इस शरीररूप पुरी का भेदन करके, जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ के तू कैवल्य को प्राप्त करता है। [३] तू इन रेतःकण रूप (नवतिं नव च) = ९९ वर्ष पर्यन्त स्त्रवन्ती (स्त्रोत्याः) = बहनेवाली नदियों को (देवेभ्यः) = देवों के लिए (मनुषे च) = और विचार पुरुष के लिए (गातुम्) = जाने के लिए (विन्दः) = प्राप्त करता है। इन रेतःकणों के द्वारा तू देव व मनुष्य बनता है । हृदय में दिव्य गुणों के विकास के द्वारा तू देव बनता है और मस्तिष्क में विचारशीलता के द्वारा तू मनुष्य कहलाता है। इस देवत्व व मनुष्यत्व की ओर जाने के लिए ये रेतःकण साधन बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में रक्षित हुए हुए रेतः कण शरीर को शोभा वाला तथा रोगों से अहिंसित बनाते हैं। इनके रक्षण से हम दिव्यगुणोंवाले व विचारशील बनते हैं ।

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    विषय

    मोक्षदाता और पूर्ण जीवनदाता प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (पूर्भित) देहपुरी का भेदन करने वाला है। तू (याभिः) जिनसे (सिन्धुम् अतरः) बन्धनकारी वा प्रवाह से नित्य बहने वाले जगत्-प्रवाह को (अतरः) तरता वा तरा देता है। वे (सप्त) सात (आपः) प्राणगण (देवीः) ज्ञान देने वाले, (सु-रणाः) उत्तम सुखपूर्वक रमण योग्य (अमृक्ताः) कभी नाश नहीं होते। तू (देवेभ्यः मनुषे च) विद्वान् देवों, नाना कामनावान् जीवों और मननशील ज्ञानी पुरुष को भी (नवतिं नव च स्त्रोत्या स्रवन्तीः) ९९ वें बहती नदियों के तुल्य ९९ वर्षों को (गातुम्) मार्ग के तुल्य (विन्दः) प्रदान करता है। पक्षान्तर में—इन्द्र तत्वदर्शी जीव स्वयं इनको प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पूर्भित्) देहपुरान् भेत्ता त्वं (सप्त देवीः सुरणाः-अमृक्ताः-आपः) सृप्ताः-सर्पणशीला दिव्यगुणाः सुरमणीया अमराः-“अमृक्तः-अन्यैरहिंस्यः” [ऋ० ३।११।६ दयानन्दः] आप्ताः प्रजा जीवन्मुक्ता जनाः “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] (याभिः) याः “व्यत्ययेन द्वितीयास्थाने तृतीया” जीवन्मुक्ताः प्रजाः-मनुष्यान् (सिन्धुम्-अतरः) संसारसागरं तारयसि “अन्तर्गतणिजर्थः” (नव च नवतिं च स्रवन्तीः स्रोत्याः-च) नवसङ्ख्याकाः गतिप्रवृतीश्च पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां चतस्रश्चान्तःकरणानामात्मशक्तिं स्रावयन्तीः स्रोत्या वहन्तीस्तारयसि (देवेभ्यः-मनुषे च गातुं विन्दः) विद्वद्भ्यो मननशीला यत्र जीवमार्गं प्रापयसि ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord breaker of the strongholds of darkness, want and negativities, seven are the divine streams which flow free and unobstructed, by which you fill the sea and help us cross it, ninety are the streams flowing, and nine the sources of the flow by which you bless the divines and humans to find and follow the paths of life to the destination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आप्त माणसांच्या मन इत्यादीला वृत्तिरहित करून छिन्न भिन्न करतो. जीवनमुक्तांना संसार सागरातून पार पाडतो व आत्मशक्तीला दु:ख देणाऱ्या ज्ञानेंद्रियांच्या वृत्ती व चार - मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार वाहत्या नदीप्रमाणे या नऊ वृत्तीतून पार पाडतो व जीवनमार्ग प्राप्त करवितो. ॥८॥

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