ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
मात॑ली क॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒ॠक्व॑भिर्वावृधा॒नः । याँश्च॑ दे॒वा वा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वान्त्स्वाहा॒न्ये स्व॒धया॒न्ये म॑दन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठमात॑ली । क॒व्यैः । य॒मः । अङ्गि॑रःऽभिः । बृह॒स्पतिः॑ । ऋक्व॑ऽभिः । व॒वृ॒धा॒नः । यान् । च॒ । दे॒वाः । व॒वृ॒धुः । ये । च॒ । दे॒वान् । स्वाहा॑ । अ॒न्ये । स्व॒धया॑ । अ॒न्ये । म॒द॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिॠक्वभिर्वावृधानः । याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान्त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठमातली । कव्यैः । यमः । अङ्गिरःऽभिः । बृहस्पतिः । ऋक्वऽभिः । ववृधानः । यान् । च । देवाः । ववृधुः । ये । च । देवान् । स्वाहा । अन्ये । स्वधया । अन्ये । मदन्ति ॥ १०.१४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मातली कव्यैः यमः अङ्गिरोभिः बृहस्पतिः ऋक्वभिः ववृधानः) मातली-पृथिवीस्थानी अग्नि, वह दो प्रकार का है−एक प्राणी के अन्तर्गत जीवनाग्नि कव्य अन्नादि भोजनों से तथा भौतिक अग्नि कव्य पृथिवी से उत्पन्न पार्थिव अन्न-घृत-तैल-काष्ठ आदि ईन्धन द्रव्यों से बढ़ाता है, यम मध्यस्थानी देव प्राणी के अन्तवर्ती जीवनकाल। दूसरा, भौतिक लोकों का अन्तकारी विश्वकाल; अङ्गिरों, प्राणों, प्राणक्रियाओं तथा प्राणनामक कालविभागों, सूर्यरश्मियों से निष्पन्नकाल गतियों से बढ़ता है, बृहस्पति ऊर्ध्वस्थानी देव। प्राणी के अन्तर्वर्ती जीवन-प्राण और दूसरा भौतिक वर्षा का नियामक देव, जो कि मेघमण्डल में वर्तमान जलवृष्टि से प्रजा को जीवन प्रदान करता है। वह ऋक्वों-विविधगुणवाली कृत्रिम और स्वाभाविक वाणियों स्तनयित्नुरूप गर्जन शब्दों से वृद्धि को प्राप्त होता है। ऐसा होने पर (देवाः यान्-च ववृधुः) पूर्वोक्त वृद्धि को प्राप्त हुए अग्नि देवों ने जिन लोगों को बढ़ाया तथा (ये च देवान्) और जिन लोगों ने पूर्वोक्त अग्नि आदि देवों को बढ़ाया, वे (अन्ये स्वधया मदन्ति) कुछ एक जन तो अन्नादि भोजनों से उन शरीर के अन्तर्वर्ती अग्नि आदि देवों को तृप्त करते हैं (अन्ये स्वाहा मदन्ति) कतिपय जन आहुति प्रदान करके भौतिक अग्नि आदि देवों का सेवन करते हैं ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि अपने व्यक्तिगत जीवन की उन्नति के लिए निज जीवनाग्नि, जीवनकाल और जीवनप्राण को उत्तममोत्तम भोजनों के सेवन से उपयुक्त बनावें तथा समाज वा सर्वप्राणियों के हितार्थ अग्निहोत्र से भौतिक अग्नि, सामष्टिक काल और मेघमण्डल को उपयुक्त करते रहें ॥३॥ ‘मातलिरिन्द्रस्य सारथिस्तद्वानिन्द्रो मातली’ (सायण) यहाँ ‘मातलि इन्द्र का सारथि और उस सारथि से युक्त मातली इन्द्र है’ यह तथा मातली का इन्द्र अर्थ करना सर्वथा अनुपपन्न है, क्योंकि प्रथम तो मातली इन्द्र का सारथि हो, इसके लिए निरुक्तादि वैदिक साहित्य में स्थान नहीं, दूसरे इकारान्त शब्द से मत्वर्थीय इन् प्रत्यय हो ही नहीं सकता, उसका विधान अकारान्त से है। इसलिये मातली का इन्द्र अर्थ करना अनुचित है ॥
