ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 12
ऋषिः - लुशो धानाकः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
म॒हो अ॒ग्नेः स॑मिधा॒नस्य॒ शर्म॒ण्यना॑गा मि॒त्रे वरु॑णे स्व॒स्तये॑ । श्रेष्ठे॑ स्याम सवि॒तुः सवी॑मनि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हः । अ॒ग्नेः । स॒म्ऽइ॒धा॒नस्य । शर्म॑णि । अना॑गाः । मि॒त्रे । वरु॑णे । स्व॒स्तये॑ । श्रेष्ठे॑ । स्या॒म॒ । स॒वि॒तुः । सवी॑मनि । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महो अग्नेः समिधानस्य शर्मण्यनागा मित्रे वरुणे स्वस्तये । श्रेष्ठे स्याम सवितुः सवीमनि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठमहः । अग्नेः । सम्ऽइधानस्य । शर्मणि । अनागाः । मित्रे । वरुणे । स्वस्तये । श्रेष्ठे । स्याम । सवितुः । सवीमनि । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(महः-समिधानस्य-अग्नेः) महान् प्रकाशमान सर्वनेता परमात्मा के (शर्मणि) सुखशरण में (अनागाः) पापरहित (स्याम) होवें तथा (श्रेष्ठे मित्रे वरुणे सवितुः सवीमनि) उस श्रेष्ठ प्रेरक अपनानेवाले शासक परमात्मा के प्रशासन में हम रहें। (तद्देवाना०) आगे पूर्ववत् ॥१२॥
भावार्थ
महान् प्रकाशमान सर्वनेता परमात्मा की सुखशरण निष्पाप जन ही प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें ही परमात्मा उत्तम कर्म करने की प्रेरणा देता है-अपनाता है, जो उसके शासन में रहते हैं ॥१२॥
विषय
प्रभु की प्रेरणा में
पदार्थ
[१] (समिधानस्य) = अग्निकुण्ड में समिद्ध की जाती हुई (महः अग्नेः) = महनीय अग्नि की (शर्मणि) = शरण में हम हों अथवा इस अग्निहोत्र की अग्नि के शर्मणि-सुख में हम हों । यह अग्नि नीरोगता व सौमनस्य को देती है और इस प्रकार हमारे जीवन को सुखी बनाती है । [२] (मित्रे) = मित्र में तथा (वरुणे) = वरुण की शरण में हम (अनागाः) = निष्पाप हों। मित्र की शरण में होने का अभिप्राय यह है कि हम सदा परस्पर स्नेह करनेवाले हैं तथा वरुण की शरण का अभिप्राय 'द्वेष से ऊपर उठना ' है । स्नेह व निद्वेषता हमारे जीवनों को निष्पाप बनाती हैं। इस प्रकार निष्पाप जीवनवाले हम स्वस्तये उत्तम स्थिति के लिये हों, हमारा जीवन उत्तम बने। [३] हम सदा (सवितुः) = उस प्रेरक प्रभु को (श्रेष्ठे सवीमनि) = प्रशस्यतम प्रेरणा में चलनेवाले (स्याम) = हों । यह प्रेरणा हमें कभी मार्गभ्रष्ट न होने देगी। [४] इस प्रेरणा में चलते हुए हम (देवानाम्) = देवों के (तद् अवः) = उस रक्षण को (अद्य) = आज (वृणीमहे) = वरते हैं । हम प्रभु प्रेरणा से चलते हुए अपने में दिव्यता का वर्धन करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - हम अग्निहोत्र करते हैं । स्नेह व निर्देषता को अपनाते हैं । प्रभु की प्रेरणा में चलते हुए अपने में दिव्यता का विकास करते हैं ।
विषय
प्रभु के परम सुख, और निष्पापता की कामना।
भावार्थ
(महः) बड़े (समिधानस्य) अच्छी प्रकार से देदीप्यमान उस प्रभु के (शर्मणि) परमानन्दमय सुख में रहें। हम (स्वस्तये) कल्याण को प्राप्त करने के लिये (मित्रे) स्नेहवान्, प्राणों के रक्षक (वरुणे) सर्वश्रेष्ठ प्रभु के अधीन (अनागाः स्याम) पाप, अपराध से रहित होकर रहें। और (सवितुः) सब जगत् के उत्पादक उस प्रभु के (श्रेष्ठे सवीमनि) सर्वश्रेष्ठ शासन में (स्याम) रहें। (देवानां तत् अचः अद्य वृणीमहे) हम विद्वानों का वह ज्ञान, बल, स्नेह प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(महः समिधानस्य-अग्नेः) महतः प्रकाशमानस्य सर्वनेतुः परमात्मनः (शर्मणि) शरणे (अनागाः) “अनागसः” व्यत्ययेन बहुवचने-एकवचनम् पापरहिताः सन्तः (स्याम) भवेम, तथा (श्रेष्ठे मित्रे वरुणे सवितुः सवीमनि) तस्य श्रेष्ठस्य प्रेरकस्य वरणकर्त्तुः “विभक्तिव्यत्यः” शासकस्य परमात्मनः प्रसवे प्रशासने वयं भवेम वर्त्तेमहि (तद्देवाना०) अग्रे पूर्ववत् ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us live under the shelter and protection of the great Agni, self-refulgent, self enlightened leading light of the cosmic yajna. Let us live free from sin and evil under the abundant care of Mitra, friendly sun, and Varuna, boundless ocean of space, for the achievement of plenty, prosperity and all round well being. Let us live under the guidance and ruling control of Savita, highest spirit of life, creation and regeneration. This is the gift of protection and progress we choose to ask of the divinities this day.
मराठी (1)
भावार्थ
महा प्रकाशवान सर्वांचा नेता असलेल्या परमात्म्याला निष्पाप लोकच शरण जाऊन प्राप्त करू शकतात. जे त्याच्या शासनात राहतात. त्यांनाच परमात्मा उत्तम कर्म करण्याची प्रेरणा देतो. ॥१२॥
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