ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
अङ्गि॑रोभि॒रा ग॑हि य॒ज्ञिये॑भि॒र्यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व । विव॑स्वन्तं हुवे॒ यः पि॒ता ते॒ऽस्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गि॑रःऽभिः । आ । ग॒हि॒ । य॒ज्ञिये॑भिः । यम॑ । वै॒रू॒पैः । इ॒ह । मा॒द॒य॒स्व॒ । विव॑स्वन्तम् । हु॒वे॒ । यः । पि॒ता । ते॒ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । ब॒र्हिषि॑ । आ । नि॒ऽसद्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम वैरूपैरिह मादयस्व । विवस्वन्तं हुवे यः पिता तेऽस्मिन्यज्ञे बर्हिष्या निषद्य ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गिरःऽभिः । आ । गहि । यज्ञियेभिः । यम । वैरूपैः । इह । मादयस्व । विवस्वन्तम् । हुवे । यः । पिता । ते । अस्मिन् । यज्ञे । बर्हिषि । आ । निऽसद्य ॥ १०.१४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यज्ञियेभिः-वैरूपैः-अङ्गिरोभिः-यम-आगहि इह मादयस्व) यज्ञ के योग्य नानाविध सायं-प्रातः, अमावस्या, पूर्णिमा, आदि सन्धियों के मुहूर्तरूप कालावयवों के साथ हे समय ! तू प्राप्त हो और इस यज्ञ में हमको अपने लाभ से तृप्त कर (यः ते पिता तं विवस्वन्तं बर्हिष्या निषद्य-अस्मिन् यज्ञे हुवे) और जो तेरा पिता सूर्यदेव है, उसका भी मैं आसनोपविष्ट इस यज्ञ में आहुतिप्रदान द्वारा प्रयोग करता हूँ ॥५॥
भावार्थ
भिन्न-भिन्न पर्व दिवसों में जबकि सूर्यरश्मियाँ भी यज्ञ में संयुक्त हों, ऐसे स्थान पर पार्वण यज्ञ समयानुकूल बनाने के लिए करने चाहिये ॥५॥
विषय
सत्संग व यज्ञ में स्थिति
पदार्थ
[१] हे (यम) = संयमी जीवन वाले पुरुष तू (इह) = इस जीवन में (अंगिरोभिः) = सदा क्रियाशील जीवन वाले और अतएव अंग-प्रत्यंग में रस वाले, (यज्ञियेभिः) = यज्ञशील व संगतिकरण योग्य, (वैरूपैः) = विशिष्ट तेजस्वी रूप वाले पुरुषों के साथ (आगहि) = आनेवाला हो, ऐसे पुरुषों के साथ ही तेरा उठना-बैठना हो। उन्हीं के साथ (मादयस्व) = तू आनन्द का अनुभव कर । [२] इन 'अंगरिस् - यज्ञिय-वैरूप' पुरुषों के संग से तेरा जीवन भी यज्ञमय व वासनाओं से ऊपर उठा हुआ हो । तू (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञमय जीवन में तथा (बर्हिषि) = वासना शून्य हृदय में [उद् बृह् = उखाड़ना] उस हृदय में, जिसमें से कि वासनाओं को उखाड़ दिया गया है, आनिषद्य स्थित होकर (विवस्वन्तम्) = ज्ञान की किरणों वाले प्रभु को (हुवे) = प्रकारनेवाला हो, (यः ते पिता) = जो तेरे पिता हैं। वस्तुतः हमें यही चाहिए कि हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाएँ, हृदय को वासनाशून्य करें । इन्हीं में स्थित होकर प्रभु का उपासन करें।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा संग सदा उत्तम हो, जीवन यज्ञमय हो, और हम प्रभु का उपासन करने [पुकारने] वाले हों ।
विषय
राजा का विद्वानों के प्रति कर्तव्य।
भावार्थ
हे (यम) नियन्तः ! व्यवस्थापक ! तू (यज्ञियेभिः) यज्ञ, आदर-सत्कार, पूजा, सत्संग के योग्य (अंगिरोभिः) तेजस्वी, (वैरूपैः) विविध रूपों, रुचि और कान्ति वाले, नाना विद्या, कलाओं में निपुण विद्वानों सहित (आ गहि) आ और (मादयस्व) सबको अन्न शिल्पादि से तृप्त, प्रसन्न कर। (यः) जो (पिता) पालक पिता के समान प्रजा का रक्षक है उस (विवस्वन्तं) विविध वसु, प्रजाओं और धनों के स्वामी को मैं (हुवे) प्रार्थना करता हूँ कि वह (ते अस्मिन् यज्ञे) तेरे इस यज्ञ में (बर्हिषि) वृद्धियुक्त आसन पर (नि-सद्य) विराजे और (आ) सब को हर्षित करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः॥ देवताः–१–५, १३–१६ यमः। ६ लिंगोक्ताः। ७-९ लिंगोक्ताः पितरो वा। १०-१२ श्वानौ॥ छन्द:- १, १२ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ३, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। १३, १४ निचृदनुष्टुप्। १६ अनुष्टुप्। १५ विराड् बृहती॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यज्ञियेभिः-वैरूपैः-अङ्गिरोभिः-यम-आ गहि इह मादयस्व) यज्ञार्हैर्यज्ञयोग्यैर्विभिन्नरूपैरङ्गिरोभिः-सायम्प्रातरमावस्यापौर्णमास्यादि-सन्धि-समप्राणैः कालावयवैः सह हे समय ! त्वमागह्यागच्छ तथाऽऽगत्येहास्मिन् यज्ञेऽस्मान्मादयस्व तर्पय (यः-ते पिता तं विवस्वन्तं बर्हिष्या निषद्य-अस्मिन् यज्ञे हुवे) यश्च ते पिता विवस्वान् सूर्योऽस्ति तमहमासनमुपविश्योपविष्टः सन्नस्मिन् क्रियमाणे यज्ञे हुवे-आहुतिप्रदानेनाददे युनज्मि। ‘अत्र हु धातुरादानार्थः’ “हु दानादनयोरादाने च” [जुहोत्यादिः] ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Yama, life time of health and age, come with pranic energies of nature of various and versatile sort worthy of union and assimilation according to time and seasons, be happy and rejoice with me. I invoke the refulgent Sun also, your generative father, and pray come and be seated in the holy heart core of this life yajna of mine for a full age of good health and joy. (Reference may be made to Atharva Veda 3, 8, 1: May the sun come with its rays joining and entering the earth and energising it according to the seasons. Rgveda 1, 71, 2 throws further light on the science of health and solar rays in relation to the earth and global atmosphere.)
मराठी (1)
भावार्थ
वेगवेगळ्या सणांच्या दिवसांत जेव्हा सूर्यरश्मी ही यज्ञात संयुक्त असतील अशा ठिकाणी पार्वण (पर्व) यज्ञ वेळेनुसार अनुकूल बनविण्यासाठी केले पाहिजेत. ॥५॥
टिप्पणी
वक्तव्य $ या सूक्तात प्रथम व षष्ठ मंत्र निरुक्तमध्ये व्याख्यात आहेत. निरुक्तकाराने यमाचा संबंध मृत पुरुषांच्या अधिष्ठात्याला दर्शविलेला नाही, तर त्यापेक्षा भिन्न एखाद्या विशेष विज्ञानाचा दर्शक अर्थ केलेला आहे. जी त्याची अत्युत्तम ग्राह्य नैरुक्त प्रक्रिया आहे. ज्याचे अवलंबन आमच्या अर्थात आहे. या सूक्तात वैवस्वत यमाची चर्चा आहे. जेथे जेथे यमाचे वैवस्वत विशेषण दिलेले आहे. तेथे तेथे विवस्वाना (सूर्य)कडून उत्पन्न झालेला काल यमाचा अर्थ आहे. त्यासाठी येथे ही वैवस्वत विशेषण असल्यामुळे यमाचा अर्थ काल आहे. ज्योतिर्विद्येत दोन प्रकारचा काल मानलेला आहे. एक लोकाचा अंत करणारा काल ज्याला विश्वकाल (व्यापी काल) म्हणतात. दुसरा गणनात्मक काल ज्याला संख्येय काल (काल विभाग) म्हणतात. $ ‘‘लोकानामन्तकृत्काल: कालोऽन्य: कलनात्मक: ।’’ (सूर्यसिद्धान्त १/१०) $ या प्रकारे या सूक्तात उभयविध कालाचे विज्ञान आहे. कालाचा जगाच्या मोठमोठ्या व छोट्या-छोट्या पदार्थांशी संबंध, जीवनकाळाच्या वृद्धीचा प्रकार, काळाचे ऋतू इत्यादी विभाग व त्यांचा इतर वस्तूंशी सहचार व उपयोग, प्राण्यांची उत्पत्ती, देहपात व पुनर्जन्मात काळाचा संबंध, भूत-वर्तमान-भविष्यात काल क्रांती व त्याचा प्रभाव इत्यादी इत्यादी आवश्यक विज्ञान या सूक्तात आहे.
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