विषय
'मातली - यम- बृहस्पति'
पदार्थ
[१] यह (मातली) = समझदार बुद्धिमान् पुरुष (कव्यैः) = पितरों को, वृद्ध माता-पिता को दिये जानेवाले अन्नों से (वावृधानः) = धर्म मार्ग पर खूब बढ़नेवाला होता है। एक समझदार व्यक्ति सदा माता-पिता को श्रद्धा व आदर से भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करता है। इस माता- पिता के श्राद्ध को ही वह प्रत्यक्ष-धर्म मानता है। माता-पिता की श्रद्धापूर्वक की गई सेवा से ही वह 'आयु, विद्या, यश व बल' में वावृधान होता है । [२] (यमः) = संयमी पुरुष (अंगिरोभिः) = [ये अंगाराः आसन् ते अंगिरसोऽभवन्] अंग-प्रत्यंग में रसों के द्वारा (वावृधानः) = बढ़ता है। इसके अंग सूखे काठ की तरह मृत से नहीं हो जाते। संयम इसकी शक्तियों की वृद्धि व स्थिरता का कारण बनता है । [३] (बृहस्पतिः) = उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करनेवाला 'ब्रह्मणस्पति' (ऋक्वभिः) = विज्ञानों के द्वारा बढ़नेवाला होता है । अर्थात् यह सतत स्वाध्याय से अपने ज्ञान का वर्धन करता हुआ उन्नतिपथ पर अग्रेसर होता है और सर्वोच्च दिशा का अधिपति बनता है । [उर्ध्वा दिग् बृहस्पति-रधिपतिः ] यह विज्ञान उसे उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचानेवाला होता है । [४] ये वे व्यक्ति हैं (ये च) = और जो (देवान् वावृधु) = देवताओं को बढ़ाते हैं, (यान् च) = और जिनको (देवा वावृधुः) = देव बढ़ाते हैं । अर्थात् यज्ञादि के द्वारा ये लोग देवों को तृप्त करते हैं और वृष्टि के द्वारा देव इनका सम्भावन करते हैं । [५] इनमें (अन्ये) = कई (स्वाहा) = [ स्व + हा] स्वार्थ त्याग के द्वारा, अपनी सम्पत्तियों का यज्ञों में विनियोग करते हुए (मदन्ति) = आनन्द व हर्ष का अनुभव करते हैं । तथा (अन्ये) = दूसरे संसार के विषयों से विरत हुए हुए (स्व-धया) = आत्मतत्त्व के धारण से (मदन्ति) = आनन्द का अनुभव करते हैं । योगमार्ग पर चलते हुए समाधि की स्थिति में पहुँचकर अपने अन्दर ही अवर्णनीय आनन्द को प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम समझदार बनकर माता-पिता को श्रद्धा से भोजनादि प्राप्त कराएँ, संयमी बनकर अंग-प्रत्यंग में रस वाले हों, बृहस्पति बनकर विज्ञानों का अध्ययन करें। यज्ञशील हों, आत्मचिन्तक । देवों को देकर सदा यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें ।
विषय
ज्ञानी मार्गदर्शी पुरुषों को संतृप्त वा प्रसन्न करने का उपदेश।
भावार्थ
