ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 8
ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
अव॑ नो वृजि॒ना शि॑शीह्यृ॒चा व॑नेमा॒नृच॑: । नाब्र॑ह्मा य॒ज्ञ ऋध॒ग्जोष॑ति॒ त्वे ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । नः॒ । वृ॒जि॒ना । शि॒शी॒हि॒ । ऋ॒चा । व॒ने॒म॒ । अ॒नृचः॑ । न । अब्र॑ह्मा । य॒ज्ञः । ऋध॑क् । जोष॑ति । त्वे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव नो वृजिना शिशीह्यृचा वनेमानृच: । नाब्रह्मा यज्ञ ऋधग्जोषति त्वे ॥
स्वर रहित पद पाठअव । नः । वृजिना । शिशीहि । ऋचा । वनेम । अनृचः । न । अब्रह्मा । यज्ञः । ऋधक् । जोषति । त्वे इति ॥ १०.१०५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नः) हमारे (वृजिना) वर्जनीय पाप छोड़ने योग्य पाप (अव शिशीहि) हे परमात्मन् ! क्षीण कर (अनृचः) मन्त्ररहितों को (ऋचा) मन्त्रोपदेश से (वनेम) हम सम्पर्क करें (अब्रह्मा यज्ञः) मन्त्ररहित यज्ञ (ऋधक्) केवल यज्ञ (त्वे) तुझ में-तेरे निमित्त (न जोषति) तुझे प्रीतिकर नहीं होता ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा की उपासना करनेवाले पापों से बचे रहते हैं और वे मन्त्ररहितों को मन्त्र का उपदेश करें तथा यज्ञ भी स्वयं तथा अन्य को मन्त्रों द्वारा करना-कराना चाहिये, मन्त्ररहित केवल यज्ञ शुष्क भोजन के समान होता है-ऐसे यज्ञ करनेवाले को परमात्मा अपना कृपापात्र नहीं बनाता ॥८॥
विषय
अब्रह्मा [स्तुतिरहित] यज्ञ की हीनता
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! आप (नः) = हमारे (वृजना) = पापों को (अवशिशीहि) = हमारे से दूर करिये। (ऋचा) = स्तुति के द्वारा (अनृचः) = अस्तुत्य कर्मों को वनेम पराजित करें। स्तुति करते हुए हम ऐसे कर्मों से दूर रहें जो स्तुति के योग्य नहीं हैं । [२] (अब्रह्मा) = [ ब्रह्म = परिवृढं स्तोत्रं] स्तुतिरहित (यज्ञः) = यज्ञ (ऋधक्) = सचमुच (त्वे न जोषति) = तुझे प्रीणित करनेवाला नहीं होता । स्तुतिरहित यज्ञ में यज्ञकर्ता को गर्व हो जाने की आशंका है। ऐसा यज्ञ संगरहित न होने से सात्त्विक नहीं रहता। यज्ञ का अभिमान यज्ञ के उत्कर्ष को समाप्त कर देता है। यज्ञ के साथ स्तुति के होने पर उस यज्ञ को हम प्रभु से होता हुआ अनुभव करते हैं और इस प्रकार हमें यज्ञ का गर्व नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ- स्तुति का फल यह है कि हमें उत्तम कर्मों का गर्व नहीं हो जाता, पाप हमारे से दूर रहता है ।
विषय
मोक्षदाता और पूर्ण जीवनदाता प्रभु।
भावार्थ
हे प्रभो ! तू (नः) हमारे (वृजिनानि) पापों को (अव शिशीहि) नष्ट कर। हम (ऋचा) स्तुति, मन्त्र द्वारा वा अर्चना द्वारा, (अनृचः) अर्चना न करने योग्य, मन्त्र रहित अभव्य जनों वा कर्मों को (वनेम) नाश करें। (अब्रह्मा यज्ञः) विना वेद वा वेदज्ञ के यज्ञ (ऋधक्) सर्वथा ही (त्वे न जोषति) तुझे प्रसन्न नहीं करता।
टिप्पणी
ऋधक इति स्वीकारार्थे।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नः) अस्माकं (वृजिना) वृजिनानि वर्ज्यानि पापानि (अव शिशीहि) अवक्षीणानि तत् कुरु “शिशीते कृशं करोति” शो तनूकरणे लोटि विकरणव्यत्ययेन श्यनः स्थाने श्लुः” [ऋ० १।३६।१६ दयानन्दः] (अनृचः-ऋचा वनेम) ऋग्रहितान् ऋचा-ऋगुपदेशेन सम्भजेम, (अब्रह्मा यज्ञः) ब्रह्मरहितो मन्त्ररहितैः (ऋधक्) केवलो यज्ञः (त्वे) त्वयि (न जोषति) न रोचते “व्यत्ययेन परस्मैपदम्” ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Reduce and remove our sin and crookedness. Let us win over the negationists with hymns of positive celebration of nature and divinity. Yajna, pursuit of knowledge and joint action, without grateful celebration of divinity with Vedic hymns does not at all win your approval and blessing.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याची उपासना करणाऱ्यांचा पापापासून बचाव होतो. त्यांनी मंत्ररहित लोकांना मंत्राचा उपदेश करावा व मंत्राद्वारे स्वत: यज्ञ करावा व इतरांकडूनही करून घ्यावा. मंत्ररहित यज्ञ केवळ शुष्क भोजनाप्रमाणे असतो. असे यज्ञ करणाऱ्यांना परमात्मा आपले कृपापात्र बनवीत नाही. ॥८॥
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