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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
    ऋषिः - यमः देवता - लिङ्गोक्ताः पितरो वा छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सं ग॑च्छस्व पि॒तृभि॒: सं य॒मेने॑ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्यो॑मन् । हि॒त्वाया॑व॒द्यं पुन॒रस्त॒मेहि॒ सं ग॑च्छस्व त॒न्वा॑ सु॒वर्चा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ग॒च्छ॒स्व॒ । पि॒तृऽभिः॑ । सम् । य॒मेन॑ । इ॒ष्टा॒पू॒र्तेन॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । हि॒त्वाय॑ । अ॒व॒द्यम् । पुनः॑ । अस्त॑म् । आ । इ॒हि॒ । सम् । ग॒च्छ॒स्व॒ । त॒न्वा॑ । सु॒ऽवर्चाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं गच्छस्व पितृभि: सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन् । हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । गच्छस्व । पितृऽभिः । सम् । यमेन । इष्टापूर्तेन । परमे । विऽओमन् । हित्वाय । अवद्यम् । पुनः । अस्तम् । आ । इहि । सम् । गच्छस्व । तन्वा । सुऽवर्चाः ॥ १०.१४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (परमे व्योमन् पितृभिः सङ्गच्छस्व यमेन-इष्टापूर्तेन सम्) हृदयाकाश में वर्तमान हुए हे जीव ! तू प्राणों के साथ सङ्गत हो जा और वहीं जीवनकाल के साथ भी सङ्गत हो। इष्टापूर्त यज्ञादि रूप सञ्चित किये धर्मधन के साथ सङ्गति कर, जो तेरा सच्चा मित्र है और मरने पर साथ जाता है (अवद्यं हित्वाय पुनः-अस्तम्-एहि सुवर्चाः तन्वा सङ्गच्छस्व) गर्ह्य अर्थात् म्रियमाण या मरणधर्मी शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म को प्राप्त हो और उस पुनर्जन्म में सुन्दर शरीर के साथ युक्त हो जा ॥८॥

    भावार्थ

    प्रत्येक जीव वर्तमान देहपात के अनन्तर पुनः प्राणों और जीवनकाल से सङ्गत होता है और कर्मों के अनुसार पुनः नूतन नाड़ी आदि से युक्त शरीर को धारण करता है ॥८॥

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    विषय

    फिर घर की ओर

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव को निर्देश करते हैं कि (पितृभिः) = पालनात्मक कर्मों में लगे हुए पुरुषों के साथ (संगच्छस्व) = तू संगति करनेवाला हो। इनके संग में आकर तू भी निर्माणात्मक कार्यों की प्रवृत्ति वाला ही होगा। [२] (यमेन सम्) = [गच्छस्व ] संयमी पुरुषों के साथ तेरा मेल हो । यह इसलिए आवश्यक है कि इनके सम्पर्क में तेरा जीवन भी संयमी बन पाएगा। [३] (परमे व्योमन्) = इस उत्कृष्ट हृदयान्तरिक्ष में तू (इष्टापूर्तेन) [संगच्छस्व ] = इष्ट और आपूर्त की भावना से युक्त हो । तेरा वृत्ति यज्ञात्मक कर्मों की हो तथा तू वापी-कूप-तड़ाग आदि लोकहित की चीजों के निर्माण की वृत्ति वाला हो । [४] (अवद्यं हित्वाय) = सब निन्दनीय अशुभ कर्मों को छोड़कर (पुन:) = फिर (अस्तम्) = अपने घर, ब्रह्मलोक में (एहि) = आनेवाला बन । [५] इसी दृष्टिकोण से तू (सुवर्चा:) = उत्तम वर्चस् वाला बनकर (तन्वा) = विस्तृत शक्तियों का शरीर से (संगच्छस्व) = संगत हो । तेरा शरीर पूर्ण स्वस्थ हो और तू अपने शरीर की शक्तियों का विस्तार करनेवाला बन। बीमार व क्षीण शक्ति शरीर से हम जीवनयात्रा को क्या पूर्ण कर पायेंगे और किस प्रकार मोक्ष में पहुँच सकेंगे ?