(मातली) ज्ञान मार्ग को प्राप्त कराने वाला, (काव्यैः) विद्वानों के ज्ञानों से और (यमः) नियन्ता व्यवस्थापक पुरुष (अंगिरोभिः) विद्वान्, तेजस्वी पुरुषों से, और (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी का पालक विद्वान् (ऋक्वभिः) वेदज्ञ विद्वानों द्वारा (वावृधानः) वृद्धि को प्राप्त होता है। (ये देवाः) जो विद्वान् जन (यान् च वावृधुः) जिनको बढ़ाते हैं उन्नत करते हैं और जो जन (देवान् वावृधुः) इन विद्वानों, ज्ञान धनादि देने वालों को बढ़ाते हैं उनमें से (अन्ये) एक वर्ग के (स्वाहा) उत्तम वाणी और शुभ दान-सत्कार से (मदन्ति) तृप्त, प्रसन्न होते हैं और (अन्ये) दूसरे जन (स्वधया) अन्न-जल द्वारा (मदन्ति) तृप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः॥ देवताः–१–५, १३–१६ यमः। ६ लिंगोक्ताः। ७-९ लिंगोक्ताः पितरो वा। १०-१२ श्वानौ॥ छन्द:- १, १२ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ३, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। १३, १४ निचृदनुष्टुप्। १६ अनुष्टुप्। १५ विराड् बृहती॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मातली कव्यै-यमः-अङ्गिरोभिः-बृहस्पतिः-ऋक्वभिः-ववृधानः) मातली कव्यैर्ववृधानो यमोऽङ्गिरोभिर्ववृधानो बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्ववृधानो भवति। मातली-भूतली-पृथिवीतली पृथिवीस्थानी पृथिवीस्थानोऽग्निर्देवः, “मा-पृथिवी” “अयं वै पृथिवीलोको माऽयं हि लोको मित इव [श०८।३।३।५] तस्यास्तलमस्यातीति मत्वर्थे इनौ मातली पृथिवीस्थानोऽग्निः, स च द्विविधः प्राण्यन्तर्वर्ती जीवनाग्निरपरो भौतिकाग्निः, अस्ति चात्र मन्त्रे श्लेषालङ्कारः। तत्र प्राण्यन्तर्वर्ती जीवनाग्निः कव्यैरन्नादिभोजनैर्भौतिकश्चाग्निः कुः पृथिवी तत्र भवैः कव्यैः पार्थिवैर्घृततैलान्नकाष्ठादीन्धनद्रव्यैर्वर्धमानो भवति-वर्धत इति सिद्धान्तः। कुः पृथिवीत्यत्र प्रमाणम् “रविवर्षार्द्धं देवाः पश्यन्त्युदितं रविं तथा प्रेताः। शशिमासार्द्धं पितरः शशिगाः कुदिनार्द्धमिह मनुजाः [आर्यभट्टीयज्यौतिषम्, गीतिका १७] “जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्” [कठो०१।१।२८] “दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणं वेदपारगम्। तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोऽतिथिः स्मृतः” ॥ [मनु०३।१३०] इत्यत्र कव्येनान्नादिभोजनं गृह्यते। यमो मध्यस्थानो देवः प्राण्यन्तर्वर्ती जीवनकालोऽपरश्च भौतिको लोकानामन्तकृद् विश्वकालोऽङ्गिरोभिः-अङ्गानां रसैः प्राणैः प्राणसञ्चरणैस्तत्तुल्यकालावयवैः सूर्यरश्मिभिस्तन्निष्पन्नकालगतिभिर्वा वर्धते, “अङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः प्राणो वाऽङ्गानां रसः” [बृहदारण्य०१।३९।३] “प्राणो वाऽङ्गिराः” [श०६।१।२।२८] प्राणः कालावयवः “प्राणादिः कथितो मूर्त्तः (कलनात्मकः कालः)” [सूर्यसिद्धान्ते १।११] बृहस्पतिरूर्ध्वस्थानः प्राण्यन्तवर्ती जीवनप्राणः, न तु श्वासप्रश्वासात्मकः, अपि तु जीवयति यः प्राणिनं स जीवनशक्तिरूपः प्राणः जीवनप्राणः, यथा बृहदारण्यके “एष उ एव प्राणो बृहस्पतिर्वाग् वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः” [१।२।२०] द्वितीयश्च भौतिको वर्षाधिपतिर्देवः, यथा निरुक्ते “बृहस्पतिर्बृहतः पाता वा पालयिता वा” [निरु० १०।१२] “द्यौर्वै बृहत्” [श०९।१।२।३७] “असौ द्युलोको बृहत्” [ऐत०८।२] द्यौश्च मेघमण्डलम् “असौ वै द्युलोकः समुद्रो नभस्वान्” [श०९।४।२।