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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अप॒ योरिन्द्र॒: पाप॑ज॒ आ मर्तो॒ न श॑श्रमा॒णो बि॑भी॒वान् । शु॒भे यद्यु॑यु॒जे तवि॑षीवान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । योः । इन्द्रः॑ । पाप॑जे । आ । मर्तः॑ । न । श॒श्र॒मा॒णः । बि॒भी॒वान् । शु॒भे । यत् । यु॒यु॒जे । तवि॑षीऽवान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप योरिन्द्र: पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान् । शुभे यद्युयुजे तविषीवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । योः । इन्द्रः । पापजे । आ । मर्तः । न । शश्रमाणः । बिभीवान् । शुभे । यत् । युयुजे । तविषीऽवान् ॥ १०.१०५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पापजे) पापकर्म से प्रसिद्ध पापीजन के निमित्त (आशश्रमाणः) बहुत श्रम करते हुए क्रोध में आये हुए (मर्त्तः न) जन की भाँति (विभीवान्) विशेष भीतिवाला-भय देनेवाला (अपयोः) अपकारक-हानिकारक हो जाता है (यत्) यतः-जिससे कि वह (शुभे) शुभकर्म करनेवाले के लिये बल देनेवाला होता हुआ उसके साथ युक्त होता है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा पापी जन के लिए क्रोध करता हुआ भय देनेवाला हानिकारक होता है, शुभ कर्मकर्ता के लिये बल देता और उसके साथ योग करता है ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (पापजे) पापात् कर्मणो यो जातः प्रसिद्धः पापीजनस्तन्निमित्तम् “निमित्तसप्तमी” (आशश्रमाणः-मर्त्तः-न) समन्ताच्छ्राम्यन् क्रुध्यन् जन इव (विभीवान्) विशेषेण भीतिमान्-भीतेः कारणं भवतीत्यर्थः (अपयोः) अपयोक्ताऽपकारको भवति युजधातोर्डसि प्रत्यय औणादिको बाहुलकात् (यत्-शुभे तविषीवान् युयुजे) यतः शुभकर्मकर्त्रे बलवान्-बलं प्रयच्छन् सन् युङ्क्ते तेन सह योगं करोति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Repeller is Indra for the man of sin, fearsome like a person sitting in judgement for punishment, but for the man dedicated to good and joined to the divine spirit, he is the giver of light and power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा पापी लोकांवर क्रोध करतो, भयभीत करतो. त्यांची हानी करतो. शुभ कर्म करणाऱ्याला बल देतो व त्याला साह्य करतो. ॥३॥

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