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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    सचा॒योरिन्द्र॒श्चर्कृ॑ष॒ आँ उ॑पान॒सः स॑प॒र्यन् । न॒दयो॒र्विव्र॑तयो॒: शूर॒ इन्द्र॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सचा॑ । आ॒योः । इन्द्रः॑ । चर्कृ॑षे । आ । उ॒पा॒न॒सः । स॒प॒र्यन् । न॒दयोः॑ । विऽव्र॑तयोः । शूरः॑ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सचायोरिन्द्रश्चर्कृष आँ उपानसः सपर्यन् । नदयोर्विव्रतयो: शूर इन्द्र: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सचा । आयोः । इन्द्रः । चर्कृषे । आ । उपानसः । सपर्यन् । नदयोः । विऽव्रतयोः । शूरः । इन्द्रः ॥ १०.१०५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (आयोः) स्तुति करनेवाले मनुष्य का (उपानसः) प्राणवाले आत्मा का समीपवर्ती (सपर्यन्) सेवन किया जाता हुआ (चर्कृषे) पुनः-पुनः दोषशोधन के लिये (विव्रतयोः) विविध कर्मवाले (नदयोः) अध्यात्मज्ञान के वक्ता श्रोताओं का (शूरः) प्रगतिप्रद (इन्द्रः) परमात्मा है ॥४॥

    भावार्थ

    स्तुति करनेवाले जन का परमात्मा समीपवर्ती है तथा उसके दिए वेद के वक्ता श्रोता मनुष्यों के दोषों का पुनः-पुनः शोधन करने के लिए जो यात्न करते हैं, उनको भी प्रगति देनेवाला है ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (आयोः) स्तोतुर्मनुष्यस्य “आयुर्मनुष्यनाम” [निघ० २।३] (उपानसः) अनसः समीपः प्राणवत आत्मनः समीपं वर्त्तमानः (सपर्यन्) सेव्यमानः सन् “कर्मणि कर्तृप्रत्ययः’ (चर्कृषे) पुनः-पुनः दोषशोधनाय (विव्रतयोः-नदयोः) विविधकर्मवतोः-अध्यात्मज्ञानस्योपदेशकश्रोत्रोः (शूरः-इन्द्रः) प्रगतिप्रदः “शूरः शक्तेर्गतिकर्मणः” [निरु० ३।१३] परमात्माऽस्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the person dedicated to him, serving him and faithfully depending on him as the master, Indra is a friend and comrade and does every good thing for him, but for the vociferous and the refractory, he is a mighty awful punitive and corrective power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर स्तुती करणाऱ्याच्या समीप असतो व माणसांच्या दोषांचे पुन्हा-पुन्हा शोधन करणारा वक्ता व श्रोत्यांचीही त्यामुळे प्रगती होत असते. ॥४॥

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