५] “द्यौर्वाऽपां सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः [श०७।५।२।५६] एवं मत्वा यास्केनर्गुदाहृता-तस्यैषा भवति-अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम्। निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद् बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य” [०१०।६८।८] व्यापनवता मेघेन जलमपिनद्धमासीत्तद् विशेषशब्देन बृहस्पतिर्निहृतवान् पृथिव्यामिति निरुक्तार्थः। स एवं द्विविधः शरीरभुवनभेदाभ्यां जीवनः प्राणो वर्षाधिपतिश्च बृहस्पतिर्देव ऋक्वभिर्विविधगुणवतीभिः कृत्रिमस्वाभाविकवाग्भिः विरवैः स्तनयित्नुभिर्गर्जनशब्दैर्वर्धते वृद्धिं महत्त्वमाप्नोति। वाग्विरवयोः सम्बन्धश्च बृहस्पतिना सह समीपं दर्शित इव। ऋक्वभिरित्यत्र शब्दश्च सामान्यो धात्वर्थः, यथा निरुक्ते-“मित्रो जनान्यातयति प्रब्रुवाणः-शब्दं कुर्वन्” [निरु०१०।२२] एवं सति (देवाः-यान्-च ववृधुः) पूर्वोक्ता मातल्यादिनामभिर्व्यवहृता अग्न्यादयो देवा वर्धमानाः सन्तो यांश्च जनान् ववृधुर्वर्धितवन्तस्तथा (ये च देवान्) ये जनाश्च देवान् पूर्वोक्ताग्न्यादीन् ववृधुर्वर्धितवन्तस्ते जनाः (अन्धे स्वधया-अन्ये स्वाहा मदन्ति) अन्ये केचित् स्वधयाऽन्नादिभोजनैर्मदन्ति तानग्न्यादीन् शरीरदेवान् तर्पयन्ति। ‘अत्र मदेस्तृप्त्यर्थः’ केचित् स्वाहाहुतिप्रदानेन मदन्ति तानग्न्यादीन् भौतिकदेवान् युञ्जतेऽनुतिष्ठन्ति, ‘मद तृप्तियोगे’ तृप्तिश्च योगश्च “सर्वो द्वन्द्वो विभाषैकवद् भवति” [महाभाष्य १।२।६३] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Terrestrial fire and bodily heat grow by food and fuel, Yama, life time and life energy, grows by pranic energy, and Brhaspati, spirit and enlightenment, grows by Vedic words and divine joy. These capacities which divinities of earth and heaven and divine enlightenment augment, and the divinities of the environment on earth and above, which humans augment, grow mutually, the divinities by svaha oblations, and humans by svadha offerings of food, and thus they rejoice.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी आपल्या व्यक्तिगतजीवनाच्या उन्नतीसाठी स्वत:चा जीवनाग्नी, जीवनकाल व जीवनप्राण, उत्तमोत्तम भोजनाच्या सेवनाने उपयुक्त बनवावा व समाज किंवा सर्व प्राण्याच्या हितासाठी अग्निहोत्राने भौतिक अग्नी, सामष्टिक काल व मेघमंडलाला उपयुक्त करावे. ॥३॥
टिप्पणी
समीक्षा - ‘‘मातलिरिन्द्रस्य सारथिस्तद्वानिन्द्रो मातली’’ (सायण) येथे ‘मातलि इंद्राचा सारथी व त्या सारथीने युक्त मातली इंद्र आहे.’ मातलीचा अर्थ इंद्र करणे संपूर्ण अनुपपन्न आहे, कारण प्रथम तर मातली इंद्राचा सारथी व्हावा त्यासाठी निरुक्त इत्यादी वैदिक साहित्यात स्थान नाही. दुसरे इकारान्त शब्दाने मत्वर्थीय इन प्रत्यय होऊच शकत नाही. त्याचे विधान अकारान्ताने आहे. त्यासाठी मातलीचा इंद्र अर्थ करणे अयोग्य आहे.
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