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा सम्पर्क संयमी निर्माणात्मक कार्यों में लगे पुरुषों के साथ हो। हमारे हृदयों में भी यज्ञादि उत्तम कर्मों के करने का संकल्प हो । अशुभ से दूर होकर हम ब्रह्मलोक को प्राप्त करें। यात्रा की पूर्ति के लिये स्वस्थ शरीर वाले हों ।

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    विषय

    सत्संगति और गृहस्थ का उपदेश। पक्षान्तर में आवागमन पथ में विचरते जीव को उपदेश।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! वा हे स्त्री ! तू (पितृभिः) पालन करने वाले माता पिता, गुरुजनों से (सं गच्छस्व) सत्संग लाभ कर। (यमेन सं गच्छस्व) नियन्ता, शास्ता जन से और (परमे व्योमन्) परम, सर्वोत्कृष्ट आकाशवत् रक्षा स्थान, शरण्य प्रभु के अधीन रह कर (इष्ट-आपूर्तेन) यज्ञ दान, पालन पोषण के साधनों से (सं गच्छस्व) सदा युक्त रहे। (अवद्यं हित्वाय) निन्दनीय आचरण को छोड़ कर (पुनः अस्तम् एहि) बार २ गृह को प्राप्त हो। और (सु-वर्चाः) उत्तम तेजस्वी होकर (तन्वा) सन्तति उत्पन्न करने वाली स्त्री, और कुलवर्धक पुत्रादि से (सं गच्छस्व) संगति लाभ कर। संसार के आवागमन पथ में विचरते जीव के प्रति—हे जीव ! तू नाना माता, पिताओं से संगति कर। नियन्ता प्रभु द्वारा उत्तम यज्ञादि, श्रौत,स्मार्त्त कर्म के उत्तम फल से युक्त हो, निन्द्य कर्म को त्याग कर उत्तम तेजोयुक्त देह से पुनः २ युक्त होकर (अस्तं) परम शरण को पुनः प्राप्त हो, मुक्त हो, या देह लाभ कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः॥ देवताः–१–५, १३–१६ यमः। ६ लिंगोक्ताः। ७-९ लिंगोक्ताः पितरो वा। १०-१२ श्वानौ॥ छन्द:- १, १२ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ३, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। १३, १४ निचृदनुष्टुप्। १६ अनुष्टुप्। १५ विराड् बृहती॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (परमे व्योमन् पितृभिः सङ्गच्छस्व यमेन-इष्टापूर्तेन सम्) हृदयाकाशे वर्तमानस्त्वं हे जीव ! प्राणैः सह सङ्गतो भव पुनर्जन्मप्राप्तय इत्यर्थः “यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्” [तैत्ति० उप०२।१।१] “व्योमन्यात्मा प्रतिष्ठितः” [मुण्डको०२।२।७] तत्रैव च यमेन जीवनकालेन सह सङ्गतो भव। इष्टापूर्तेनानुष्ठितेन यज्ञादिशुभकर्मरूपेण धर्मेण सह सङ्गतो भव “एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः” [मनु०८।१७] इति चोक्तम् (अवद्यं हित्वाय पुनः-अस्तम्-एहि सुवर्चाः-तन्वा सङ्गच्छस्व) गर्ह्यमिदं शरीरं त्यक्त्वा पुनरस्तम्-पुनर्गृहं पुनर्योनिं पुनर्जन्मेत्यर्थः “अस्तं गृहनाम” [नि०३।४] एहि प्राप्नुहि। तत्र च पुनर्जन्मनि सुन्दरेण शरीरेण सह सङ्गतो भव। “सुवर्चाः” इत्यत्र “सुपां सु……।” [अष्टा ७।१।३९] इति तृतीयास्थाने सुप्रत्ययः ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O soul, join with pitr pranic energies and go forward, join with another life time for future existence and go forward, join with your acts of obligation and dharmic choice and go forward to the highest spaces, having left this exhausted body, go to a new home, join with a vigorous bright body full of fresh life again. (This is the journey from one life time to another.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक जीव वर्तमान देहपातानंतर पुन्हा प्राणांबरोबर व जीवनकालाशी संलग्न होतो व कर्मानुसार पुन्हा नवीन नाडी इत्यादीने युक्त शरीराला धारण करतो. ॥८॥

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