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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒हस्र॑वाजमभिमाति॒षाहं॑ सु॒तेर॑णं म॒घवा॑नं सुवृ॒क्तिम् । उप॑ भूषन्ति॒ गिरो॒ अप्र॑तीत॒मिन्द्रं॑ नम॒स्या ज॑रि॒तुः प॑नन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽवाजम् । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽसह॑म् । सु॒तेऽर॑णम् । म॒घऽवा॑नम् । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । उप॑ । भू॒ष॒न्ति॒ । गिरः॑ । अप्र॑तिऽइतम् । इन्द्र॑म् । न॒म॒स्याः । ज॒रि॒तुः । प॒न॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रवाजमभिमातिषाहं सुतेरणं मघवानं सुवृक्तिम् । उप भूषन्ति गिरो अप्रतीतमिन्द्रं नमस्या जरितुः पनन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽवाजम् । अभिमातिऽसहम् । सुतेऽरणम् । मघऽवानम् । सुऽवृक्तिम् । उप । भूषन्ति । गिरः । अप्रतिऽइतम् । इन्द्रम् । नमस्याः । जरितुः । पनन्त ॥ १०.१०४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सहस्रवाजम्) बहुत बलवान् (अभिमातिषाहम्) अभिमानी शत्रु का अभिभव करनेवाले (सुतेरणम्) उत्पन्न जगत् में रममाण (सुवृक्तिम्) शोभन स्तुतिवाले (मघवानम्) ऐश्वर्यवान् (अप्रतीतम्) किसी से भी आक्रमण के अयोग्य या तुलना से रहित (इन्द्रम्) परमात्मा को (जरितुः) स्तुति करनेवाले की (गिरः) स्तुतियाँ (उप भूषन्ति) प्रसिद्ध करती हैं (नमस्याः) प्रार्थनाएँ (पनन्त) प्रशंसित करती हैं ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा बहुत बलवान्, अभिमानी को दबानेवाला, किसी से आक्रमण अयोग्य, प्रेरणारहित है, स्तुति करनेवाले अपनी स्तुतियों से उसे प्रसिद्ध करते हैं, वह स्तुति के योग्य है, उसकी स्तुति करनी चाहिए ॥७॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन से शक्ति की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (गिरः) = स्तुति वाणियाँ (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यवान् प्रभु को (उपभूषन्ति) = अलंकृत करती हैं, जो प्रभु (सहस्रवाजम्) = अपरिमित बलवाले हैं, (अभिमातिषाहम्) = काम-क्रोधादि हिंसक शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं, (सुते-रणम्) = इस उत्पन्न जगत् में सर्वत्र रममाण हैं अथवा सोम के उत्पादन के होने पर हमारे में रमण करनेवाले हैं, (सुवृक्तिम्) = शोभन स्तुतिवाले व अच्छी प्रकार हमारे पापों का वर्जन करनेवाले हैं, (अप्रतीतम्) = किन्हीं भी शत्रुओं से आक्रान्त न होनेवाले हैं। प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी अत्यधिक बलवाले होकर शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते । [२] इसी कारण (जरितुः) = स्तोता की (पनस्याः) = स्तुतियाँ (पनन्त) = उस प्रभु का स्तवन करती है । इन स्तवनों से ही स्तोता को शक्ति प्राप्त होती है और वह कामादि शत्रुओं का पराभव करता हुआ प्रभु का अधिकाधिक प्रिय होता जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम प्रभु-स्तवन करें। यह स्तवन हमें शक्ति देगा और हम शत्रुओं को पराभूत करके पवित्र व शान्त जीवन बितानेवाले होंगे।

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    विषय

    समस्त स्तुतियों का सर्वोपरि लक्ष्य प्रभु।

    भावार्थ

    (जरितुः गिरः) स्तोता की वाणियां उस ही (सहस्र-वाजम्) सहस्रों ऐश्वर्यो, बलों, ज्ञानों के स्वामी (सुते-रणम्) उत्पन्न जगत् में रमने वाले, (अभिमाति-सहम्) अभिमानी जीवों को वश करने वाले (मघ-वानम्) समस्त ऐश्वर्यों के मालिक (सु-वृक्तिम्) उत्तम स्तुति योग्य प्रभु को ही (उप भूवन्ति) सुशोभित करती हैं और उसको लक्ष्य कर प्रकट होती हैं। और (जरितुः नमस्याः) स्तोता की समस्त नमस्कार सहित क्रियाएं और वन्दनाएं उसी (अप्रति-इतम्) अद्वितीय, सर्वोपरि (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् प्रभु की ही (पनन्त) स्तुति करती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सहस्रवाजम्) बहु बलवन्तम् (अभिमातिषाहम्) अभिमानिनं शत्रुमभिभवति यस्तं (सुतेरणम्) सुते उत्पन्ने जगति रममाणं (सुवृक्तिम्) शोभनस्तुतिकम् (मघवानम्) ऐश्वर्यवन्तं (अप्रतीतम्) केनापि न प्रतिगन्तव्यं यद्वा प्रतिमानरहितं (इन्द्रम्) परमात्मानम् (जरितुः) स्तोतुः (गिरम्-उप भूषन्ति) स्तुतयः प्रसिद्धं कुर्वन्ति (नमस्याः पनन्त) प्रार्थनाः प्रशंसन्ति “पनन्त प्रशंसेयुः” [यजु० ३३।२८ दयानन्दः] ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Him, who is lord of a thousand powers, subduer of challenging enmities, lover of soma and his own creation, mighty glorious, adorable, matchless Indra, songs of adoration exalt and salutations of celebrants praise.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा अत्यंत बलवान, अभिमानी लोकांचे दमन करणारा आहे. कोणीही त्याच्यावर आक्रमण करू शकत नाही. स्तुती करणारे आपल्या स्तुतीने त्याला प्रसिद्ध करतात. तो स्तुती करण्यायोग्य आहे. त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥७॥

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